1920 ई.का रतौना (सागर) आन्दोलन | मध्यप्रदेश का इतिहास
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1920 ई.का रतौना (सागर) आन्दोलन | मध्यप्रदेश का इतिहास

by रवि पाल
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आज हिंदुस्तान को आजाद हुए 76 वर्ष पूरे हो चुके है, कुछ वर्षों के बाद 100 वर्ष भी पूरे हो जायेंगे और ऐसे धीरे- धीरे समय बीतता जायेगा, इतिहास लिखने वाले इतिहास, लिखते रहेंगे और इसको पढ़ने वाले इसको पढ़ते रहेंगे लेकिन क्या समाज में कोई बदलाव आएगा या नहीं, यह एक अलग विषय है आज 1920 ई. का रतौना आन्दोलन के बारे में देखंगे

सबसे पहले रतौना के बारे में जानेंगे, यह मध्यप्रदेश के सागर जिले में एक क़स्बा हुआ करता था जोकि  बुन्देलखंड  संभाग में आता है आमतौर पर कहा जाता है कि हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए हेगेल (जर्मन दार्शनिक)  ने लिखा है कि “इतिहास का सबसे बड़ा सबक यही है कि इतिहास से कोई सबक नहीं लेता” हेगेल का कथन सागर (मध्यप्रदेश )जिले के सम्बन्ध में काफी सटीक बैठता है।

1842 में हुए बुन्देला विद्रोह एवं 1857 की क्रान्ति के दौरान सागर जिले में स्थित ब्रिटिश अधिकारी यहाँ की जनता के क्रान्तिकारी तेवर देख चुके थे, उन दोनों आन्दोलनों को दबाने में अंग्रेज़ों को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। इसके बावजूद भी ब्रिटिश सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा और सागर जिले के रतौना ग्राम में 1920 ई. में कसाईखाना निर्माण की योजना आरम्भ कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।

रतौना आन्दोलन की शुरुआत कैसे हुयी:-

सागर जिले से पश्चिम की ओर सागर-भोपाल मार्ग पर 8 मील की दूरी पर रतौना ग्राम स्थित है। जून 1920 ई. में ब्रिटिश सरकार ने रतौना में एक कसाईखाना खोलने की योजना आरम्भ की। इस योजना के तहत 1,400 पशु प्रतिदिन काटे जाने थे। मध्यप्रदेश में एक कम्पनी “सेण्ट्रल प्रोविंसेज ट्रेनिंग एण्ड ट्रेडिंग कम्पनी लिमिटेड” खुली, जिसकी लागत 40 लाख रुपया थी। इसका उद्देश्य चमड़े के व्यापार को, जो अभी तक जर्मनी के हाथ में था, अपने हाथ में लेना था।

इस कम्पनी के तहत रतौना कसाईखाने का प्रारम्भिक प्रबन्ध कलकत्ता की मेसर्स सेंट डेवेनपोर्ट एण्ड कम्पनी को सौंपा गया इसके सुपरिटेण्डिंग एक्सपर्ट अर्थात् देख-रेख करने वाले विशेषज्ञ मिस्टर दिशा (काल्पनिक नाम ) थे

डेवेनपोर्ट कम्पनी ने कसाईखाने के निर्माण हेतु राशि एकत्रित करने के लिए शेयर बेचने का दायित्व भी सम्भाला।इस कम्पनी को रतौना कसाईखाने में प्रतिदिन 1,400 पशु काटने का लाइसेंस मिला मगर कसाईखाने में प्रतिदिन 2,500 गाय-बैल काटने की योजना थी

रतौना कसाई खाना खुलने के पूर्व भी सागर सहित इसके आसपास खुरई, राहतगढ़ एवं दमोह में छोटे-मोटे कसाईखाने चल रहे थे। प्रश्न उठता है कि आखिर ब्रिटिश सरकार ने इस विशाल कसाईखाने के निर्माण के लिए सागर क्षेत्र को ही क्यों चुना?

