रतौना आन्दोलन में समाचार-पत्रों की भूमिका| मध्य प्रदेश का इतिहास
Home » रतौना आन्दोलन में समाचार-पत्रों की भूमिका| मध्य प्रदेश का इतिहास

रतौना आन्दोलन में समाचार-पत्रों की भूमिका| मध्य प्रदेश का इतिहास

by रवि पाल
0 comment

दुनियां में ऐसे बहुत कम ही देश है जो अंग्रेजों की चलाकी की नीतियों से बच सके हो , लिखने के लिए तो बहुत कुछ है लेकिन यहाँ हिंदुस्तान के इतिहास के बारे में लिखा जा रहा है , यह इतिहास उस तरह का इतिहास है जो इतिहासकारों से बच गया या उन्होंने इसको लिखने के लिए उचित नहीं समझा, यह लेख मध्यप्रदेश के इतिहास का वह हिस्सा है जो रतौना आन्दोलन के बारे में लिखा गया है आज रतौना आन्दोलन में समाचार-पत्रों की भूमिका के बारे में पढ़ेगे |

एक तरफ हिन्दुतान में राष्टपिता महात्मा गाँधी का आन्दोलन चल रहा था वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन चल रहे थे, उसी समय देश में अलग- अलग संगठन, अलग- अलग तरीके से आन्दोलन कर रहे थे 1920 के रतौना आन्दोलन में भी अख़बारों की बहुत बड़ी भूमिका रही है

समाचार-पत्र, एवं कलम के सिपाही पत्रकार बन्धुओं ने किस प्रकार अपनी लेखनी द्वारा ब्रिटिश सत्ता को अपना बढ़ाया हुआ कदम वापस लेने पर बाध्य किया इसकी सशक्त मिसाल सागर जिले का रतौना आन्दोलन उसमें से प्रमुख है

रतौना आन्दोलन में समाचार-पत्रों की शुरुआती भूमिका:-

हिंदुस्तान की आजादी में यदि समाचार-पत्रों की भूमिका देखनी या समझनी है तो मध्यप्रदेश का रतौना आन्दोलन में समाचार-पत्रों एवं पत्रकारों की भूमिका देखिये तो इस आन्दोलन में स्पष्टतः देखा जा सकता हैकि समाचार पत्रों ने अंग्रेजों की दोमुही चल को कैसे समत किया

मध्यप्रदेश में पत्रकारिता के एक सशक्त स्तम्भ पं॰ माखनलाल चतुर्वेदी ने रतौना आन्दोलन में सर्वप्रमुख भूमिका निभाई इनका जबलपुर से निकलने वाला समाचार-पत्र कर्मवीर ने आम जनता में ऐसी अलख पैदा की जिसने ब्रिटिश सत्ता को झकझोरकर रख दिया। इसके अलावा, ताज, छात्र सहोदर, लीडर, श्री शारदा, आनन्द बाजार पत्रिका, एवं वन्दे मातरम् इत्यादि समाचार-पत्रों ने भी रतौना आन्दोलन को गति एवं दिशा प्रदान की।

पं. माखनलाल चतुर्वेदी के अलावा जबलपुर के पत्रकार भाई ताजुद्दीन, सागर के पत्रकार भाई अब्दुल गनी एवं तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष लाला लाजपत राय के समाचार-पत्र वन्दे मातरम् ने भी इस आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी इसके साथ – साथ कलकत्ता से निकलने वाले शिशिर कुमार घोष के आनन्द बाजार पत्रिका तथा इलाहाबाद से निकलने वाले लीडर जिसके संस्थापक पं. मदन मोहन मालवीय एवं सम्पादक सी.वाई. चिन्तामणि थे।

रतौना आन्दोलन में सी.वाई. चिन्तामणि , शिशिर कुमार घोष, लाला लाजपत राय, अब्दुल गनी, ताजुद्दीन, पं. माखनलाल चतुर्वेदी और नर्मदा प्रसाद मिश्र का अहम योगदान:-

21 मार्च सन् 1920 को नर्मदा प्रसाद मिश्र ने राष्ट्रीय हिन्दी मन्दिर की सचित्र मासिक पत्रिका श्री शारदा का भी जबलपुर से ही प्रकाशन हुआ, इस पत्रिका ने भी रतीना कसाईखाना विरोधी लेख प्रकाशित किए थे ।

