हिंदुस्तान के इतिहासकारों ने जिस तरह से इतिहास को लिखा है, ऐसा प्रतीत होता है, या तो उन्होंने इतिहास को एकतरफा लिख दिया या जितना भी लिखा है उतना पर्याप्त दिखाई नहीं देता, इसीलिए हम इतिहास के पन्नों में ऐसे महान विचारक, समाज सेवी और क्रांतिकारियों का वर्णन करते है जिनके बारे देश और दुनियां के लोगों को जानना चाहिए , आज हाजी इमदादुल्लाह मक्की के बारे में पढेंगे|
1790 इश्वी से लेकर 1947 के बीच ऐसे बहुत से क्रातिकारी हुए है जिन्होंने भारत देश के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया यदि शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी ,शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी, टीपू सुल्तान के बारे में जानना है तो उस पर क्लिक करें
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शाह मुहम्मद इसहाक़ का जन्म और बचपन:-
18वीं सदी में बहुत से क्रातिकारियों ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए अलग- अलग संगठन बनाये थे उसी कड़ी में शाह वलिय्युल्लाह साहिब के द्वारा जो संगठन बनाया गया था, उसका झंडा एक आलिमे- दीन की मृत्यु के बाद दूसरा आलिमे दीन अपने हाथ में लेता था। शाह मुहम्मद इसहाक़ आज़ादी के लिए जीवन भर संघर्ष करते हुए जब इस दुनिया से चल बसे, तो देश के ही अन्य सपूत हाजी इमदादुल्लाह को उस तहरीक की ज़िम्मेदारी सौंपी गई।
हाजी इमदादुल्लाह ने जिला सहारनपुर के क़स्बा नानोता में सन् 1818 में जन्म लिया था पिता का नाम मौलाना मुहम्मद अमीन उमरी (रह) था। उनका खानदानी सिलसिला हज़रत उमर फारूक़ से मिलता है इनके माता-पिता ने पहले उनका नाम इमदाद हुसैन रखा था। वे जब हज के लिए गए तो मौलाना इसहाक़ ने उनका नाम इमदादुल्लाह रख दिया।
फिरंगियों के खिलाफ़ जंग लड़ने के लिए शाह बलिब्युल्लाह द्वारा बनाई गई जमाअत के हाजी इमदादुल्लाह चौबे इमाम बनाये गये। यह आरंभ से ही क्रांतिकारी भावनाओं के थे।
सच्चाई तो यह है कि ब्रिटिश शासन द्वारा हिन्दस्तान पर कब्ज़ा जमा लेने के बाद भारतवासियों में उनके विरुद्ध नफ़रत का माहौल बन गया था। देशवासी सामूहिक और पृथक रूप से भी आज़ादी हासिल करने के लिए सोच विचार करते, योजनाएं बनाते और उन्हें कार्यान्वित करते रहते थे। हाजी इमदादुल्लाह भी देश के उन्ही सपूतों में से एक धार्मिक प्रवृत्ति (मज़हबी सोच) के इन्किलाबी सपूत थे।
शाह मुहम्मद इसहाक़ की प्रारंभिक शिक्षा:-
इनकी आरंभिक शिक्षा उनके वतन नानोता में हुई. आगे की पढ़ाई के लिए वह दिल्ली गए। वहां हजरत शैख मुहम्मद कलन्दर और शेख इलाही बख्श देहलवी की शागिदी हासिल की। उसके बाद हाजी साहिब ने सय्यिद नसरूद्दीन देहलवी के मदरसे में तालीम पाई।
उन्हें जहां मज़हबी तालीम दी गई, वहीं अपने वतन से मुहब्बत, वफादारी तथा देशवासियों से अच्छे रख-रखाव व बर्ताव की शिक्षा भी दी गई। ऐसी तालीम के कारण ही उनके अन्दर अपने देश पर कुर्बान होने का जज्बा भरा था। उस समय के अधिकांश उलमा-ए-दीन हिन्दुस्तान को फिरंगियों के पंजों से छुटकारा दिलाने की योजनाएं बनाते और उनके तहत संघर्ष किया करते थे। इसी सिलसिले में शाह इसहाक भी अपने देश में संघर्ष करते हुए तुर्की से मदद हासिल करने की ग़र्ज़ से मक्का शरीफ पहुंचे।