वस्तुतः सागर की अच्छी जलवायु, भौगोलिक एवं सामाजिक स्थिति ने अंग्रेजों को अत्यधिक आकर्षित किया था और 1857 की क्रान्ति में  भी सागर के क्रांतिकारियों की भूमिका सबसे अहम थी

अंग्रेज अधिकारी जनरल ह्यूरोज ने स्वयं सागर के महत्त्व को रेखांकित करते हुए लिखा था कि

सागर का जबलपुर से अधिक महत्त्व है। सेन्ट्रल इण्डिया की तो यह आयुपशाला ही है जहाँ शस्त्रादि बनाए जाते हैं तथा यहीं से प्रदान किए जाते हैं। यहीं नहीं सागर की स्थिति ऐसी है कि वह मध्य में है तथा पश्चिम से उत्तर-पूर्व तथा दक्षिण भारत के लिए संचार साधनों का यह माध्यम है


सागर क्षेत्र की जलवायु बहुत अच्छी है, यहाँ के जानवर इस अच्छी जलवायु के कारण खासे मोटे-ताजे होते थे। यहाँ चमड़े के मसाले के लिए घने जंगल थे। इसी कारण सागर क्षेत्र के रतौना ग्राम का चयन कसाईखाना स्थापित करने हेतु किया गया

रतौना ग्राम में कसाईखाना चुनने का कारण तथा घटनाएँ:-

 किताबी रिसर्च और लाइब्रेरी के दस्तावेज  बताते है  कि मध्य प्रान्त (आज का मध्य प्रदेश) की सरकार ने मेसर्स डेवेनपोर्ट कम्पनी को रतौना ग्राम में 849 एकड़ भूमि कसाईखाने के निर्माण हेतु लगान पर दी तथा चमड़ा पकाने के लिए आवश्यक 71,350 मन मसाला जितन जंगल में प्राप्त हो सके उतने जंगल का ठेका देने का वायदा भी इस कम्पनी से किया गया। कसाईखाने के निर्माण हेतु 1,75,000 रुपए एवं उसके अहाते में तालाब के निर्माण के लिए 77,000 रुपए प्रस्तावित किए गए।

हितवाद समाचार  पत्र के सम्पादक श्रीयुत ए. एन. द्रविड़
3 जुलाई 1920 के समाचार-पत्र में कम्पनी का प्रॉस्पेक्टस पूरे तीन पृष्ठों में छापा गया ताकि लोगों तक यह बताया जा सके कि कंपनी यहाँ  के लोगों के हित में कार्य कर रही है और यहाँ के लोगों और कारोबारियों  को आकर्षित किया जा सके

 ऐसे ही विज्ञापन सरकार ने अपने अन्य सहयोगी पत्रों में प्रकाशित करवाए ताकि कारोबारी तथा उद्योगपति कम्पनी के अधिक-से-अधिक शेयर खरीद सकें। सरकार के साथ-साथ मध्यप्रदेश के कई बड़े-बड़े हिन्दुओं ने इस कम्पनी के शेयर खरीदे।

इस प्रकार रतौना के तालाब का निर्माण कार्य आरम्भ हो गया। यह तालाब आज भी सागर से भोपाल जाते समय देखा जा सकता है। आवागमन हेतु बीना-कटनी रेलमार्ग पर रतौना तक पहुँचने के लिए रेलवे स्टेशन एवं पटरी निर्माण का कार्य भी आरम्भ कराया

रतौना ग्राम में कसाईखाना के प्रचार- प्रसार के लिए समाचार-पत्रों में प्रकाशन :-

ब्रिटिश सरकार एवं कम्पनी द्वारा देश- दुनियां के विभिन्न  समाचार-पत्रों में निकलवाए गए विज्ञापनों द्वारा सागर में रतीना कसाईखाना खुलने का समाचार सागर एवं मध्य प्रान्त सहित समस्त भारत में फैल गया।

लेकिन ब्रिटिश सरकार यह बात भली भांति जानती थी कि इस कसाईखाने का विरोध जरुर होगा इसीलिए 1842 ई. के बुन्देला विद्रोह एवं 1857 की क्रान्ति के दौरान सागर स्थित अंग्रेज अधिकारी सागर में तैनात हो चुके थे ।

अंग्रेज़ों ने इस कारखाने को चलाने के लिए नया पैतरा शुरू किया जोकि उनके लिए बहुत बड़ा हथियार था| “फूट डालो और राज करो की नीति मुस्लिमों को हिन्दुओं से दूर रखने का प्रयास किया।

इसी नीति में  कम्पनी के प्रोस्पेक्टस में बार-बार गायके का उल्लेख किया गया। एक स्थान पर प्रोस्पेक्टस में साफ लिखा गया कि सुअर के चमड़े का कारोबार किसी तरह भी नहीं होगा  जाहिर है सरकार चाहती थी कि मुसलमान अंग्रेज़ों के साथ रहे, इसीलिए के काटने की बात तो की गई, मगर सुअर काटने से इन्कार किया गया।