इसके साथ इसी माह मार्च 1920 मे जबलपुर से श्री नरसिंहदास अग्रवाल ने मासिक पत्रिका छात्र सहोदर निकाली इस पत्रिका के संपादक पं. मातादीन शुक्ल थे।

श्री नरसिंहदास अग्रवाल एक स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे कहते है जेल इनका दूसरा घर हुआ करता था, कसाईखाना विरोधी आन्दोलन में इन्होंने भी अपने समाचार-पत्र के माध्यम से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ब्रिटिश सत्ता को पत्रकारिता के माध्यम से सशक्त चुनौती देकर झुकाने वाला रतौना आन्दोलन आखिर था क्या:-

रतौना ग्राम , सागर से पश्चिम की ओर सागर-भोपाल सड़क मार्ग पर 8 मील की दूरी पर स्थित है, सन् 1920 ई. के जून महीने में मध्य प्रान्त की ब्रिटिश सरकार ने रतौना ग्राम में एक वृहद् कसाईखाना खोलने की योजना आरम्भ की थी इसमें लगभग 1,400 पशु प्रतिदिन काटे जाने थे।

इससे पहले अंग्रेजी कंपनी को इस कसाईखाने को प्रतिदिन 1,400 पशु काटने का लाइसेंस मिला था, मगर इस कसाईखाने में प्रतिदिन 2,500 गाय-बैल काटने की योजना थी, रतौना कसाईखाने का प्रारम्भिक प्रबन्ध कलकत्ता की मेसर्स सेंट डेवेनपोर्ट एण्ड कम्पनी को सौंपा गया तथा इसकी देख-रेख करने वाले विशेषज्ञ मिस्टर जे. टाइसन विदिन शा थे यह एक अंग्रेजी अधिकारी हुआ करते थे जिनके खास सागर जिले के लिए बुलाया गया था |

सागर में कसाईखाना खोलने कारण निम्नलिखित थे

  • सागर क्षेत्र की जलवायु अच्छी है, यहाँ के जानवर इस अच्छी जलवायु के कारण खासे मोटे-ताजे होते थे
  • यहाँ चमड़े के मसाले के लिए घने जंगल बहुत थे ।
  • भौगोलिक एवं सामरिक महत्त्व के कारण अंग्रेजों की नज़रों में सागर का अत्यधिक महत्त्व था

अंग्रेज समझते थे यह एक ऐसी जगह है जहाँ के पशुओं के साथ जलवायु बहुत अच्छी है तथा चमड़े को ले जाने के  लिए रस्ते बहुत आरामदायक है यही कारण था कि अंग्रेजों ने यहाँ  कसाईखाना खोलने का निर्णय लिया था |

रतौना आन्दोलन में कसाईखाना खोलने वाली  कम्पनी की शर्ते:-

कम्पनी को जो पट्टा दिया गया था  उसकी 13वीं शर्त में लिखा गया कि यदि यह कम्पनी अपना कारोबार किसी दूसरी कम्पनी को बेचना चाहे तो बेच सकती है।

जो भी कम्पनी इस कम्पनी को लेना चाहेगा  उसे 25 फीसदी हिस्सा मध्यप्रदेश और यहाँ के निवासियों को देना होग तथा  उसकी सूचना यहाँ कम-से-कम तीन समाचार-पत्रों में प्रकाशित करानी होगी। इसमें से एक छिंदवाड़ा का साप्ताहिक पत्र सी.पी. वीकली न्यूज होना चाहिए।

इस समाचार-पत्र को सरकार 16,000 रुपए की वार्षिक सहायता देती थी। यह बड़े ही आश्चर्य की बात थी कि मध्य प्रान्त के कतिपय समाचार-पत्र रतौना कसाईखाने की योजना का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग कर रहे थे व्यावसायिक दृष्टि से रतौना तक रेलवे पटरी का निर्माण आरम्भ हो गया।

रतौना कसाईखाना का विरोध की पूरे मध्यप्रदेश में जोर- शोर से आन्दोलन की तैयारी :-

कसाईखाना खोले जाने का समाचार आग की भाँति सागर सहित समस्त मध्य प्रान्त में फैल गया। सरकार जानती थी कि कसाईखाने का विरोध होगा। इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने फूट डालो और काम निकालो की नीति का सहारा लिया। सरकार ने कम्पनी के प्रोस्पेक्टस में बार-बार गाय काटने की बात लिखी एवं साफ लिखा गया कि सुअर के चमड़े का कारोबार किसी भी तरह नहीं किया जाएगा।

