जब- जब भारत के इतिहास के पन्नों को उठाकर देखेंगे, तब- तब पता चलेगा, इस भारत देश की आजादी ऐसे ही नहीं मिली है, इसको लेने के लिए हमारे क्रांतिकारियों ने हजारों कुर्बानियां दी है,आज ऐसे ही महान सपूत बहादुरशाह ज़फ़र के बारे में पढ़ेगे
ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख़ते लन्दन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की
(ग़ाज़ियों सैनिकों, तखत – राजसिंहासन, तेग़ तलवार)
यह एक सायरी ही नहीं बल्कि एक क्रांतिकारी के अन्दर की आवाज है जो कह रही है, हम अपनी आजादी को हरगिज लेकर रहेंगे , क्रांति की आवाज लन्दन की असेम्बली तक गूंजेगी , यदि आप हमारे महान क्रांतिकारी शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी ,शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी, टीपू सुल्तान , हाजी इमदादुल्लाह मक्की के बारे में पढ़ना चाहते हो यहाँ क्लिक करें
बहादुरशाह ज़फ़र का जन्म और दिल्ली:-
दिल्ली के मुग़लिया लाल क़िले के मज़बूत दरो-दीवार और शाही ताज व तख़्त को यह मालूम भी न था कि 24 अक्टूबर 1775 को उसकी गोद में पैदा होने वाले मुग़ल शाहज़ादे सिराजुद्दीन बहादुर शाह ज़फर को अपने मुल्क हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए ऐसी कुर्बानियां देनी पड़ेंगी, जिन्हें पढ़ने और सुनने वालों के दिल दहल जायेंगे, सीनों में मचलती हुई सांसें धीमी पड़ जायेंगी, ख़ुश्क आंखों से आंसुओं की लड़ियां जारी हो जायेंगी।
बहादुरशाह ज़फ़र, दिल्ली के बादशाह अकबर शाह-II (द्वितीय) के बेटे और शाह आलम के पोते थे। हिन्दुस्तान की राज गद्दी पर बैठने के बाद उन्होंने “अबू ज़फ़र मुहम्मद सिराजुद्दीन बहादुर शाह ग़ाज़ी” का लक़ब अपनाया। उनका शायराना तख़ल्लुस ‘ज़फ़र था वह एक हुनरमन्द, लेखक, शायर, तीर अन्दाज़, बन्दूक़-बाज़, तलवार चलाने तथा घुड़सवारी के माहिर थे।
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वह एक जोशीले शायर भी थे। उनके दौर के महान शायर इब्राहीम ज़ौक़ और असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब उनके उस्ताद रहे। बहादुरशाह ज़फ़र 30 सितम्बर 1837 को जब शहंशाहे. हिन्दुस्तान की हैसियत से तख़्ते-शाही पर बैठे, उस समय ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा अंग्रेज़ हिन्दुस्तान में अपने पैर फैला रहे थे।
बहादुरशाह ज़फ़र और अंग्रेजी हुकूमत:-
अंग्रेज़ को उस समय मुग़ल शहंशाह का मान-सम्मान करना, उनके दरबार में हाज़िरी के वक़्त उन्हें नज़राने पेश करना तथा करंसी पर शहंशाह का नाम रखना उनकी मजबूरी बना हुआ था। समय गुज़रता रहा पुरानी बातें इतिहास का हिस्सा बनती रहीं, नई-नई घटनाएं सामने आती रहीं, “ईस्ट इंडिया कम्पनी’ सक्षम होती गई, अंग्रेज़ चालबाजियों और चालाकियों से हिन्दुस्तान पर अपनी पकड़ मज़बूत बनाते गए, धीरे-धीरे उनकी पकड़ इतनी मज़बूत हो गई कि उनके द्वारा मुग़ल सम्राट को दिये जाने वाले सम्मान बंद कर दिये गए। सम्राट को पेश किए जाने वाले नज़राने भी कम कर दिये गए।
यहां तक कि कम्पनी के सिक्कों पर से भी जो कि मुग़ल शहंशाह के नाम से जारी किये जाते थे. उनका नाम हटा दिया गया। अंग्रेज़ों ने शहंशाह के वे सभी सम्मान, जो कि परम्परागत पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे थे, बंद कर दिये। नौबत यहां तक आ पहुंची कि शहंशाह की मृत्यु के उपरांत उसके उत्तराधिकारी (वारिस) का चयन परम्परानुसार न करके गवर्नर जनरल की इजाज़त से किए जाने की पाबंदी लगा दी गई। 1844 में लार्ड हार्डिंग ने रेज़ीडेंट दिल्ली को लिखा कि अगर बूढ़ा बादशाह मर जाये तो उसका वारिस बग़ैर विशेष अनुमति के न बनाया जाये।
ये तमाम बातें बहादुर शाह ज़फ़र को चौंकाने वाली तथा उसके मान-सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली थीं। शहंशाह ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि अंग्रेज़, मुग़ल सरकार को कठपुतली बनाकर सम्पूर्ण भारत पर मन माने ढंग से शासन करना चाहते हैं। अंग्रेज़ ने बहादुरशाह ज़फ़र के शासन को ख़त्म करके पूरे हिन्दुस्तान पर अपना क़ब्ज़ा जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