ब्रिटिश सरकार का यह दाँव उस समय उल्टा पड़ गया जब इस रतीना कसाईखाने के विरुद्ध आन्दोलन की कमान 25 वर्षीय मुस्लिम नवयुवक भाई अब्दुल गनी (1895-1989) ने सम्भाली।  

रतौना आन्दोलन में 25 वर्षीय मुस्लिम नवयुवक भाई अब्दुल गनी का आगाज:-

उन्होंने स्वयं भी प्रजा अखबार में एक आलेख “रतीना कसाईखाने का सबसे पहले मैंने विरोध किया था” शीर्षक से लिखकर यह स्वीकार भी लिया है इसके बाद  भाई अब्दुल गनी के नेतृत्व में सागर क्षेत्र की जनता ने रतीना में खुलने वाले कसाईखाने का जबरदस्त विरोध आरम्भ कर दिया।

12 जुलाई 1920 ई. को मध्य प्रान्त एवं बरार के चीफ कमिश्नर सर फ्रेक जॉर्ज स्लाई सागर आए। उन्होंने कहा कि नए कसाईखाने में गाय-बैल दयालुता के साथ काटे जाएँगे अर्थात् एक जानवर के सामने दूसरा जानवर नहीं काटा जाएगा। सागर में पहले से भी एक कसाईखाना चल रहा है, मगर उसका चमड़ा बाहर भेजने के कारण सागरवासियों को कोई लाभ नहीं मिल पाता।

इस रतौना कसाईखाने के खुलने के बाद पक्का चमड़ा यहीं तैयार होगा, जिससे सागर जिले की औद्योगिक उन्नति होगी। जबलपुर से निकलने वाले साप्ताहिक समाचार-पत्र कर्मवीर के सागर संवाददाता भाई अब्दुल गनी ने बीफ कमिश्नर स्लाई महोदय का यह बयान कर्मवीर में प्रकाशनार्थ भेजा ।

अतः अब रतौना कसाईखाने के विरोध की प्रक्रिया तीव्र हुई और समाचार-पत्रों द्वारा इस विरोध की कमान कर्मवीर ने सम्भाली। इसके सम्पादक थे ‘दादा’ माखनलाल चतुर्वेदी

रतौना आन्दोलन में माखन लाल चतुर्बेदी ने कमान संभाली:-

एक रिसर्च बताता है जब पं. माखनलाल चतुर्वेदी खण्डवा से बम्बई जा रहे थे उस समय ट्रेन में पायोनियर समाचार-पत्र पढ़ रहे थे इसी दौरान उन्होंने सेण्ट्रल प्रोविंसेज ट्रेनिंग एण्ड ट्रेडिंग कम्पनी का विज्ञापन पढ़ा। इससे ही उन्हें पता चला कि सागर के रतीना ग्राम में कसाईखाना खुलने वाला है। वे बाम्बे न जाकर चालीस गाँव स्टेशन पर उतर गए। नवीन टिकट लेकर बम्बई मेल से वापस खण्डवा आ गए जबलपुर पहुँचकर उन्होंने 17 जुलाई 1920 के कर्मवीर में सम्पादकीय अग्रलेख लिखा

अब यह आन्दोलन  पूरे देश में बहुत तेजी से फ़ैल गया  था तथा इसका नेतृत्व एक और मुस्लिम अखबार के माध्यम नवयुवक कर रहा था , प्रथम विरोध जबलपुर के उदू अख़बार ताज के सम्पादक एवं मुस्लिम नेता ताजुद्दीन द्वारा किया गया।

इस कसाईखाने के विरुद्ध आवाज बुलन्द करने एवं ताज अख़बार में निर्भीक सम्पादकीय लिखने के कारण ताजुद्दीन महोदय पर सेक्शन 153A एवं 505 IPC के अन्तर्गत मुकदमा चलाकर उन्हें जेल भेज दिया गया, ताकि लोगों का उत्साह ठण्डा पड़ सके।

लेकिन इससे उत्साह ठण्डा होने के स्थान पर जनता का आन्दोलन चलाने का उत्साह और अधिक बढ़ गया। अब पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने इस आन्दोलन के लिये सत्याग्रह शस्त्र के प्रयोग पर बल देते हुए 28 अगस्त 1920 ई. को कर्मवीर में सम्पादकीय लिखा।