वस्तुतः ऐसा करके सरकार चाहती थी कि यदि कसाईखाने का विरोध होतो अंग्रेजों के साथ रहे। मगर सरकार का यह दाव उस समय उल्टा पड़ गया जबकि कसाईखाने का सबसे प्रबल प्रतिरोध 25 वर्षीय मुस्लिम नवयुवक भाई अब्दुल गनी ने किया।

भाई अब्दुल गनी एक राष्ट्रवादी मुसलमान होने के साथ-साथ एक पत्रकार भी थे।

इन्होने स्वयं प्रजामित्र अखबार में एक आलेख शीर्षक से लिखा था।

मौलवी लियाक़त अली क़ादरी कौन थे ?(1817-1892)

कि “श्तीना कसाईखाने का सबसे पहले मैंने विरोध किया था” उस समय इसकी चर्चायें जोर-शोर से  होने लगी थी

मुसलमान भाई अब्दुल गनी ने सागर क्षेत्र में घूम-घूमकर रतौना कसाईखाना विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व किया। यहाँ उल्लेखनीय है कि अखबार के माध्यम से भी इस रत्तीना कसाईखाने का सर्वप्रथम विरोध जबलपुर के एक मुस्लिम नेता ताजुद्दीन ने अपने सम्पादकत्व में निकलने वाले उर्दू अख़बार ताज के माध्यम से किया।

रतौना आन्दोलन में समाचार-पत्र चलाने वाले पत्रकार ताजुद्दीन 153-A एवं 506 IPC के तहत मुकदमा:-

कसाईखाने के विरुद्ध आवाज बुलन्द करने एवं ताज अखबार में निर्भीक सम्पादकीय लिखने के कारण ताजुद्दीन महोदय पर सेक्शन 153-A एवं 506 IPC के अन्तर्गत मुकदमा चलाकर उन्हें जेल भेज दिया गया, ताकि लोगों का उत्साह ठण्डा पड़ सके। समाचार-पत्र के माध्यम से, अब रतौना कसाईखाने के विरोध की कमान जबलपुर से निकलने वाले समाचार-पत्र कर्मवीर ने सम्भाली।

वहाँ से निकलने वाले अपने समाचार-पत्र कर्मवीर को उन्होंने कसाईखाना विरोधी आन्दोलन का प्रमुख अस्त्र बनाया। महाकौशल अंचल की पत्रकारिता और स्वातन्त्र्य चेतना के इतिहास में सन् 1920 का वर्ष अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

राजनीतिक चेतना के सबसे बड़े केन्द्र, जबलपुर से हिन्दी साप्ताहिक कर्मवीर का प्रकाशन 17 जनवरी 1920 को आरम्भ हुआ। कर्मवीर की पृष्ठ संख्या 20 एवं आकार 13″x 2012″ था। पं. माधवराव सप्रे की प्रेरणा से पं. विष्णुदत्त शुक्ल के सहयोग से जबलपुर में राष्ट्र सेवा लिमिटेड की स्थापना की गई। पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने इसके सम्पादक का कार्यभार सम्भाला। प्रत्येक शनिवार को प्रकाशित होने वाले इस समाचार-पत्र का पंजीयन क्रमांक 229 एवं वार्षिक शुल्क साढ़े तीन रुपए था यदि आप उस समय के इस संचार पात्र के बारे में रिसर्च करेंगे तो तो बहुत से लेखमिल जायेंगे जोकि कर्मवीर के मुखपृष्ठ छपा होता था|

1920 ई.का रतौना (सागर) आन्दोलन | मध्यप्रदेश का इतिहास

रतौना आन्दोलन में अलग- अलग पत्रिकाओं तथा अखवारो में ऐसी लाइने अक्सर देखी जाती थी:-

कर्म है मातृ-भूमि का मान, कर्म पर आओ हों बलिदान

कर्मवीर पत्र में एक विभाग  “रतोना विभाग” नाम से ही खोल दिया गया (19 जुलाई 1920 से लेकर दिसम्बर 1920 तक के अंक रतौना कसाईखाने के विरोध पर ही केन्द्रित रहे। 17 जुलाई 1920 को माखनलाल चतुर्वेदी ने कर्मवीर में “गो-वथ की सरकारी तैयारी” नामक शीर्षक से अग्रलेख लिखा, यहाँ जितने भी लेख लिखे जा रहे है सब के सब मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की लाइब्रेरी से लिए गये है  