शहंशाह के सोलह बेटे और इक्कीस बेटियां थीं। उनके बड़े शहज़ादे जवांबख्त के दिल में भी शहंशाह की तरह अंग्रेज़ों से नफ़रत भरी हुई थी और वह भी नहीं चाहता था कि हिन्दुस्तान पर अंग्रेज़ों का राज रहे। बहादुर शाह ज़फ़र और उसकी सन्तान की गतिविधियों पर अंग्रेज़ नज़र रखे हुए बहादुरशाह ज़फ़र का छोटा बेटा मिर्ज़ा करेश (कोयाश) अलग ही स्वभाव का था। उसे न तो राज-पाट की चिन्ता थी और न ही उसमें कुछ करने की क्षमता। अंग्रेज़ को इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना था। गवर्नर-जनरल डलहौज़ी ने मिर्ज़ा कोयाश से सशर्त ख़ुफ़िया समझौता कर उसे बहादुर शाह ज़फ़र के राज-पाट का वारिस बना दिया। मिर्ज़ा कोयाश से समझोते की शर्तों में यह भी उल्लेख किया गया कि वह दिल्ली के लाल किले को खाली करके कुतुब (महरौली)में जा कर रहेगा। उसे रूपये पन्द्रह हज़ार पेंशन दिये जाने पर भी राजी कर लिया गया।
बहादुरशाह ज़फ़र और ईस्टइण्डिया कंपनी:-
इनको ईस्टइण्डिया कम्पनी सरकार एक लाख रुपये माहवार देती थी। वह उसमें से अपने शहजादों को ख़र्चे के लिए और अपने नौकरों को वेतन देता था, जिससे उनका गुज़ारा चलता था। एक समय वह भी आया कि बहादुरशाह को दी जाने वाली वह राशि भी बन्द कर दी गई। इस कारण शाही परिवार और उनके नौकरों का गुज़ारा भी मुश्किल हो गया।
बहादुरशाह की इजाज़त के बगैर उसके बड़े बेटे जवांबख्त के बजाय निकम्मे छोटे बेटे को राज गद्दी का वारिस बना देना परम्परा के विरुद्ध था। सच तो यह है कि बड़ा बेटा जवांबख्त जो कि बाप की तरह आज़ादी का मतवाला तथा अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ था, उसे राज-पाट से दर रखने की यह एक अंग्रेज़ी साज़िश थी।
बहादुरशाह ज़फ़र अंग्रेज़ों से नफरत करते थे और यहाँ तककि उन्हें देश से बाहर निकालने की कोशिश में था। क्योंकि वह बूढ़ा हो गया था तथा उसके पास शासन के अधिकार भी नहीं रह गए थे। इस कारण वह इस बात को अच्छी तरह समझता था कि ताक़तवर और चालबाज़ अंग्रेज़ों को अकेले ही देश के बाहर नहीं निकाला जा सकता। उसने देश की सभी रियासतों के राजाओं नवाबों से आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेकर फिरंगियों को देश से मार भगाने की अपील की।
इसी के साथ अंग्रेज़ों से असंतुष्टों महारानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नाना साहिब पेशवा आदि ने भी बहादुरशाह ज़फ़र के साथ लड़ाई में जम कर हिस्सा लिया। बहादुरशाह ने सभी स्तर के लोगों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल करने के लिए जागरूक किया। उस समय ज़फ़र ही हिन्दुस्तान का नाम मात्र का शहंशाह रह गया था।
अंग्रेज़ों को उसका राजपाट पूरी तरह से छीनना था। इस कारण अंग्रेज़ों का उस से संघर्ष होना स्वभाविक था। इस प्रकार स्वतंत्रता की प्रथम लड़ाई बहादुरशाह ज़फ़र के नेतृत्व में लड़ी गई। बहादुरशाह की ओर से 31 मई 1857 को अंग्रेज़ों पर एक साथ हमला करने की योजना तैयार की गई थी।
यहां यह उल्लेखनीय है कि हिन्दुस्तान के जिन वीर जवानों के दिलों में अपने देश पर मर मिटने की लालसा थी, उनका जोश और जज़्बा स्वंय को बलि चढ़ाने के लिए किसी नियत तिथि का इन्तिज़ार करने नहीं दे रहा था। मंगल पांडे आज़ादी के उन्ही मतवालों में से एक जवान था।
इतिहास के अनलिखित पन्ने :-
मंगल पांडे गाय और सुअर की चर्बी वाले कारतूसों की अंग्रेज़ी चाल से उत्तेजित हो गया। उसने आन्दोलन की नियत तिथि
का इन्तिज़ार किए बगैर अपने मनचले साथियों के साथ कुछ अग्रज सैनिक अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। स्वतंत्रता सेनानी मंगल पडितो अपने साहसी कार्य के कारण अंग्रेज़ के फांसी के फन्दे पर झूल कर अमर शहीद हो गया, परन्तु नियत तिथि से पहले ही स्वतंत्रता की लड़ाई आरम्भ कर गया। जब यह बात अन्य हिन्दुस्तानी सिपाहियों को मालूम हुई कि अंग्रेज़ों द्वारा ऐसे कारतूस बाट गए हैं जिनमें गाय और सुअर की चर्बी लगी हुई है,