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रतौना  आन्दोलन में अख़बारों का महत्त्व:-

यह लेख दस्तावेजों से लिया गया है “हमारी परीक्षा का समय आ गया है। प्रार्थनाएँ, प्रस्ताव कुचल है। अब आवश्यकता है कि प्रान्त की गो परिषदें शीघ्र सागर में एकत्रित की जाएं। हमारा धर्म हमारी सम्पत्ति, हमारा प्यारा गो वंश तथा हमारी माँगों की महत्ता बतलाने के लिए आवश्यक है कि सत्याग्रह शस्त्र का उपयोग किया जाए“|

माखनलाल चतुर्वेदी ने एक और सागर में भाई अब्दुल गनी द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन को प्रोत्साहित किया तो दूसरी ओर इस आन्दोलन को सफल बनाने का प्रयास करने वे लाहौर जाकर लाला लाजपत राय से मिले ।

सितम्बर 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन होना था और इसमें लाला लाजपत राय को अध्यक्ष बनना था व असहयोग आन्दोलन का प्रस्ताव पारित करना था ।

माखनलाल चतुर्वेदी ने रतौना कसाईखाना से सम्बन्धित समस्त दस्तावेज़ लाला लाजपत राय को दिखाए  लाला लाजपत राय ने रतौना कसाईखाने के विरोध-स्वरूप अपने उर्दू दैनिक वन्दे मातरम्, जो कि लाहौर से प्रकाशित होता था, उसमें लेख लिखकर सारे देश की जनता को चौंका, इससे लोगों में और आक्रोश बड गया

इधर माखनलाल चतुर्वेदी कर्मवीर में अग्रलेख लिखकर एवं लाहौर आदि धूमकर रतीना कसाईखाने के विरोध हेतु जमीन तैयार कर रहे थे, उन्हीं दिनों भाई अब्दुल गनी सागर क्षेत्र के गाँव-गाँव में घूमकर रतौना सत्याग्रह चला रहे थे।

रतौना  आन्दोलन में अब्दुल गनी, मास्टर बलदेव प्रसाद, दुर्गाप्रसाद सेन जैसे क्रांतिकारी विचारों का सहयोग:-

इस सत्याग्रह को तेजी इस लिए और मिली क्योंकि अब्दुल गनी का साथ मास्टर बलदेव प्रसाद सोनी, गोविन्द दास लोकरस, बालकृष्ण लोकरस, दुर्गाप्रसाद सेन, स्वामी कृष्णानन्द, मौलाना चिरागउद्दीन, केशय रामचन्द्र खाण्डेकर, केदारनाथ रोहण, विश्वासराव भावे एवं बैरिस्टर बिहारी लाल आदि ने दिया बण्डा के जालिम सिंह मोती ने इस सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभाई।

1918 ई. में प्रथम विश्व युद्ध के समय फैली महामारी में उन्होंने मुहल्लों में जा-जाकर दवाएं बांटी। जब निरीक्षक ने उन्हें स्कूल न आकर दवाएं बाँटने के कार्य के लिए भला-बुरा कहा तो उन्होंने विक्षुब्ध होकर नौकरी छोड़ दी। उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसी नौकरी नहीं करना जिसमें मानवीयता का कोई स्थान न हो ऐसे मानवीय दृष्टिकोण वाले समाजसेवी अब्दुल गनी भला सागर में कसाईखाना कैसे खुलने दे सकते थे। उन्होंने स्पष्टतः कह दिया कि “इस आधुनिक कसाईघर में अंग्रेज़ हुकूमत को गाय का सिर काटने से पहले मेरा सिर काटना होगा।

जब भारत के सामाजिक इतिहास में साम्प्रदायिक सौहार्द का सुनहरा पन्ना रतौना सत्याग्रह के दौरान लिखा जा रहा था। हिन्दू गाय को माता मानते है। हिन्दुओं की सांस्कृतिक अस्मिता के इस प्रमुख प्रतीक गाय की रक्षा की खातिर एक मुसलमान (भाई अब्दुल गनी) अपना सिर कटाने को तैयार था। माखनलाल चतुर्वेदी ने भी अपने पत्र कर्मवीर में लिखा था –
हिन्दू ही नहीं मुसलमान भी गाय में पवित्रता का अनुभव करने लगे हैं। ये कुरान शरीफ की आयतों से इसे सिद्ध करते हैं और प्रेम तथा जोश के साथ कहते हैं कि हमारे पैगम्बर साहब फरमा चुके हैं– “गाय का गोश्त मर्ज़ है और दूध सफा है।