रतौना आन्दोलन के द्वारा भारतीय स्वाधीनता संग्राम में मध्यप्रदेश के समाचार-पत्रों एवं पत्रकारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका का आगाज:-

सर्वश्री पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने कर्मवीर में निरन्तर ऐसी-ऐसी टिप्पणियाँ लिखी कि एक ओर भारतीय जनता आन्दोलन हेतु उद्वेलित हुई तो दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार का चैन छिन गया

सेक्शन 153-A एवं 505 आई.पी.सी. के अन्तर्गत मुकदमा चलाकर ताजुद्दीन को जब जेल भेजा गया तब कर्मवीर समाचार-पत्र ने लिखा- दो महीने सत्ताइस दिन हुए मिस्टर ताजुद्दीन जेल में हैं और मध्य प्रान्त के वे लोग जो अपने को राष्ट्रीय कार्य का अधिकारी समझते है, इस बात की चिन्ता नहीं कर रहे हैं कि मि. ताजुद्दीन किस अवस्था में हैं

प्रान्त में एक तो यों ही राष्ट्रीय कार्य करने वालों का टोटा है, जिस पर प्रान्त के मि. ताजुद्दीन जैसे सेवक यदि महीनों जेल में सड़ते रहेगे और मुकदमा पूरा न हो पाएगा तो हम सोचते हैं कि उन्हें अपराध प्रमाणित होने के पूर्व ही नरक यातना के न जाने कितने कष्ट भोग चुकने पड़ेंगे। हम सुन रहे हैं कि ताजुद्दीन बीमार हैं। उनका वजन घट चुका है। जब वे पेशियों पर आते हैं तब ऐसा देखा जाता है कि उनके मुँह पर पीलापन छा गया है।

मि. ताजुद्दीन के पवित्र मिशन को पूरा करने और ‘ताज’ को जिन्दा रखने और डटकर काम करने के लिए सहारा दें और दूसरे मि. ताजुद्दीन को कारागार में रहने की यादगार में मध्य प्रान्त में अहिंसक असहकारिता के आन्दोलन को इतना ऊँचा उठावे कि वकील, विद्यार्थी, व्यापारी, पढ़े-बेपढ़े, किसान और मजदूर सब असहकारिता के नाम पर कुर्बान होते |

इतिहास के ऐसे पन्ने जो अक्सर कम देखे जाते है :-

तन, मन और धन से अधिकाधिक विजयी बनाते नजर आयें। इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्मवीर समाचार-पत्र ने मि. ताजुद्दीन के प्रयासों की सराहना की थी। ताजुद्दीन की गिरफ़्तारी से एवं उनके गिरते स्वास्थ्य को लेकर चिन्ता व्यक्त करता है। उसने लोगों को प्रेरित किया कि वे ताजुद्दीन की रिहाई के लिए प्रयास करें 22 जब ताजुद्दीन को रतीना कसाईखाने के विरोध में अपने पत्र ताज में लेख लिखने के कारण कारावास भेज दिया गया तब कई समाचार-पत्रों ने इसकी भर्त्सना की छात्र सहोदर ने लिखा

हिन्दुस्तान के उन मुसलमानों में ताजुद्दीन हैं जो भारतवर्ष को मक्का अथवा काबा, हिन्दुओं को सहोदर, और गो माता को अपनी जन्मदात्री समझते थे। जेल के अधिकारियों ने ताजुद्दीन की भावुकता में मरियम की पवित्रता तथा ईसा के सत्यव्रत को न देखा और माने हुए अपराधियों के साथ उनसे भी कैदी जैसा व्यवहार किया गया।

लेख :-

पं. माखनलाल चतुर्वेदी के इस लेख से सागर में भाई अब्दुल गनी द्वारा चलाए जा रहे रतौना आन्दोलन को और अधिक बल मिला। अब इस सत्याग्रह में प्रख्यात पत्रकार मास्टर बलदेव प्रसाद सोनी, गोविन्द दास लोकरस, बालकृष्ण लोकरस, दुर्गाप्रसाद सेन, स्वामी कृष्णानन्द, केशव रामचन्द्र खाण्डेकर, फोदालाल जैन, भैयालाल चौधरी, कालीचरण तिवारी, महंत बिहारीलाल, प्यारेलाल वकील, विष्णुप्रसाद पटेरिया, भगवती प्रसाद महेश्वरी, राजाराम नेमा, बाबू असफ खाँ, खान साहब फकीर मुहम्मद, मौलवी चिरागउद्दीन, एवं रामकृष्ण पाण्डे आदि ने बढ़-चढ़कर भाई अब्दुल गनी का साथ दिया

