जब हम किसी देश के वर्तमान को जानने और समझने की बात करते है तो हमने उसके भूतकाल के बारे में पता होना जरूरी है इसी विषय को देखते हुए आज हिंदुस्तान के उस इतिहास के बारे में देखंगे, जो इतिहास ज्यादातर किताबों में नहीं लिखा गया या इतिहासकरों ने लिखने को उचित नहीं समझा , आज के इस लेख में सागर जिले में हुए 1920 के रतौना आन्दोलन और सागर में ही 1857 की क्रान्तिके बारे में अध्यन करेंगे |
इस तुलनात्मक अध्यन से यह समझने की कोशिश करेंगे क्या कारण हुए कि 1857 की क्रांति कैसे बिफल हुयी उसके बाद जब 1920 में अंग्रेजो की कंपनी के द्वारा रतौना ग्राम में कसाईखाना खोला जा रहा था उसमें किस तरह यहाँ के पत्रकारों और समाज सुधारकों ने जीत दर्ज की, यह एक तरह का निबंध है
यदि देश और दुनियां में तुलनात्मक इतिहास दर्शन का ध्यान करते है तो इसके लिए इटली के महान् दार्शनिक इतिहासकार जियाम्बत्तिस्ता विको (1668-1744 ई.) को सबसे अच्छा दार्शनिक माना जाता है।
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सागर में 1857 की क्रान्ति एवं 1920 के रतौना आन्दोलन का तुलनात्मक अध्ययन को किसके अनुसार देखा गया:-
प्रख्यात समाजवादी विचारक एवं स्कूल ऑफ एनाल्स से सम्बद्ध डेविड एमाइल दुर्खीम महोदय ने कार्यकरण सम्बन्ध की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए तुलनात्मक पद्धति को सर्वोत्कृष्ट पद्धति बताया है।
इस पद्धति को वे पूर्णतः वैज्ञानिक मानते हैं। ऐतिहासिक अध्ययन में तुलनात्मक पद्धति के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कार्ल मार्क्स ने भी लिखा है
कहते है कार्ल मार्क्स ने जिस किसी के बारे में लिखा है वह बिलकुल सच हुआ है चाहे प्रथम विश्व युद्ध की बात हो या फिर किसी और देश के इतिहास याफिर कोई विचारधारा, इन्होने जो भी लिखा ज्यादातर सच हुआ है
कार्ल मार्क्स , अरनॉल्ड जोसेफ टॉयनबी और डेविड एमाइल दुर्खीम के विचार तथा आन्दोलन का तुलनात्मक अध्ययन पर विचार:-
विश्व के प्रख्यात इतिहासकार अरनॉल्ड जोसेफ टॉयनबी ने अपने विश्वविख्यात एक ग्रन्थ A Study of History में तुलनात्मक पद्धति का ही अनुप्रयोग किया है । यहाँ टॉयनबी के लिए तुलनात्मक पद्धति के अनुप्रयोग का प्रमुख प्रेरणा-स्रोत भी रहा है जिसमें इन्होने आन्दोलन कोम अच्छे से देखा और उस पर रिसर्च क्या , इसके बाद में उस विषय पर अपने विचार दिए |
मध्य प्रदेश का 1857 की क्रांति तथा 1920 का सागर जिले का रतौना आन्दोलन के अध्ययन करने पर कुछ ऐसे विशिष्ट तथ्य दृष्टिगोचर प्राप्त होते हैं जो कि स्वतः ही इनका तुलनात्मक अध्ययन करने को बाध्य करते हैं।
सागर में 1857 ई. की क्रान्ति एवं 1920 ई. के रतौना आन्दोलन का सांगोपांग वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अध्ययन:_
सागर में इन दोनों प्रमुख घटनाओं के मध्य 63 वर्ष का लम्बा अन्तराल था इनके बीच कई उल्लेखनीय समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। ये दोनों ही घटनाक्रम सागर में जुलाई माह में आरम्भ हुए और दोनों को ही आरम्भिक नेतृत्व मुस्लिम नवयुवकों ने प्रदान किया। सागर में 1 जुलाई 1857 को 42 देशी पलटन के सूबेदार शेख रमजान ने क्रान्ति का शंखनाद किया।