उन कारतूसों को मुंह से खोलना पड़ता है तो अन्य हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने भी उसका कड़ा विरोध किया। ता के नशे में मस्त अंग्रेज अधिकारियों ने उन कारतूसों को ही उपयोग में लाने के लिए मजबूर किया। यह विवाद बढ़ा और हिन्दुस्तानी सिपाही किसी भी हालत में हुक्म को मानने को तैयार नहीं हुए। अंग्रेज़ों ने ऐसे कुछ हिन्दुस्तानी सिपाहियों को 10-10 वर्षों की सज़ा सुना कर क़ैद कर दिया।
अंग्रेज़ों के इस दमन चक्र की गूंज सारे विद्रोही सिपाहियों में जंगल की आग की तरह फैल गई। वैसे भी अंग्रेज़ों के अत्याचारों से भारतवासी तंग आ चुके व अतः 10 मई 1857 को इतवार के दिन जब कि अधिकांश अंग्रेज़ अपनी इबा के लिए गिरजा घरों में गए हुए थे, मेरठ के फ़ौजी, बैरकों से बाहर निकल आये उन्होंने उन जेलखानों के ताले तोड़ दिए जिन में हिन्दुस्तानी सिपाहियों को सजा क तौर पर क़ैद किया गया था।
बैरकों में आग लगा दी गई तथा परेशान हिन्द मस्लिय विद्रोहियों ने फ़िरंगियों को सरे-आम क़त्ल करना शुरू कर दिया। विद्रोहियों क दल मेरठ से दिल्ली की ओर कूच कर गया। मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र और उसकी बेगम ज़ीनत महल ने विद्रोहियों की कमान संभाली। बहादर शाह ज बूढ़ा हो गया था, लेकिन विद्रोहियों के निवेदन करने और बेगम जीनत महल के हिम्मत बढ़ाने पर अपनी वृद्धावस्था के बावजूद उसके दिल में आज़ादी का नय जोश लहरें लेने लगा।
उसने क्रांतिकारियों को नेतृत्व करना मंजूर कर लिया हालांकि अंग्रेज़ों ने उसके अधिकारों पर क़ब्ज़ा कर रखा था। वह केवल एक अपदस्थ शहंशाह की तरह ही बन कर रह गया था। क्रांति के समय बहादुरशा ज़फ़र के हाथों में दोबारा देश की बागडोर आ गई। फिर क्या था, देशवासी तो अवसर के लिए तैयार बेठे थे। वे अपनी जानों और नौकरियों की परवाह किए जा आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। देशी सिपाहियों की फ़ौज ने भी जो कि आ अफ़सरों की कमान में थी, बगावत कर दी तथा अंग्रेज़ी अफ़सरों की एक न मान उन्होंने अंग्रेज़ों के बंगले जलाना, उन्हें क़त्ल करना और सरकारी खजानों की पाट शुरू कर दी। उस समय देश में बग़ावत का ज्वालामुखी फट चुका था।
उसने क्रांतिकारियों को नेतृत्व करना मंजूर कर लिया हालांकि अंग्रेज़ों ने उसके अधिकारों पर क़ब्ज़ा कर रखा था। वह केवल एक अपदस्थ शहंशाह की तरह ही बन कर रह गया था। क्रांति के समय बहादुरशा ज़फ़र के हाथों में दोबारा देश की बागडोर आ गई। फिर क्या था, देशवासी तो अवसर के लिए तैयार बेठे थे। वे अपनी जानों और नौकरियों की परवाह किए जा आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। देशी सिपाहियों की फ़ौज ने भी जो कि आ अफ़सरों की कमान में थी, बगावत कर दी तथा अंग्रेज़ी अफ़सरों की एक न मान उन्होंने अंग्रेज़ों के बंगले जलाना, उन्हें क़त्ल करना और सरकारी खजानों की पाट शुरू कर दी। उस समय देश में बग़ावत का ज्वालामुखी फट चुका था।
क्रांतिकारियों की ज्वाला अंग्रेजी शासन के विरुद्ध:-
अंग्रेजी अपनी जानें बचाने के लिए भागते फिर रहे थे। ऐसे समय में बहादुरशाह ज़फ़र ने पूरे भरोसे के साथ देशवासियों की हिम बढ़ाते हुए कहा कि-“फ़िरंगियों को देश से बाहर निकालने के लिए सबको एक होना पड़ेगा हमारे दिलों में अंग्रेजों की गुलामी के विरुद्ध जो आज़ादी का ज्वालामुखी भड़क चुका है वह उस वक्त तक बुझना नहीं चाहिए जब तक कि अंग्रेज़ इस मुल्क से बाहर न चले जायें।”
इसी प्रकार बहादरशाह ज़फ़र ने देशवासियों को जागरूक करने में आज़ादी का मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र