उधर जब हाजी इमदादुल्लाह को यह खबर मिली कि मौलाना सय्यिद अहमद शहीद, बालाकोट में लड़ते हुए शहीद हो गए तो वह तुरन्त दिल्ली के मौलाना अबुल कलाम क़ासिम शम्सी, तहरीके-आज़ादी में उलमाए किराम का हिस्सा, पटना आ गए। उस समय तक शाह इसहाक़ साहिब मक्का शरीफ़ पहुंच गए था इमदादुल्लाह भी मक्का रवाना हो गए। वहां पहुंच कर उन्होंने शाह इसहाक स से मुलाकात की। उलमा की बड़ी संख्या हाजी इमदादुल्लाह के साथ वतन आजादी के लिए जमा हो गई।
शाह मुहम्मद इसहाक़ ने मक्का से आन्दोलन को चलाया:-
हाजी साहिब ने शाह इसहाक़ के साथ एक वर्ष तक मक्का में रह कर देश आज़ाद कराने के आन्दोलन के संचालन के बारे में प्रशिक्षण पाया। उसके बाद शाह इसहाक के निर्देश पर 1846 में हिन्दुस्तान वापस लौट आए। यहां आका देश की आज़ादी के मिशन में लग गए।
अंग्रेजों को अपने मुल्क हिन्दुस्तान से भगाने के लिए उलमा-ए-दीन म फ़रीज़ा समझ कर संघर्ष के लिए तैयार रहा करते थे। इसी बीच सन् 1857 फिरंगियों की तानाशाही के ख़िलाफ़ देशवासियों की सहन शक्ति का बांध गया। आज़ादी की प्रथम लड़ाई की आग देश भर में सुलग उठी। आजादी मतवाले मंगल पांडे की कुर्बानी ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध पूरे देश में नफरत की हवा को तेज़ कर दिया।
उधर दिल्ली की जामा मस्जिद में उलमा-ए-दीन द्वारा मौलाना फले ख़ैराबादी के जिहाद के फ़तवे पर सामूहिक दस्तखतों ने भुस में चिंगारी का क किया। फिर क्या था, मुसलमान, अंग्रेज़ों को हिन्दुस्तान से उखाड़ फेंकने के सरों से कफ़न बांध कर कूद पड़े। उसके लिए हाजी इमदादुल्लाह को अमीर को नियुक्त किया गया।
मौलाना कासिम नानोतवी को सेनापति (सिपहसालार मौलाना रशीद अहमद गंगोही को काजी बनाया गया। मौलाना मुनीर नानोत्क और हाफ़िज़ ज़ामिन थानवी को अफ़सर नियुक्त किया गया।
वर्तमान यूपी के जिला मुज़फ़्फ़रनगर के क़स्बा थाना भवन में हा इमदादुल्लाह के नेतृत्व में उलमा जमा हो गए। जिहाद का एलान सुनते ही ह की संख्या में वहां अन्य मुजाहिदीन भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जिहाद करने के लि कूद पड़े। यहां तक कि थाना भवन और उस के आस पास के क्षेत्रों से अंग्रेजों मार भगाया गया। मुजाहिदों द्वारा उस क्षेत्र को अंग्रेज़ों से बेदखल करा लिया गया उलमा के उस लश्कर ने वहां अपनी आज़ाद हुकूमत क़ायम करने का एलान क दिया।
इधर फ़िरंगी इससे बौखला उठे। हालांकि वह आज़ाद हुकूमत ज़्यादा समय नहीं चल सकी। शामली के मैदान में हाजी इमदादुल्लाह की मातहती में अंग्रेज़ी से लड़ाई लड़ी
मौलाना अबुल कलाम कासमी शम्सी, तहरीके आज़ादी में उलमाए किराम के किस्से ओ हमेसा याद रखा जाता है इन्होने अंग्रेजों का डट कर मुकाबला किया और उसमें कई मुजाहिदीन भी देश की आजादी के लिए लड़ते हुए शहीद हुए।
शाह मुहम्मद इसहाक़ के बारे में मेवाराम गुप्त सितोरिया अपनी किताब में लिखा:-