उनके प्रयासों से यह आन्दोलन प्रान्त-व्यापी बन गया। इसे देश-व्यापी बनाने का श्रेय जाता है पं. माखनलाल चतुर्वेदी एवं  उनके समाचार-पत्र कर्मवीर को भाई अब्दुल गनी ने तो ब्रिटिश सरकार से स्पष्ट कह दिया कि – “इस आधुनिक कसाईघर में अंग्रेज़ हुकूमत को गाय का सिर काटने से पहले मेरा सिर काटना होगा।

समस्त भारत में अंग्रेज़ों की नीति की आलोचना होने लगी। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा:-

माखनलाल चतुर्वेदी की कलम में अद्भुत शक्ति थी जहाँ एक और उससे शक्तिशाली ब्रिटिश शासन कोपता रहता था वहीं दूसरी और युवकों में वह उत्साह और प्रेरणा भरती रहती थी।  कर्मवीर उन दिनों राष्ट्रीय जागरण का अग्रदूत था और खोए हुए भारतीय स्वाभिमान को जगाने वाला महान पत्र था

पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने समाचार-पत्र कर्मवीर के द्वारारतौना कसाईखाने के विरोध में माहौल बनाया। उन्हें अपने इस प्रयास में पं. विष्णुदत्त शुक्ल, दीवान बहादुर बल्लभदास एवं काशी प्रसाद पाण्डेय का भरपूर सहयोग मिला। उनके प्रयास रंग लाए। जनता में कसाईखाने के विरुद्ध अत्यन्त आक्रोश उत्पन्न हुआ। जिन लोगों ने डेवेनपोर्ट कम्पनी के शेयर खरीदे, उन शेयर होल्डरों के विरुद्ध भी माहोल बना। जो शेयर-होल्डर काउंसिल चुनाव में खड़े हुए वे बुरी तरह परास्त हुए।

 पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा –

रतीना कसाईखाना प्रश्न को लेकर प्रान्तीय काउंसिलों में जो प्रश्नोत्तर हुए उनको भी प्रकाशित किया गया। सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि केवल साम्पत्तिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सफाई और दयालुता की दृष्टि से यह कसाईखाना खोला जा रहा है। हमारी दयालुता एवं सरकार की दयालुता में पूर्व-पश्चिम का फर्क है।हम लोग जीवों की रक्षा को दयालुता कहते हैं।

सरकार जीवों की हत्या को दयालुता कहती है। सरकार ने यह भी कहा कि निकम्मे ढ़ोरों को काटे जाने से चारे की बचत होगी। क्या इसी नियम को लागू करके मनुष्यों का कत्ल करके महंगाई का बन्दोवस्त भी किया जा सकता है? निकम्मे ढोर भी खाद पैदा करते हैं।

28 अगस्त 1920,  कर्मवीर ने यह भी बताया है कि

रतीना कसाईखाने का प्रसंग अब केवल प्रान्तीय प्रश्न नहीं रह गया है। बम्बई, कलकत्ता, लाहौर, अमृतसर तथा अन्य नगरों में इसका प्रतिवाद हो रहा है। पूरे भारत की जनता इस निर्दयता पर आँसू बहा रही है, फिर हमारी प्रजा के हित के लिए राज्य करने वाली सरकार अपने किए को मेटने को तैयार नहीं है।

वास्तव में सरकार आग को भड़काना चाहती है।सरकार जवाब में इस बात को भी स्पष्ट कर रही थी कि यूरोपियों की अपेक्षा हिन्दुस्तानियों ने ही इस कम्पनी के शेयर अधिक खरीदे हैं।

1923 ई.का झण्डा सत्याग्रह | मध्य प्रदेश का इतिहास

कुछ और महत्वपूर्ण लेखकों और पत्रकारों के विचार :-

कलकत्ता की इस कम्पनी द्वारा प्रस्तावित कारखाने की लागत लगभग 40 लाख रुपए है। कोई पच्चीस सौ पशु नित्य काटने की कम्पनी को सुविधा थी और वर्ष में कुछ लाख गाय-बैलों को काटना इस कम्पनी का स्पष्ट कार्य था। सागर जिले में सागर, खुरई, राहतगढ़, घटेरा में ऐसे कसाईखाने थे जो सैकड़ों की संख्या में गाय, बैल तथा अन्य पशुओं काव करते थे।