समय-समय पर आह्वान किया। उन्होंने अपने आह्वान में देशवासियों से कहा- हिन्दुस्तान के हिन्दुओं और मुसलमानो उठो। जाग जाओ। ख़ुदा ने जितनी बरकतें इन्सान को दी हैं, उनमें सब से क़ीमती आज़ादी है। जिस ज़ालिम ताक़त अंग्रेज़ ने धोखा देकर, गदर व ग़द्दारी करके हमसे यह बरकत छीन ली है, क्या हमेशा के लिए हमें उस से महरूम रख सकेगी? क्या ख़ुदा की मर्जी के खिलाफ़ ज़ुल्म व सितम का यह सिलसिला हमेशा जारी रह सकता है? नहीं! हरगिज़ नहीं।
फ़िरंगियों ने इतने जुल्म किए हैं कि उनके गुनाहों का पैमाना लबरेज़ हो भर चुका है। यहां तक कि हमारे पाक मज़हब व धर्म को ख़राब करने का नापाक इरादा भी अंग्रेज़ के दिल में पैदा हो गया है।
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बहादुर शाह जफर का युवाओं को सन्देश :-
क्या अब भी तुम ख़ामोश बैठे रहोगे? ख़ुदा यह हरगिज़ नहीं चाहता कि तुम ख़ामोश रहो क्योंकि उसने हिन्दुओं और मुसलमानों के दिलों में अंग्रेज़ को अपने मुल्क से बाहर निकाल देने की हिम्मत पैदा कर दी है।
ख़ुदा की कृपा और तुम्हारी हिम्मत व बहादुरी से हमारे मुल्क हिदुस्तान में अंग्रेज़ों का नाम व निशान बाक़ी नहीं रह पायेगा। हमारी फ़ौज में छोटे और बड़े का भेद भाव नहीं है। सब के साथ एक समान बर्ताव होगा। इस जंग में दीन व मज़हब और धर्म के लिए जो भी लड़ेगा वह बराबर के सवाब (पुण्य) का हिस्सेदार होगा।
बहादुरशाह अपनी वृद्धावस्था के बावजूद हिन्दुस्तान से अंग्रेज़ों को मार भगाने के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को तैयार था। वह आज़ादी का ऐसा मतवाला था कि उसने अपनी जोशीली तक़रीरों और संदेशों से आन्दोलनकारियों की हिम्मत और हौसलों को बुलन्द कर रखा था। वह अपने परिवार समेत देश की आबरू और इज़्ज़त के लिए कुर्बानियां देते हुए देशवासियों को भी इस की प्रेरणा देता रहा। बहादुर शाह ने अपने बड़े बेटे जवांबख़्त में मुल्क के लिए देश प्रेम का जोश और आज़ादी के जज़्बे का अन्दाज़ा लगा कर छोटे बेटे कोयाश की जगह उसे ही आज़ादी के संघर्ष की कमान सौंपी।
अपने बड़े बेटे का हौसला बढ़ाने के लिए कहा कि- “बहादुर मुझे तुम्हारी सलाहियत और देश प्रेम पर भरोसा है। मुझे ख़ुदा के हवाले करके तुम मैदाने जंग में जाओ और देश के लिए कुछ करके दिखाओ।”
शहंशाह ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इस आन्दोलन में जनता के साथ ही रियासतों के नवाबों और राजाओं को बार-बार आह्वान करके उन्हें हिस्सा लेने के लिए उत्साहित किया। समय समय पर उनके एलान और बयान उनके देश प्रेम और आज़ादी के मतवाले होने की गवाही देते हैं। उन्हें अपने राज-पाट और सम्राट बने रहने की इतनी चिन्ता नहीं थी, जितनी कि एक देश प्रेमी, और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बने रहने का शौक़ था। उन्होंने आन्दोलन के दौरान एलान किया कि ऐ हिन्दुस्तान के बेटो अगर हम इरादा कर लें तो बात की बात में दुश्मन [अंग्रेज़] का ख़ातिमा कर सकते हैं। हम दश्मन को तबाह कर डालेंगे और अपने मज़हब व धर्म तथा देश को, जो हमें अपनी जानों से भी ज़्यादा प्यारे हैं, खतरे से बचा लेंगे।
उधर अंग्रेज़ भी क्रांतिकारियों के हौसले पस्त करने के लिए नए नए षड्यंत्र रचने में लगे हुए थे। कभी फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई जाती, कभी हिन्दुओं को मुसलमानों के ख़िलाफ़ भड़काया गया कि मुसलमान मुग़ल शासन की जड़ें दोबारा मज़बूत करना चाहते हैं। इसका ढिढोरा पीट-पीट कर हिन्दुओं को आज़ादी की लड़ाई में मुसलमानों का साथ न देने के लिए बहकाया गया, तो कभी मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध करने के लिए समझाया गया कि हिन्दू इस देश में हिन्दू राज्य की स्थापना चाहते हैं। मगर हिन्दू-मुस्लिम आज़ादी के मतवालों के आगे अंग्रेज़ों की यह चाल भी नहीं चल सकी।
