यदि हम भारत के इतिहास के बारे में लिखते और समझते है तो हमें ऐसे बहुत से क्रांतिकारी, समाज सुधारक, लेखक के बारे नहीं बताया गया है या उनको बारे में बहुत कम लिखा गया, हम यहाँ कोशिस करते है ताकि कुछ रिसर्च लिख सकें, आज शाह मुहम्मद इसहाक़ के बारे में लिखेंगे,
यदि आपने टीपू सुल्तान, शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी, शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी के बारे में नहीं पढ़ा है तो यहाँ क्लिक करके अवश्य पढ़े
शाह मुहम्मद इसहाक़ का जन्म और उनकी सोच:-
इनका जन्म 4 नवंबर 1783 दिल्ली में हुआ था, कहते है इस हिंदुस्तान देश हजारों क्रांतिकारियों समय- समय पर जन्म दिया है चाहे वो हिन्दू धर्म या मुस्लिम, सिक्ख या इसाई कोम में जन्मा हो यहाँ भी ऐसे क्रातिकारी पुरुष के बारे में बता रहे है जो मुश्लिम कोम में जन्मा और ऐसे एक नहीं बल्कि सैकड़ों हज़ारों देश प्रेमी मुसलमानों ने जन्म लिया है जिनके द्वारा फिरंगियों के विरुद्ध आज़ादी का अभियान आरंभ किया गया।
उनके निधन के बाद भी उनके द्वारा चलाया गया आन्दोलन मीरास के तौर पर उनके वारिसों को विरासत में मिला। इस प्रकार आज़ादी के आन्दोलन को नए जोश और नई ताकत के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी चलाया गया। उदाहरण के तौर पर शाह वलिय्युल्लाह साहिब द्वारा अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चलाये गए आज़ादी के संघर्ष को उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे शाह अब्दुल अज़ीज़ ने संभाला।
शाह अब्दुल अज़ीज़ के बाद उसकी बागडोर उनके नवासे शाह मुहम्मद इसहाक़ को विरासत में मिली। उसके बाद हाजी इमदादल्लाह ने फ़िरंगियों के विरुद्ध कमान संभाली। इस तरह आज़ादी के मतवाले मुसलमानों के संघर्ष का एक के बाद एक सिलसिला लम्बी अवधि तक चलता रहा।
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शाह मुहम्मद इसहाक़ की जीवन शैली और क्रन्तिकारी विचार:-
इनका पालन पोषण अपने नाना शाह अब्दुल अज़ीज़ की देख-रेख में हुआ इन्हें बचपन से ही अपने परनाना शाह वलिय्युल्लाह की इन्किलाबी गतिविधयों से बहुत लगाव था। उनके मन में भी अंग्रेज़ों से नफ़रत भरी हुई थी। सन् 1824 में शाह मुहम्मद इसहाक़ ने आज़ादी के क्रांतिकारी अभियान को अपने हाथ में लिया। शाह अब्दुल अज़ीज़ के बाद जब यह ज़िम्मेदारी शाह मुहम्मद इसहाक़ को मिली, उस समय अंग्रेज़ “फूट डालो राज करो की नीति अपनाए हुए थे। वे हिन्दुस्तानियों के मध्य आपसी लड़ाइयां करवा कर ख़ुद उसका फ़ायदा उठाया करते थे।
यदि कोई राजा या नवाब उनकी नीति का विरोध करता तो उसको पूरी तरह से बर्बाद करने की साज़िशें रची जाती थीं। देश की आम जनता के साथ भी फ़िरंगियों का बर्ताव ठीक नहीं था। ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्म परिर्वतन कराने के प्रयास ज़ोरों पर थ, हिन्दू देवी देवताओं और मुसलमानों के धार्मिक गुरुओं का मज़ाक़ उड़ाया जाता था। उस समय अकबर शाह-II (द्वितीय) दिल्ली के तख़्त पर थे।
अंग्रेजों ने उन्हें पूरी तरह अपने पंजों में जकड़ रखा था। वह नाम मात्र के बादशाह थे। असल प्रशासक तो ईस्ट इंडिया कम्पनी का गवर्नर जनरल था। वे दिल्ली शासन को कमज़ोर करते जा रहे थे। उस समय शाह मुहम्मद इसहाक़ को ग़ैर फ़ौजी बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया।
शाह मुहम्मद इसहाक़ और फ़ौजी बोर्ड:-
हालाँकि इनको फौजी बोर्ड तो नहीं मिला लेकिन जो भी कार्यभार दिया गया वो इससे कम भी नहीं था, फ़ौजी बोर्ड के अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी सय्यिद अहमद बरेलवी को दी गई थी। सय्यिद अहमद ने कई शहरों के दौरे करके सिपाही भर्ती किए। उन्हें फ़ौजी ट्रेनिंग भी दी गई।