यदि आपने रतौना का आन्दोलन नहीं पढ़ा है तो यहाँ क्लिक करें
जैसा कि आपको पता है वर्ष 1920 ई जुलाई महीने में भी सागर में रतीना कसाईखाना विरोधी आन्दोलन का सबसे पहले नेतृत्व एक 25 वर्षीय मुस्लिम नवयुवक भाई अब्दुल गनी (1895-1989) ने किया जोकि पेशे से एक पत्रकार थे और अपनी पत्रिका भी चलाते थेमध्य प्रान्त के सागर में घटित उक्त दोनों ही प्रमुख ऐतिहासिक घटनाक्रमों के मूल में अन्य कारणों के अलावा धार्मिक कारण प्रमुख रूप से विद्यमान थे।
मई में मेरठ में 1857 की क्रान्ति आरम्भ होने के बाद सागर में भी ये कहानियाँ प्रचारित हो रही थी कि, घी, आटे एवं शक्कर में सरकार के आदेश से सुअर व गाय के खून व हड्डी के चूरे का मिश्रण मिलाया गया है। इससे सागर क्षेत्र की जनता भड़क उठी, इसे उसने अपनी धार्मिक आस्थाओं पर आघात माना।
किस तरफ से अंग्रेजों की कंपनी ने सागर के रतौना जिले में कसाईखाना खोला , यहाँ क्लिक करें
मध्य प्रान्त के सागर में 1857 की क्रान्ति अध्ययन किस प्रकार से किया गया:-
यहाँ एक तथ्य उल्लेखनीय है कि अंग्रेज़ 1857 ई. की क्रान्ति के दौरान सागर में अभूतपूर्व हिन्दू-मुस्लिम एकता देख चुके थे, अतः 1920 ई. में उन्होंने यहाँ के मुसलमानों को अपने पक्ष में रखने का प्रयास किया।
कम्पनी ने अपने प्रोस्पेक्टस में बार-बार गाय काटने का उल्लेख किया था, इसमें यह स्पष्ट किया गया था कि सुअर के चमड़े का कारोबार किसी भी तरह नहीं होगा।” जाहिर है सरकार चाहती थी कि इससे मुस्लिम उनका विरोध नहीं करेंगे। मगर सरकार का दाँव उस समय उल्टा पड़ गया जैसा कि आपने उपर पढ़ा कि किस तरह से मुस्लिम पत्रकारों ने इसका विरोध किया और इसी कड़ी में सर्वाधिक विरोध एक मुस्लिम भाई अब्दुल गनी ने ही किया था
1857 में यदि अंग्रेज़ों ने सागर की सामरिक एवं भौगोलिक स्थिति को महत्त्वपूर्ण माना तो 1920 ई. में यहाँ की अच्छी जलवायु ने उन्हें सागर क्षेत्र में कसाईखाना खोलने को प्रेरित किया। सागर काफी पहले से ही अंग्रेजों की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा था।
सागर में 1857 की क्रान्ति के दमनकर्ता” ब्रिगेडियर जनरल ह्यूरोज ने स्वयं सागर के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा था कि “सागर का जबलपुर से अधिक महत्त्व है।”
1920 ई. में भी कसाईखाना खोलने के लिए अंग्रेज़ों ने सागर क्षेत्र को इसलिए चुना क्योंकि यहाँ की जलवायु अच्छी है, यहाँ के जानवर इस अच्छी जलवायु के कारण खासे मोटे-ताजे होते थे। यहाँ चमड़े के मसाले के लिए घने जंगल थे।
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1857 ई. में सागर में क्रान्ति का आरम्भ तो शेख रमज़ान ने किया:-
मगर बाद में कान्ति का नेतृत्व उन्होंने शाहगढ़ पहुँचकर यहाँ के क्रांतिकारियों को सौप दिया। राजा बली ने 18 जुलाई को तोपें दागकर पहले तो बहादुरशाह जफर द्वारा क्रान्ति को नेतृत्व देने के साहस का स्वागत किया