बहादुरशाह ज़फ़र क्योंकि आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे, इसलिए वह हालात का जायज़ा लेते हुए स्वतंत्रता सेनानियों को हिम्मत देने और आज़ादी के आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेने के लिए बयान जारी करते रहते थे। अंग्रेज़ों की चाल फूट डालो और राज करो को बेअसर करने के लिए शहंशाह ने हिन्दुस्तान की रियासतों के राजाओं व नवाबों के नाम पत्र जारी किया।
चार्ल्स मटकाफ़ ने बहादुर जफर शाह के बारे में लिखा :-
एक ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासक, चार्ल्स मटकाफ़ (1837-1892) पुस्तक ‘टु नैटिव नरेटिव्ज़ ऑफ़ दि म्यूटिनी इन डेल्ही (दिल्ली का ग़दर-द मूल निवासियों की जुबानी) के हवाले से उल्लेख है
कि बहादुरशाह ज़फ़र जयपुर, जोधपुर और अलवर आदि रियासतों को पत्र भेजे कि- “मेरी यह दिली तनी है कि जिस तरह से और जिस कीमत पर भी हो सके, फिरंगियों को हिन्दुस्तान से बाहर निकाल दिया जाए। मेरी यह दिली ख्वाहिश है कि पूरा हिन्दुस्तान आज़ाद हो आये। अंग्रेज़ों को निकाल दिए जाने के बाद अपने जाती प्रदे के लिए हिन्दुस्तान पर हुकूमत करने की मुझे ज़रा-सी भी तमन्ना नहीं है। अगर आप सब देसी राजा-नवाब दुश्मन को निकालने की गरज से अपनी तलवारें खीचने के लिए तैयार हों, तो मैं इस बात के लिए राज़ी हूँ कि अपने तमाम शाही अधिकार और हुकूक्क देसी राजाओं नवाबों के किसी ऐसे गिरोह के हाथों में सौंप दूँ, जिसे उस काम के लिए चुन लिया जाये।
इस देश की आज़ादी, ऐसे दरिया दिल और जोशीले सपूतों की कुर्बानियों का नतीजा है, जिन के दिलों में शाही ताज व तख़्त और शाही ठाठ-बाट से बढ़ कर देश प्रेम और देश को आज़ाद कराने की भावनाएं भरी हुई थीं। बहादुरशाह के बयान और एलान क्रांतिकारियों के लिए प्रेरक का काम करते थे। आज़ादी के दीवानों के आगे जब अंग्रेज़ों की साज़िशें नाकाम होती नज़र आई तो उन्होंने इस आन्दोलन को और अधिक बलपूर्वक कुचलना आरम्भ कर दिया। आज़ादी के हजारों मतवाले अंग्रेज़ी मशीन गन से मौत के घाट उतार दिये गए। साथ ही फूट डालो राज करो की नीति को भी जारी रखा गया। जब अंग्रेज़ों को यह मालूम हुआ कि बहादुरशाह ज़फ़र ने आज़ादी के आन्दोलन में भाग लेने के लिए राजाओं व नवाबों को पत्र लिखे हैं, तो अंग्रेज़ इस कारण बहादुर शाह के और भी दुश्मन बन गये। उधर विद्रोहियों का आन्दोलन दिन प्रति दिन ज़ोर पकड़ता जा रहा था।
अंग्रेज़ ने सम्पूर्ण स्थितियों का दोबारा जायज़ा लिया। बहादुरशाह और उसके बड़े शाहजादे को क़ाबू में लेने के लिए एक नया षड्यंत्र रचा गया। उसने बहादरशाह के समधी मिर्ज़ा इलाही बख़्श को सम्राट बनाने का लालच देकर अपने साथ मिला लिया। इलाही बख़्श ने राज गद्दी एव धन के लालच में आकर अपनी वफ़ादारी का रुख बदल दिया। अब वह अंग्रेज़ के लिए जासूसी करने लगा। घर के ही व्यक्ति की बेवफ़ाई से बहादुरशाह, उसकी सन्तान और क्रांति के आन्दोलन को भी नुक़सान पहुँचा।
क्रांतिकारियों के संघर्ष के कारण आन्दोलन के दौरान एक समय वह भी आया जब कि दिल्ली से दुश्मनों के पैर उखड़ने लगे। उन्हीं दिनों जनरल निकल्सन गोरखों आदि की मिली जुली सेना के साथ मदद के लिए पंजाब से दिल्ली पहुंच गया। अंग्रेज़ फ़ौज को सहायता मिलते ही पांसा पलट गया। विद्रोहियों पर एकदम दबाव बढ़ गया।
उधर क्रांतिकारियों ने भी फ़िरंगियों को देश से बाहर निकालने के लिए कमर कस रखी थी। दोनों ओर से हमले और जवाबी हमले जारी थे। अंग्रेज सेना चारों ओर से दिल्ली का घेराव करने वाले आन्दोलनकारियों के बीच फूट डालने की नई नई साज़िश रच रही थी। माह अगस्त में दिल्ली में नीमच और बरेली के इन्किलाबियों की फ़ौजें संघर्ष कर रही थीं। 25 अगस्त को जनरल जवाबात रे आर-पार की लड़ाई के उद्देश्य से अंग्रेज़ सेना पर शक्तिशाली हमला कर दिया। स समय तैनात दोनों देशी फ़ौजों में किसी बात पर आपसी मत भेद और टकराव हो गया। बात इतनी बढ़ी कि नीमच की सेना ने, जनरल बख़्त का आदेश मानने से इनकार कर दिया। वह उस स्थान पर नहीं ठहरी जहां के लिए जनरल ने आदेश दिए थे।
- विशेष राज्य का दर्जा (विशेष श्रेणी / एससीएस) की विशेषताएं क्या है?