माखनलाल चतुर्वेदी का लेख:-

माखनलाल चतुर्वेदी ने एक मुस्लिम नेता का हवाला देते हुए बताया कि – एक महीने में एक मुसलमान की थाली में कभी-कभी ही गो-मांस पहुँचता है किन्तु एक अंग्रेज़ की थाली में वह एक दिन भी गैर-हाज़िर नहीं रहता है

गाय को काटकर अंग्रेज़ यहाँ की उर्वरा धरती को बंजर करना चाहते थे। कम्पनी द्वारा जो हिसाब प्रस्तुत किया गया उसके तहत प्रतिवर्ष 2 लाख गाय-बैल काटे जाने थे जिनसे 20 लाख रुपए की आमदनी होनी थी। अर्थात् केवल 10 रुपए के लाभ के लिए एक गाय की हत्या की जानी थी।

भाई अब्दुल गनी एवं माखनलाल चतुर्वेदी दोनों ही अंग्रेजों की कसाईखाना खोलने नीति से अत्यन्त आहत थे। उनके भाषणों में उनके अन्दर का ब्रिटिश- विरोधी क्रोध ज्वाला बनकर फूट रहा था। उनके भाषणों में गज़ब का तेज ही नहीं एक साथ कई सामाजिक निहितार्थ छुपे हुए रहते थे। ऐसा ही एक ऐतिहासिक भाषण माखनलाल चतुर्वेदी ने जबलपुर में रतीना कसाईखाने के विरोध स्वरूप आयोजित आम सभा में दिया उसके कुछ अंश निम्नवत है

आज तक गो-वध के मसले पर हम लोग (हिन्दू-मुस्लिम) एक-दूसरे का सिर फोड़ चुके हैं। इसी कारण को लेकर राजसत्ता ने हमारे बीच फूट के बीज बोए हैं। किन्तु आज जब ये दोनों कौम एक हो गई, तब गोवध का असली रूप प्रकट हुआ जितनी गाये यूरोपियनों के केवल माँस-भोजन की इच्छा को तृप्त करने के लिए मारी जाती है, उतनी मुसलमानों के लिए कदापि नहीं मारी जाती।

इतिहास के पन्ने:-

यदि जल्लाद होकर 2,500 जानवर काटे जाने पर सरकार उतारू है तो रतौना के आसपास रहने वालों को पहले जहर दे दे। ऐसे समय मुसाफिर क्या करेगा? यह कहेगा – भाई, उस भट्टी में मुझे झोंक दे, रोटी बचेगी तो तुम्हारे काम आएगी। 

हम भी सरकार से कहते है कि यूरोपियों के पेट की भट्टी में (गो-मॉस की जगह) हमें डाल दे, गायें बचेंगी तो वे तुम्हें दूध-धी द्वारा पुष्ट करेगी।

रतौना आन्दोलन क एक भाषण:-

मरते समय अनादि काल से गाय हिन्दुओं में माता समझी जाती है। रघुवंश के राजा दिलीप नन्दिनी नामक गाय को चराया करते थे। हमारे यहाँ गाय दान करने की प्रथा है, सोचिए यदि गायें न रहेगी तो आप गोदान किस तरह कर सकेंगे? देखिए रतौना की कम्पनी ने मुसलमानों को बहकाने के लिए कैसी तजबीज की है सुअर नहीं मारे जाएंगे, क्यों?

इसलिए कि मुसलमानों की भावनाओं का कम्पनी विचार रखती है। भारत अब जाग चुका है, इस भेद नीति से अब काम न चलेगा। अन्त में आपको एक शुभ संवाद सुनाता हूँ कि हम लोगों की आवाजों की वजह से रतीना की कम्पनी के अंग्रेज़ मैनेजिंग डायरेक्टर टेरले ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है (तालियाँ) यह आप ही के आन्दोलन का प्रताप है। आपकी यह पहली विजय है। आप आगे आन्दोलन कीजिए

यह एक ऐसा ओजस्वी भाषण था जिसने जनता को आन्दोलित कर दिया। उनकी वाणी में जादू का सा असर था राजेन्द्र अवस्थी ने उचित हो लिखा है कि माखनलाल चतुर्वेदी के भाषण फिसेनी आजाद के इस शेर को चरितार्थ करते थे