इसके बावजूद भी रतीना में कसाईखाना बनाने का प्रयास हो रहा है। सरकार देश से 6 रूपया प्रति सैकड़ा ऋण लेती श्री परन्तु उस कसाईखाने को पाँच रुपया सैकड़ा सूद पर ऋण देना स्वीकार किया गया। 60 वर्ष के लिए ठेका दिया गया।

गाय के चमड़े पर अधिक जोर दिया गया। शाकाहारी लोगों के लिए दूध, घी, मक्खन का भाव एवं उनकी कीमत अब बढ़ती चली जाएगी। सिवाय शेयर- होल्डर के इस कम्पनी के खुलने से किसी को लाभ नहीं होगा। बेचारे धर्म प्राण हिन्दू वर्ष में लाखों गायों को कटते देखकर अपनी आँखों के ‘सामने अपने धर्म को मटियामेट होते हुए पाएंगे|

इस प्रकार एक साथ कई समाचार-पत्रों ने रतौना में खुलने वाले कसाईखाने का जमकर विरोध किया। उसके बारे में जमकर आलोचनात्मक प्रहार किए। इन लेखों को पढ़कर एक और जन-जागृति आई तो दूसरी ओर सरकार पर चौतरफा दबाव पड़ा। उसे झुकना पड़ा। कसाईखाना खोलने की योजना त्यागनी पड़ी। 18 दिसम्बर 1920 के अंक में कर्मवीर ने लिखा

लीडर (भवन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित समाचार-पत्र) ने सरकार द्वारा बाहर गोमांस भेजने की योजना को त्यागने की पुरजोर वकालत की रतौना कसाईखाना इस बात का प्रतीक बन गया कि अन्यत्र रूपी भी पशुओं का वध नहीं किया जाए। प्रान्त में 75 कसाईखाने हैं, इसीलिए सर्वत्र वध के निषेध से ही रतीना कसाईखाने की पूर्ण और चरम सफलता प्राप्त हो सकेगी

मध्य प्रान्त की धरती पर अंग्रेजों की इस प्रथम नैतिक एवं प्रशासनिक शिकस्त ने स्वतन्त्रता संग्राम को शक्ति कितनी बढ़ाई होगी इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। रतौना के कसाईघर विरोधी आन्दोलन के सूत्रधार थे भाई अब्दुल गनी और उसे नेतृत्व, वाणी और दिशा दी, दादा माखनलाल चतुर्वेदी और उनके पत्र कर्मवीर ने भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में यदि मध्यप्रदेश की भूमिका देखनी हो, यदि समाचार-पत्रों की भूमिका देखनी हो, यदि पत्रकारों की भूमिका देखनी हो तो “रतौना आन्दोलन” में इन सभी को स्पष्टतः देखा जा सकता है|

रतौना आन्दोलन में समाचार-पत्रों की भूमिका समाचार-पत्र कर्मवीर एवं पत्रकारिता के भीष्म पितामह दादा माखनलाल चतुर्वेदी की यह एक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण विजय थी। रतीना आन्दोलन को इसीलिए पत्रकारिता की विजय के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

FAQ

रतौना आन्दोलन में किन समाचार-पत्रों की भूमिका अहम थी ?

पं. माखनलाल चतुर्वेदी के द्वारा जबलपुर से निकला जाने वाला समाचार- पत्र कर्मवीर इसके अलावा, ताज, छात्र सहोदर, लीडर, श्री शारदा, आनन्द बाजार पत्रिका, एवं वन्दे मातरम् इत्यादि समाचार-पत्रों ने भी इस  आन्दोलन को गति एवं दिशा प्रदान की।

शिशिर कुमार घोष कौन सी पत्रिका निकालते थे?

आनन्द बाजार पत्रिका , यह कलकत्ता से निकली जाती थी



You may also like

About Us

Lorem ipsum dolor sit amet, consect etur adipiscing elit. Ut elit tellus, luctus nec ullamcorper mattis..

Feature Posts

Newsletter

Subscribe my Newsletter for new blog posts, tips & new photos. Let's stay updated!