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- लोकसभा उपसभापति/उपाध्यक्ष की भूमिका और इतिहास का वर्णन कीजिये
- भारतीय इतिहास में किलों की प्रथम खोज कब हुयी थी पूरी जानकरी देखिये |
जासूसों द्वारा इस आपसी फूट की सूचना अंग्रेज़ को पहुंचा दी गई। फूट क फायदा उठाने के लिए जनरल निकल्सन ने नीमच की फ़ौज पर जोरदार हमला क दिया। उस हमले के कारण अलग-थलग पड़ी नीमच की सेना के सभी सिपाही मारे गए। अब तो दुश्मन की फ़ौज ने पूरी ताक़त से हमले आरंभ कर दिए। फिरंगियों द्वारा ज़ोरदार गोलाबारी शुरू कर दी गई। यहां तक कि 14 सितम्बर को अंग्रेज दिल्ली में दाख़िल हो गए।
उन्होंने अन्दर घुसते ही विद्रोहियों का क़त्ले-आम, लर मार शुरू कर दी। आपसी फूट के कारण अंग्रेज़ फ़ौज सफलता के क़रीब पहुँच गई।
अंग्रेज़ों के ज़ुल्म और ज़्यादतियों के कारण आन्दोलनकारी कमज़ोर पड़ने लगे। उनका बहुत जानी नुकसान भी हो चुका था। उधर शाही महल की खुफिया जानकारी हासिल करने के लिए अंग्रेज़ ने इलाही बख़्श को अपने साथ मिला रखा। था। वह लालच में मेजर हडसन (1821-1858) के लिए जासूसी करता रहा। हडसन प्राप्त ख़ुफ़िया सूचनाओं के आधार पर अपना दमन चक्र चलाता रहा। हालात की गम्भीरता और सम्राट की वृद्धावस्था को देखते हुए बख़्त खां ने बहादुरशाह को दिल्ली के बाहर किसी सुरक्षित जगह चले जाने की सलाह दी। अंग्रेज़ी जासूस, इलाही बख़्श को जब यह पता चला तो उसने शहंशाह के पास हाज़िर होकर हमदर्दी और चापलूसी की बातें कीं। साथ ही बहादुरशाह को दिल्ली न छोड़ने की सलाह भी दी। उसने आन्दोलनकारियों का साथ न देने तथा दिल्ली छोड़ने के बजाये हुमायूँ के मक़बरे पर चले जाने के लिए समझाया। बहरदुरशाह इलाही बख़्श की धोखे की बातों में आ गया।
वैसे बहादुरशाह ज़फ़र अपने पुरखों के उस शानदार लाल क़िले को जिसने शाहजहां एवं औरंगज़ेब ने शाही तख्त पर बैठ कर पूरे हिन्दुस्तान पर हुक्मरानी की,
बहादुर जफ़र साह के जिन्दगी के आखिरी पल और रंगून जेल :-
जिस किले से तैमूरिया खानदान की मसलों के म्यूनी रिश्ते जुड़े हुए थे, शान व शोक और संबंधों वाले उस किले को बहादुरशाह छोड़ना तो नहीं चाहता था, परन्तु हालात से मजबूर भूवे शहंशाह ने सलाह के अनुसार अपना स्थान तबदील करना उचित समझा। वह अपनी बेगम जीनत महल और एक बेटे को अपने साथ लेकर हुमायूं के मकबरे पर चला गया। दूधर जैसे ही यह सूचना इलाही बख्श को मिली, उसने शीघ्र ही इस की खबर मेजर हडसन को दे दी। हडसन अंग्रेजी सेना के साथ मकबरे पर ही पहुंच गया। उसने बहादुरशाह, बेगम जीनत महल और शाहजादे को गिरफ्तार कर लिया।
अब अंग्रेज़ों का दोबारा दिल्ली पर कब्जा हो गया। दोबारा सत्ता में आने के बाद अंग्रेज ने मुगल सम्राट को अपनी पूरी ताकत से जुल्म व सितम का निशाना बनाया। गिरफ्तारी के बाद उस पर मुकदमा चला कर उसे उम्र कैद की सज़ा सुना कर रंगून जेल भेज दिया गया।
पीढ़ी दर पीढ़ी शाही ताज व तख्त का मालिक शहंशाह हिन्दुस्तान, अपने वतन की आजादी की लड़ाई लड़ते हुए अपने ही देश में विदेशी हाथों गिरफ़्तार कर लिया गया। ऐकड़ों क्षेत्र में फैले हुए मुगलिया लाल किले की शान व शौकत की जिन्दगी से निकाल कर उसे रंगून जेल की एक छोटी सी काल कोठरी में अकेला ले जाकर डाल दिया गया।