इससे सागर स्थित अंग्रेज़ों के पसीने छूटने लगे ठीक ऐसी ही स्थिति 1920 ई. में भी हुई। सागर में कसाईखाने का विरोध पहले तो भाई अब्दुल गनी ने किया बाद में माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने पत्र कर्मवीर के माध्यम से रतौना में खुलने वाले कसाईखाने का जमकर विरोध किया।
1857 की क्रान्ति में विद्रोहियों के डर से सागर के किले में 370 (173 पुरुष, 63 महिलाएँ, एवं 134 बच्चे) शरण लिए हुए थे। बखतवली ने बानपुर राजा मर्दन सिंह एवं बाँदा नवाब अली बहादुर को पत्र लिखकर सागर पर आक्रमण हेतु बुलाया
रतौना आन्दोलन का तुलनात्मक अध्ययन निबंध 1857 की क्रान्ति:-
1857 की क्रान्ति में विद्रोहियों के डर से सागर के किले में 370 (173 पुरुष, 63 महिलाएँ, एवं 134 बच्चे) शरण लिए हुए थे। बखतवली ने बानपुर राजा मर्दन सिंह एवं बाँदा नवाब अली बहादुर को पत्र लिखकर सागर पर आक्रमण हेतु बुलाया
अंग्रेजों के पसीने छूट गये तथा आक्रमण किया, परन्तु किले पर अधिकार न कर सका। मर्दन सिंह एवं वखतवती का आतंक अब अंग्रेज़ों के सिर चढ़कर बोलने लगा। इस आतंक की अनुगूंज तत्युगीन लोकगीतों में भी सुनाई दे रही थी।
सागर में 1857 की क्रान्ति की तरह 1920 के आन्दोलन में गलतियाँ नहीं दोहराई:-
बखतवली के अंग्रेज़ों पर छाए आतंक की हद उस समय हुई जब उसने डिप्टी कमिश्नर सागर को जबरदस्ती एक फार्म पर हस्ताक्षर करने हेतु बाध्य किया। इसमें लिखा था कि “पॉलिटिकल असिस्टेण्ट नागोद के अनुरोध पर बखतवली ने ब्रिटिश इलाकों को लूटा है एवं अपने याने कायम किए है वह किसी प्रकार दोषी नहीं है तथा जो भी अब तक घटित हुआ उसके लिए बखतयली कतई उत्तरदायी नहीं है।
डिप्टी कमिश्नर सागर ने अपनी मजबूरी का उल्लेख कमिश्नर जबलपुर को 3 अगस्त 1857 को भेजे अपने पत्र में करते हुए लिखा था उसे वहालत मजबूरी में ईसा मसीह के नाम पर हस्ताक्षर करना पड़े। यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसे बहुत पछताना पड़ता बखतवली की यह अंग्रेजों पर पहली विजय थी।
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1857 का यही इतिहास 1920 ई. में पुनः दोहराया गया । माखनलाल चतुर्वेदी ने ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाने के लिए बखतवली की तरह युद्ध-स्तर पर प्रयास आरम्भ किए लाहौर जाकर वे प्रख्यात उग्रवादी एवं हिन्दू नेता लाला लाजपत राय से मिले और उन्हें रतौना कसाईखाना एवं उसके विरोध स्वरूप चलने वाले आन्दोलन की जानकारी दी थी
इतिहास के पन्ने :-
माखनलाल चतुर्वेदी एवं लाला लाजपत राय के प्रयासों से अंग्रेज़ सरकार अत्यन्त दबाव में आ गई। इस दबाव का उल्लेख माखनलाल चतुर्वेदी में जबलपुर में आम सभा में एक ऐतिहासिक भाषण में करते हुए कहा-
हम लोगों की आवाजों की वजह से रतीना की कम्पनी के अंग्रेज़ मैनेजिंग डायरेक्टर टेरले ने अपने पद से त्याग पत्र दे दिया है। यह आप ही के आन्दोलन का प्रताप है। आपकी यह पहली विजय है। आप आगे आन्दोलन कीजिए रतौना में अड़ जाइए अपने मुस्लिम भाइयों की मदद से अपने बलिदान से सरकार को बता दीजिए