वे निहत्थे मज़हबी लोग अपने ईमान की ताक़त, साहस और आपसी सलाह मशवरे से देश को आज़ाद कराने की योजनाएं बनाते एवं उन्हें कार्यान्वित भी करते रहते थे।
शाह मुहम्मद इसहाक़ इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि देश को गुलामी की जंजीरों से छुटकारा दिलाने का आधार आपसी एकता ही है। हिन्दू-मुस्लिम एकता के कारण ही वर्षो संघर्ष करने के बाद आज़ादी के चाहने वाले अपने अभियान में सफल हुए और देश ने फिरंगियों की गुलामी से आज़ादी पाई।
शाह मुहम्मद इसहाक़ की फिरंगियों के प्रति सोच:-
अंग्रेज़ों ने देखा कि सय्यिद अहमद ने जो कि सैनिक बोर्ड के अध्यक्ष हैं, फौजी सिपाहियों की ताक़त बना ली है। उधर अंग्रेज़ों को महाराजा रंजीत सिंह से भी इ बना रहता था। इस कारण उन्होंने सफलता पाने के लिए “फूट डालो और रा करो” के पुराने तरीके को अपनाया। उन्होंने झूठी अफवाहें फैला कर सिखों और मुसलमानों को आपस में लड़वा दिया। इस तरह दोनों को कमजोर कर स्वयं उसका लाभ उठा लिया।
शाह इसहाक़ के पास भी अपने देश के दुश्मन अंग्रेज़ से लड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। उन्होंने भी मुक़ाबले के लिए एक बोर्ड का गठन किया। बोर्ड अध्यक्ष मौलाना ममलूक अली को बनाया। मौलाना कुतबुद्दीन देहलवी, मौलान ज़फ़र हसैन कान्धलवी और मौलाना अब्दुल हई को बोर्ड का सदस्य नियुक्त किया गया। कुछ समय बाद बोर्ड का अध्यक्ष बदल कर हाजी इम्दादुल्लाह को बनार गया। देश के लिए इन सभी गतिविधियों को जारी रखते हुए शाह इसहाक़ फ़रीज एहज अदा करने के लिए रवाना हो गए।
वे लोग अपनी मज़हबी पाबन्दियों के परी अदायगी के साथ ही अपने मुल्क की ज़िम्मेदारियों को ईमानदारी और और के साथ अदा करते थे। उनके दिलों में जहां मज़हब की अज़मत (महानता) भरी थी, वहीं अपने मुल्क की मुहब्बत भी बसी हुई थी। यही कारण था कि उलमान दीन ने दोनों ही ज़िम्मेदारियों को एक साथ निभाया।
शाह मुहम्मद इसहाक़ के जीवन का अंतिम समय :-
इन्होने देश की आज़ादी के लिए तुर्की शासन से संबंध बनाए। उ तुर्की की मदद से फ़िरंगियों को हिन्दुस्तान से निकालने की कोशिशें आरंभ कर अंग्रेज़ उनकी सभी गतिविधियों से चौकन्ना रहते थे। उन्हें जैसे ही शाह इसहाक तुर्की से संपर्क व संबन्ध का पता चला तो ब्रिटिश शासन ने तुर्की शासन । मजबूर किया कि वह शाह साहिब को वहां से बाहर निकाल दे। इसके कारण साहिब को बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
वह देश को आज़ाद कार प्रयासों में देश के अन्दर मुहिम चलाते हुए विदेशी सहायता के लिए प्रयास रहे। ब्रिटिश शासन ने अपनी तानाशाही से उन्हें अपनी कोशिशों में कामयाब होने दिया। शाह इसहाक़ हिन्दस्तान को आज़ाद कराने के प्रयासों के कारण देश में ही चैन से बैठे और न ही विदेशों में आराम किया। जब उस आजा चाहने वाले को ब्रिटिश शासन के दबाव में तर्कों से निकाल दिया गया।
हिजाज़ (वर्तमान के सऊदी अरब का पश्चिमी क्षेत्र, जिस में मक्का व मदीना वाला है) शासन की अनुमति से वहां जाकर रहने लगे।
शाह मुहम्मद इसहाक़ एक बड़े क्रांतिकारी (इन्किलाबी) थे। उन्होंने अपने देश से लेकर विदेशों तक, अपनी जवानी से लेकर बुढ़ापे तक और अपने जीवन से लेकर आखिरी सांस तक देश की आज़ादी के लिए प्रयास किये। हिन्दुस्तान के वह वफ़ादार सपूत जीवन भर संघर्ष करते हुए सन् 1846 में हिजाज़ में ही इस दुनिया से चल बसे।
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FAQ
हाँ, यह एक क्रन्तिकारी थे
4 नवंबर 1783
20 जुलाई सन् 1846 में, अरब में इनकी मृत्यु हुयी थी