महत्वपूर्ण बातें :-

यह ओजस्वी भाषण 28 अगस्त 1920 के कर्मवीर में छपा, जिसने समस्त भारत में रतौना कसाईखाना विरोधी आन्दोलन में तेजी ला दी । रतौना का प्रश्न अब प्रान्तीय प्रश्न नहीं रह गया। बम्बई, कलकत्ता, लाहौर, अमृतसर एवं अन्य कई नगरों में रतीना कसाईखाने का विरोध होने लगा। समस्त भारत के हिन्दू-मुसलमान मिलकर इसका विरोध करने लगे। मध्य प्रान्त के हिन्दू-मुसलमानों ने अपने-अपने नगर में इस घृणास्पद तथा देश को आर्थिक क्षति पहुँचाने वाली तजबीज का तिरस्कार किया

सितम्बर 1920 में कलकत्ता के विशेष अधिवेशन के अखिल भारतीय कॉंग्रेस के भावी अध्यक्ष एवं प्रख्यात उग्रवादी नेता लाला लाजपत राय ने रतौना सत्याग्रह पर सरकार द्वारा ध्यान न दिए जाने पर अपनी प्रतिक्रिया अपने पत्र वन्दे मातरम् में इस प्रकार की

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सरकार के अफसरों को आदत पड़ गई है कि वे धीमी आवाज सुनना पसन्द नहीं करते और जब आवाज ऊँची होती है तो बगावत का नाम लेकर तिलमिलाते हैं। जो आग आज मध्य प्रान्त सरकार की बेसमझी से लगी है वह जल्द बुझने वाली नहीं है।

महामना मदन मोहन मालवीय ने भी रतौना कसाईखाने का विरोध किया यह दोनों ही ( मदन मोहन मालवीय एवं लाजपत राय) हिन्दू महासभा के प्रमुख नेता थे और हिन्दू महासभा 1920 के दशक में एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनकर उभर रही  थी।


चकराघाट पर कसाईखाने के विरोध स्वरूप एक विशाल सभा आयोजित की गई। इसमें उपस्थित लगभग 50,000 की भीड़ को तितर-बितर करने व डराने के उद्देश्य से पास ही स्थित किले में मशीनगन लगा दी गई। खबर उड़ाई गई कि मशीनगन चलने वाली है। परन्तु भीड़ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, भीड़ टस से मस नहीं हुयी

सागर में अब्दुल गनी, मास्टर बलदेव प्रसाद सोनी खाण्डेकर एवं अन्य सहयोगियों द्वारा चलाए जा रहे माखनलाल चतुर्वेदी एवं लाला लाजपत राय द्वारा अखबारों में रहे तीव्र विरोध से ब्रिटिश सरकार अत्यधिक घबरा गई। लाला लाभार राय ने सितम्बर में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस विशेष अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में रतौना आन्दोलन का उल्लेख किया। जब इ अधिवेशन में इस पर प्रस्ताव रखे जाने की चर्चा चल रही थी उ समय पं. विष्णुदत्त शुक्ल के नाम मध्यप्रदेश सरकार का तार आ गया कि रतौना कसाईखाना रोक दिया गया है|

ऐसे इस आन्दोलन की जीत हुयी :-

रतौना कसाईखाने के खोलने की योजना अन्ततः सरकार को त्यागनी पड़ी। यह भाई अब्दुल गनी एवं उनके साथियों, सागर सहित मध्य प्रान्त की समस्त जनता की एवं माखनलाल चतुर्वेदी, ताजुद्दीन एवं लाला लाजपत राय की सशक्त पत्रकारिता की विजय थी। माखनलाल चतुर्वेदी ने इसे भाई अब्दुल गनी एवं जनता के आन्दोलन की जीत बताया तो भाई अब्दुल गनी ने इसे माखनलाल चतुर्वेदी के अभिनव प्रयासों का प्रतिफल बताया। भाई अब्दुल गनी ने लिखा भी है

पूज्य श्रद्धेय दादा पं. माखनलाल चतुर्वेदी का सागर जिला और मध्यप्रदेश सदैव इसलिए ऋणी रहेगा कि उनके द्वारा सम्पादित कर्मवीर ने अंग्रेज सरकार द्वारा रतौना पर खोले जाने वाले कसाईखाने को बन्द कराने में विजय दिलवाई