लेखक एवं स्वतन्त्रता सेनानी श्री मेवाराम गुप्त सितोरिया ने अपनी पुस्तक “हिन्दुस्तान की जंगे आज़ादी के मुस्लिम मुजाहिदीन में उल्लेख किया है कि अपनी पुरानी नीति के अनुसार हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालो और राज करो की राजनीति कर रहे थे। उस समय बहादुरशाह ज़फ़र को नाम मात्र का बादशाह बना रखा था, पकड़ फ़िरंगी हाथों में ही थी।
ऐसे समय में हाजी इमदादुल्लाह ने देशवासियों के बीच एकता के प्रयास किए। इन्होने न केवल खुद हिम्मत से काम लिया, बल्कि देशवासियों की भी हिम्मत बंधाई। अपनी पार्टी को अंग्रेज़ों के मुक़ाबले के लिए मजबूत किया। गुलामी की अन्धेरियों में मुजाहिदीन को आजादी की रोशनी की चमक दिखाई।
हाजी इमदादुल्लाह इन्किलाबी होने के साथ ही एक बड़े सूफ़ी भी थे। वह एक सच्चे वतन प्रेमी थे इसलिए उनकी जुबान से निकले हुए बोल लोगों को बहुत प्रभावित करने वाले हुआ करते थे। यही कारण था कि 1857 में आज़ादी की पहली लड़ाई शुरू होते ही हजारों की संख्या में मुस्लिम मुजाहिदीन उनके नेतृत्व में देश पर अपनी जानें कुर्बान करने के लिए जमा हो गए थे।
सूफ़ी बुजुर्गों को न तो जीने की ज्यादा तमन्ना होती है और न ही वे मरने से डरते हैं, हाजी इमदादुल्लाह ने शामली की जंग में फिरंगियों की हिम्मतों को तोड़ दिया और उनके हौसलों को पस्त कर दिया था। उनके करीबी साथियों में मौलाना अब्दुल गनी, मौलाना मुहम्मद याकूब, मौलाना मुहम्मद कासिम और मौलाना रशीद अहमद थे। वे सभी हर मौके पर उनके साथ रहा करते थे।
शाह मुहम्मद इसहाक़ की जिन्दगी के आखिरी लम्हे:-
1857 के स्वतन्त्रता संघर्ष में अंग्रेज़ों को देश भर में बहुत नुकसान उठाना पड़ा। इसी कारण लड़ाई की नाकामी के बाद फ़िरंगियों ने देशवासियों पर जुल्म व सितम ढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुसलमानों की गिनती फिरंगियों के खास दुश्मनों में होती थी। विशेष कर उलमा-ए-दीन को वे अपना बड़ा दुश्मन मानते थे।
अंग्रेज़ों ने केवल बग़ावत के शक में ही हज़ारों शहरियों को मौत का मज़ा चखा दिया। उलमा पर तो अंग्रेज़ों के जुल्म और दरिन्दगी का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि 1857 की जंगे आजादी की प्रथम लड़ाई में लगभग बाईस हज़ार उलमा को शहीद किया गया था।
1857 के स्वतन्त्रता संघर्ष के बाद फिरंगियों के जुल्म और ज्यादतियों से लड़ने के लिए हाजी इलाह भी लम्बे समय तक गांव खेड़ों में अपना समय रहे हालांकि पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने के लिए पीछा करती रही, परन्तु ने में नाकाम रही। वह पुलिस की पकड़ से बचते, तकलीफ उठाते हुए पहुंच गए। वहा पहुँच कर भी वह हिन्दुस्तान के मुजाहिदीन का नेतृत्व किया यहां तक कि 1899 में मक्के में ही उन्होंने अपनी जिन्दगी का आखिरी पूरा किया।
हाजी मल्लाह जब तक जिन्दा रहे अपने देश को आजाद कराने के लिये ईमानदारी से संघर्ष करते रहे। एक सूफी आलिम-ए-दीन का अपने वतन आजादी के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहना उनके वतन प्रेमी और स्व सेनानी होने की अलग ही पहचान है|
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इनका जन्म जिला सहारनपुर के क़स्बा नानोता में सन् 1818 में हुआ था इनके वालिद(पिता) का नाम मौलाना मुहम्मद अमीन उमरी (रह) था।