वहां उस से किसी को भी मिलने की अनुमति नहीं दी गई। यहां तक कि उसके अज़ीज़ रिश्तेदारों को भी जाकर उससे मिलने की इजाज़त नहीं थी। शाही महल में नाज़ व नखरों के साथ कई तरह के उच्च स्वादिष्ट पकवान, खानेवाले शहंशाह को जेल की काल कोठरी में बहुत ही मामूली स्तर का खाना दिया जाता था। उसे पानी पीने के लिए एक गिलास भी नसीब नहीं था। वह बग़ैर हवा की अंधेरी कोठरी में भूखा-प्यासा पड़ा रहता था। इलाही बख़्श की बेवफ़ाई ने न केवल शहंशाह और उसके शाहज़ादों को जीते जी बलि चढ़वा दिया, बल्कि देश प्रेमियों के दिलों को ऐसा न भुलाए जानेवाला दुख दिया, जिसकी याद सैकड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी ज़ख्मों को ताज़ा और आँखों को नम कर देती है।
उधर शहंशाह की गिरफ़्तारी की ख़बर जैसे ही उसके दूसरे बेटों को मिली, वह गुस्से में भड़क उठे।
उस अपमान का बदला लेने के लिए बहादुरशाह दो बेटे मिर्ज़ा मुगल, व मिर्ज़ा खिच और एक पोता अबूबक, हुमायूं के मकबरे पर पहुँच गए। वे तीनों अपने गुस्से पर क़ाबू पाते हुए अपने बाप को क़ैद खाने से निकालने की योजना बना थे, इसी बीच इलाही बख्श ने दोबारा जासूसी कर इसकी सूचना भी मेजर हडसन को दे दी। उसको तो हिन्दुस्तानियों की भावनाओं और आज़ादी के मतवालों को अपनी ताक़त से कुचलना ही था, वह सूचना मिलते ही अपने फ़ौजी दस्ते के साथ हुमायूं के मकबरे पर पहुँच गया।
शहज़ादों को देखते ही उसके दिल में बदले की भावना जोर मारने लगी। उसने खुद शहजादों को गिराना की सूचना दी। कि इलाही बख्श की मुखबिरी पर मेजर हडसन हुमायूं के मकबरे पर पहुंच गया।
उस समय बहादुरशाह ज़फ़र के परिवार से तीन शाहजादे मोगल, मिर्ज़ा खिज़ और मिर्ज़ा अबूबक्र अन्य कुछ आन्दोलनकारियों के साथ वहां मौजूद थे। मेजर हडसन और लेफ्टिनेंट मेकडावल, मकबरे से आधे मील की दूरी पर दर गए। मेजर हडसन की मकबरे पर हमला करके शहज़ादों को गिरफ़्तार करने की हिम्मत नहीं हो सकी। उसने शहज़ादों के पास यह सूचना भेजी कि वह गिरफ्तारी को स्वीकार करें या फिर अंजाम के लिए तैयार रहें।
शहज़ादों ने सोच विचार के बाद कहा कि हमारी जानों की ज़िम्मेदारी ली जाये। हडसन ने इस जिम्मेदारी को लेने से इनकार कर दिया। उस पर शहज़ादों ने कहा कि “तैमूरिया खानदान के लोग इस तरह मजबूर हो कर कैद नहीं हुआ करते। तलवार उठाते हैं और लड़ते हैं। मारते हैं या मर जाते हैं। दाराशिकोह को जब औरंगज़ेब ने क़त्ल करना चाहा और क़ातिल, क़ैद ख़ाने में आये तो दारा सब्ज़ी छीलने की छुरी लेकर खड़ा हो गया और कुछ देर जल्लादों से मुक़ाबला करता रहा। हमें भी बहादुरी का काम करना चाहिए। मरना तो हर हाल में है फिर बहादुरी की मौत क्यों न मरें।” शहज़ादों का, हथियारों से लैस अंग्रेज़ी फ़ौजी दस्ते से लड़ना आसान नहीं था, फिर भी वे अपनी हिम्मत से मुक़ाबले के लिए तैयार हो गए। यहां फिर इलाही बख़्श ने अपनी ग़द्दारी का सुबूत दिया।
वह शहज़ादों का हमदर्द और रिश्तेदार बनकर बीच में उतर आया। उसने शहज़ादों को संघर्ष न करने के लिए बहुत समझाया। चापलूसी की कई बातें करके बगैर संघर्ष के शहज़ादों को हडसन के सामने पेश होने के लिए राज़ी कर लिया।
अंततः शहज़ादे गिरफ़्तार कर लिए गए।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के शहज़ादों का भी अंजाम वही हुआ जो कि शमा पर परवानों का हुआ करता है। मेजर हडसन तीनों शहज़ादों को घोड़ा गाड़ी पर बिठा कर शहर की ओर ले गया और वह गुस्से और भावनओं में इतना पागल हो गया था कि उसने अपने पागलपन में एक निर्मम हत्यारे का सुबूत दिया।
उसने हिन्दुस्तान के उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहज़ादों को आधे रास्ते में ही सवारी से शमा मोमबत्ती परवाना प्रेमी / पतंगा जलती हुई मोमबत्ती की लौ से आकर्षित हो कर पतंगा। उसके आस-पास मडराता है, और अंत में मर जाता है। इसका संकेत इश्क़ करने वालों के जांनिसारी के जज्बे को बयान करने के लिए किया जाता