मध्यप्रदेश की धरती पर बुन्देलखण्ड के हृदयस्थल सागर में ब्रिटिश सरकार की अखिल भारतीय स्तर पर प्रथम शिकस्त एवं सागर की जनता की प्रथम जीत का जश्न जब पूरा प्रान्त मना रहा था  18 सितम्बर 1920 को माखनलाल चतुर्वेदी ने संशयात्मक ढंग से अपने पत्र कर्मवीर में लिखा

बॉम्बे क्रॉनिकल की सरकारी विज्ञप्ति है कि रतीना कसाईखाना बन्द हो गया है। यह जनता के मजबूत आन्दोलन का प्रताप है कि डेवेनपोर्ट कम्पनी का पट्टा भी सरकार को रद्द करना पड़ेगा। परन्तु सरकार ने कहीं प्रकट नहीं किया है कि उसने कसाईखाना खोलने का विचार त्याग दिया है।

एक ओर माखनलाल चतुर्वेदी थोड़े से आशंकित थे तो दूसरी ओर रतौना सत्याग्रह की सफलता ने सागर के नाम को राष्ट्रीय पटल पर ला दिया। नवनिर्मित हिन्दी मध्यप्रदेश प्रान्तीय काँग्रेस कमेटी की बैठक 27 नवम्बर 1921 को सागर में डॉ. राघवेन्द्र राव की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। रतौना सत्याग्रह के कुछ लोग इसमें पदाधिकारी बनाए गए

रतौना आन्दोलन में अब्दुल गनी पर मुकदमा:-

खुरई के टाउन इंस्पेक्टर मिस्टर नौरोजी ने यह कहा कि भाई अब्दुल गनी डिफेन्स नहीं करेंगे उन्हें जेल भेजा जाना चाहिए। सागर में सामाजिक सद्भाव, एकजुटता एवं भाईचारे की अभिनव मिसाल उस समय देखने को मिली जब स्वप्रेरणा से सागर के 12 वकील भाई अब्दुल गनी का मुकदमा लड़ने खुरई पहुँच गए। इनमें गोविन्द राव लोकरस, पुरुषोत्तम लाल रोहण एवं गोपीलाल श्रीवास्तव आदि प्रमुख थे|

जिन्होंने भाई अब्दुल गनी की जोरदार पैरवी की। उन्होंने साबित कर  दिया कि इस तरह से कसाईखाना खोलना पूर्णतः गैर-कानूनी है। सैफुद्दीन साहब ने भाई अब्दुल गनी को बाइज्जत बरी कर दिया। मध्य प्रान्त की सरकार के रेवेन्यू मिनिस्टर ई. गार्डन महोदय ने सी.पी. गजट में यह नोटिस पब्लिश कर दिया कि दलपतपुर रैयतवाड़ी में जमीन कसाईखाना को नहीं दी जाएगी।° भाई अब्दुल गनी एवं सागर क्षेत्र की जनता की यह एक और प्रमुख जीत थी।

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रतौना सत्याग्रह एवं कसाईखाना विरोधी आन्दोलन में 1920 से 1926 ई. तक भाई अब्दुल गनी एक नायक के रूप में छाए रहे। उन्होंने पं. सुन्दर लाल तपस्वी के दैनिक भविष्य से पत्रकारिता का आरम्भ किया था। उन्होंने अपनी पत्रकारिता का उपयोग हिन्दू-मुस्लिम एकता हेतु किया।

1924 में उनके सम्पादन में साप्ताहिक समालोचक प्रारम्भ हुआ जो कि हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रबल पक्षधर था। रतौना कसाईखाना विरोधी आन्दोलन के नायक एवं समालोचक के सम्पादक भाई अब्दुल गनी ने 1937 ई. में सागर से अपने स्वयं के साप्ताहिक पत्र देहाती दुनिया का सम्पादन किया। नाम से ही स्पष्ट है कि इसका प्रमुख उद्देश्य साम्प्रदायिक सौहार्द के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्र में एक जन-जागरण भी था|

“ भारतवर्ष के स्वाधीनता आन्दोलन में ब्रिटिश सरकार को सागर के रतौना सत्याग्रह ने करारी शिकस्त दी। उपाश्रयी इतिहास लेखन (Subaltern Historiography) की दृष्टि से देखें तो रतौना सत्याग्रह सागर में जन- आन्दोलन की अनूठी मिसाल प्रस्तुत करता है।

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