कि हम स्वयं मर सकते हैं, किन्तु गायों का मरना नहीं देख सकते उनका यह ओजस्वी भाषण 28 अगस्त 1920 को कर्मवीर में छपा जिसने समस्त सागर क्षेत्र में रतीना कसाईखाना विरोधी आन्दोलन में तेजी ला दी रतीना का प्रश्न अब प्रान्तीय प्रश्न नहीं रह गया। बम्बई, कलकत्ता, लाहौर अमृतसर सहित कई नगरों में रतौना कसाईखाने का विरोध होने लगा
सागर सहित समस्त बुन्देलखण्ड में 1857 की क्रान्ति की तीव्रता व देखते हुए महू में ब्रिगेडियर जनरल ह्यूरोज के अधीन सेण्ट्रल इण्डिया फोन का गठन हुआ। यद्यपि बखतवली व मर्दन सिंह ने इस फोर्स का डटक विरोध किया मगर वे परास्त हुए और 3 फरवरी 1858 को सागर पुनः ब्रिटिश नियन्त्रण स्थापित हो गया ।
1857 की क्रान्ति असफल होने के बाद 1920 का आंदोलन कैसे सफल हुआ:-
1857 ई. में बखतवली की योजना भले ही असफल रही मगर 1920 ई. में माखनलाल चतुर्वेदी को सुनियोजित रणनीति अन्ततः सफल रही। माखनलाल चतुर्वेदी ने इसे भाई अब्दुल गनी एवं सागर की जनता के आन्दोलन की जीत बताया।
भाई अब्दुल गनी ने लिखा कि पूज्य श्रद्धेय दादा पं. माखनलाल चतुर्वेदी का सागर जिला और मध्यप्रदेश सदैव इसलिए ऋणी रहेगा कि उनके द्वारा सम्पादित कर्मवीर ने अंग्रेज़ सरकार द्वारा रतीना में खोले जाने वाले कसाईखाने को बन्द कराने में विजय दिलवाई
वस्तुतः रतीना कसाईखाना विरोधी आन्दोलन के आरम्भकर्ता एवं सूत्रधार थे भाई अब्दुल गनी और इस आन्दोलन को एक सुनिश्चित गति, दिशा नेतृत्व एवं वाणी प्रदान की माखनलाल चतुर्वेदी और जबलपुर से निकलने वाले उनके पत्र कर्मवीर ने विजयदत्त श्रीधर ने उचित ही लिखा है कि-
मध्य प्रान्त की धरती पर अंग्रेज़ों की इस (1920 ई.) पहली नैतिक प्रशासनिक शिकस्त ने स्वतन्त्रता संग्राम की शक्ति कितनी बढ़ाई होगी इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है
निष्कर्ष:-
निष्कर्षतः हम देखते हैं कि 1857 एवं 1920 ई. के दौरान सागर में हिन्दू-मुस्लिमों ने कन्धे से कन्धा मिलाकर अंग्रेजों का पुरजोर विरोध किया। बखतवली एवं माखनलाल चतुर्वेदी के प्रयासों ने निरन्तर सागर स्थित अंग्रेजों पर दबाव बनाए रखा। बखतवली ने यदि अपने पत्र व्यवहार द्वारा समस्त बुन्देलखण्ड के राजाओं को एकजुट करने का प्रयास किया
वहीँ माखनलाल चतुर्वेदी ने कर्मवीर पत्र के माध्यम से समस्त भारत के प्रमुख नेताओं को लामबन्द किया। समय एवं परिस्थितियों की बात थी कि बखतवली अपने प्रयासों में असफल रहा मगर माखनलाल चतुर्वेदी के प्रयास सफल रहे। समस्त भारत के इतिहास में सागर की धरती पर 1920 में ब्रिटिश सरकार को अन्ततः प्रशासनिक शिकस्त मिली और कसाईखाना खोलने की योजना त्यागना पड़ी।
1857 की क्रान्ति के दौरान सागर की धरती पर अंग्रेज़ों को शिकस्त देने का जो ख्वाब शेख रमज़ान व बखतवली ने देखा था उसे अन्ततः 63 वर्ष बाद भाई अब्दुल गनी एवं माखनलाल चतुर्वेदी ने पूर्ण किया। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि सागर में 1920 के रतीना आन्दोलन ने 1857 की क्रान्ति के अधूरे कार्य को अन्ततः पूर्ण किया।
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