फ़िरंगी हडसन की क्रूरता:-
शहजादे समझे कि अब उन्हें कैदियों की तरह पैदल ले जाया जायगा, लेकिन यह स्थान तैमूरी नस्ल के आज़ादी के मतवाले शहजादों की अल्लखाना बन गया। शहजादों को सवारी से उतारने के बाद मेजर हडसन ने उन्हें गुस्से भरी निगाहों से घूरा और अपनी बन्दूक की गोलियां निहत्थे शहज़ादों की छातियों पर बरसानी शुरू कर दी।
फ़िरंगी हडसन की बन्दूक से निकलने वाली गोलियों की बौछार शहजादों के सीनों का गोश्त फाड़ती, पेसलियां भेदती और हइडियां तोड़ती हुई देश के शहीदों के पवित्र ख़ून के फव्वारों के साथ छातियों को पार कर गड़ी
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बहादुर शाह ज़फ़र के दिल के टुकड़े नौजवानों की शहीद लाशें अपनी मातृ भूमि की गोद में तड़पने लगीं। जब शहीदों की लाशें ठंडी हो गई तो हडसन द्वारा उनकी लाशों को एक रात के लिए कोतवाली के दरवाज़े पर लटकवा दिया गया।
हडसन ने अपने पागलपन की चरम सीमाओं को पार करते हुए तीनों शहजादों के कटे हुए सर एक थाल में रख कर उन्हें रेशमी कपड़े से ढकवा कर बहादुरशाह ज़फ़र के पास बतौर नज़राना ख़ुद पेश किया। दुखी बाप ने जब अपने नौजवान शाहजादों के कटे हुए सर देखे तो वह इतने बड़े सदमे को एकदम सहन नहीं कर सका। वह गम के समुद्र में डूब गया।
कुछ समय बाद उस बूढ़े बाप ने हिम्मत जुटायी तथा अपनी भावनाओं पर काबू पाकर एक लम्बी सांस भरते हुए कहा–अलहम्दुलिल्लाह। तैमूर की औलादें ऐसे ही सुर्खरू होकर अपने बाप के सामने आया करती थीं।
बहादुरशाह ज़फ़र शासक मेजर हडसन की क्रूरता:-
महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बहादुरशाह ज़फ़र और उसके परिवार का देश की आज़ादी पर मर-मिटने वाला बलिदान एक दुख भरी सच्चाई है। जिसे सुनकर हर एक दर्दमंद दिल रो-पड़ा होगा, धरती कांप उठी होगी और सम्पूर्ण वातावरण हाहाकार से गूंज उठा होगा।
मेजर हडसन शहज़ादों को शहीद करके इतना ख़ुश था कि उसने ख़ुशी और घमंड के नशे में बहादुर शाह का मज़ाक़ उड़ाते हुए उनके सामने एक शेयर पढा-
दम-दमे में दम नहीं अब ख़ैर मांगो जान की, ऐ ज़फ़र ठंडी हुई अब तैग़ हिन्दुस्तान की।
बहादुरशाह ज़फ़र की जिन्दगी के आखिरी दिन :-
आज़ादी का बूढ़ा मतवाला बहादुरशाह ज़फ़र देश पर अपना सब कुछ लुटा देने के बाद भी इतना साहस और अन्य क्रांतिकारियों से इतनी उम्मीद रखता था कि उसने हडसन के जवाब में ग़ुस्से से तमतमाते हुए यह शेयर कहा-
ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की. ताख्ते लन्दन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की।
आज़ादी का मतवाला शहंशाह बहादुरशाह ज़फ़र रंगून जेल की काल कोठरी में परेशानियों का मुक़ाबला करते हुए 7 नवम्बर 1862 को अपना देश हिन्दुस्तान और अन्य क्रांतिकारियों के हवाले करते हुए इस दुनिया को अलविदा कह गया।
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FAQ
शहंशाह के सोलह बेटे और इक्कीस बेटियां थीं।
24 अक्टूबर 1775
7 नवम्बर 1862 को अपना देश हिन्दुस्तान अन्य क्रांतिकारियों के हवाले करते हुए इस दुनिया को अलविदा कह गये
ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख़ते लन्दन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की,
बहादुरशाह ज़फ़र, दिल्ली के बादशाह अकबर शाह-II (द्वितीय) के बेटे और शाह आलम के पोते थे।
मिर्ज़ा करेश (कोयाश), जोकि अपने पिता की तरह क्रन्तिकारी था