बैतूल एवं सिवनी का जंगल सत्याग्रह, कोरकू जनजाति [PDF]
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बैतूल एवं सिवनी का जंगल सत्याग्रह, कोरकू जनजाति [PDF]

by रवि पाल
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हिंदुस्तान का इतिहास विश्व के इतिहास का  सबसे दुखद और पीड़ादायक है जब इसके बारे में गहराई से पढ़ते है तब पता चलता है इस देश की आजादी के लिए कितने आदिवासिओं, गाँव में रहने वाले ग्रामीणों ने अपना बलिदान  दिया, ज्यादातर किताबों में ऐसे लोगों की गाथा नहीं लिखी है लेकिन सच तो यह है ऐसे लोगों की गाथाएँ किताबों, लाइब्रेरियों में होनी ही चाहिए इसीलिए आज का लेख बैतूल एवं सिवनी का जंगल सत्याग्रह, कोरकू जनजाति के बारे में है |  

मध्यप्रदेश के विशेष सन्दर्भ में, 1930 ई. में होने वाला जंगल सत्याग्रह, ‘ भारतीय मलत्रता संग्राम के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। इस सत्याग्रह की एक विशेषता यह है कि यह शहरी लोगों की अपेक्षा ग्रामीणौ – विशेषतः जनजातियों के त्याग एवं बलिदान का इतिहास है। चूंकि मध्यप्रदेश आदिवासी क्षेत्र है एवं जनजातियों के हित जंगलों से जुड़े होते हैं, यही कारण है। कि मध्यप्रदेश अंचल की विभिन्न जनजातियों की भूमिका इस जंगल सत्याग्रह में स्पष्ट परिलक्षित होती है लेकिन फिर भी इसे मात्र जनजातियों का ही सत्याग्रह नहीं कहा जा सकता, इस क्षेत्र के ग्रामीणों ने भी इस सत्याग्रह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में सशक्त भागीदारी अंकित की।

बैतूल एवं सिवनी का जंगल सत्याग्रह से पहले कृषकों तथा आदिवासियों की जिन्दगी:-

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में मध्यप्रदेश के विशेष सन्दर्भ में जंगल सत्याग्रह का महत्त्व इसलिए भी अधिक है कि यह अन्य प्रान्तों की अपेक्षा मध्य प्रान्त में अधिक फैला था। 1850 ई. तक आदिवासी वनों को अपने उपयोग हेतु अपनी इच्छानुसार काटते थे। 1862 ई. के बाद बंजर भूमि नियम के प्रवर्तित हो जाने से सागौन, साल, शीशम आदि की कटाई प्रतिबन्धित कर दी गई। 1878 ई. में जब “भारतीय जंगल अधिनियम” पारित किया गया तो मध्यप्रदेश के किसानों एवं आदिवासियों की जीविका पर इसका काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

कृषक वर्ग तो भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा भी था और जंगल इनके जीविकोपार्जन के प्रमुख साधन थे।कालान्तर में स्थिति विकराल उस समय हुई जब उपजाऊ भूमि को भी जंगल घोषित कर दिया। इन परिस्थितियों में वे कृषक एवं जनजातियाँ, जिनकी आजीविका का प्रमुख साधन वन थे, के सामने इस जंगल कानून का विरोध करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। फलतः मध्यप्रदेश के कई जिलों में जंगल सत्याग्रह हुआ एवं इसमें कृषकों, आदिवासियों के साथ-साथ आम लोगों ने भी सशक्त भागीदारी अंकित की |

मध्यप्रदेश में होने वाले जंगल सत्याग्रह में बैतूल जिले का जंगल सत्याग्रह अद्वितीय था। यहाँ के गौंड एवं कोरकू जनजातियों मूलतः कृषि पर निर्भर थीं। डिवीजन के कमिश्नर डब्ल्यू.सी. असेबेतुल प्रारम्भ में सागर-नर्मदा के अधीन आता था। 1857 के दौरान यहाँ के कोरकू आदिवासियों ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया था। बैतूल के डिप्टी कमिश्नर कैप्टन मेनलीन ने अर्सकाइन से कहा था कि वह 500 गोंड आदिवासियों की फौज तैयार कर इनके विद्रोह के दमन हेतु भेजें। इससे आदिवासियों का आदिवासियों के साथ संघर्ष नजर आएगा। इस प्रकार बैतूल में प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय चेतना प्रसारित हुई। महात्मा गाँधी के बैतूल आगमन पर यहाँ और अधिक राष्ट्रवादी भावनाओं का प्रसार हुआ।

बैतूल एवं सिवनी का जंगल सत्याग्रह से पहले कोरकू जनजाति के साथ महात्मा गांधी का बैतूल दौरा :-

बैतूल के श्री प्रताप मल गोठी के सात पुत्रों में से एक दीपचन्द (12 नवम्बर 1897 से 15 अगस्त 1971) गाँधीजी के कहने पर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े। 1930 के जंगल सत्याग्रह के लिए जब दीपचंद गोठी रवाना हो रहे थे तब दीपचन्द की माँ सोनीबाई ने उन्हें (जंगल सत्याग्रह के तहत् पास काटने चाँदी का हँसिया भेंट किया।

दीपचन्दजी ने चिखलार में इस चाँदी के हँसिये से घास काटकर जंगल सत्याग्रह का शुभारम्भ किया। उनके नेतृत्व में सैकड़ों लोगों ने जंगल सत्याग्रह में भाग लिया। ये सभी लोग गाँधी टोपी पहने थे। धीरे-धीरे सत्याग्रहियों की संख्या बढ़ने लगी । अगस्त 1930 हुए के जंगल सत्याग्रह में श्री दीपचन्द गोठी के नेतृत्व में 500 आदिवासियों का समूह जंगल सत्याग्रह में भागीदारी कर रहा था। इनमें कोरकू एवं गौंड आदिवासी शामिल थे। यह सभी कुल्हाड़ियों एवं लाठियों से लैस थे।

बैतूल एवं सिवनी का जंगल सत्याग्रह  में कोरकू एवं गौंड आदिवासियों का योगदान:-

नर्मदा डिवीजन के तत्कालीन कमिश्नर एफ. सी. टर्नर ने सत्याग्रह के लिए अपनाई गई रणनीति की जानकारी अपने पत्रों में दी है। ब्रिटिश सरकार ने एक इंस्पेक्टर, चार हैड कांस्टेबल एवं 50 कांस्टेबलों के दल को जंगल सत्याग्रह के दमन हेतु तैनात किया। इस पुलिस दल ने चिखलार, बरागीरी और बाराखडी स्थानों पर जंगल सत्याग्रह कर रहे बहुत से लोगों को गिरफ्तार कर लिया। दीपचन्द गोठी को भी गिरफ्तार कर एक वर्ष की बामशक्कत कैद की सजा दी गई। इससे आप-पास के गाँवों में उत्तेजना फेल गई। 19 सितम्बर 1930 को विखतार के गिरफ्तार लोगों को छुड़ाने के लिए ग्रामीणों ने पुलिस दल पर हमला बोल दिया। पुलिस ने गोली चलाना शुरू कर दिया। दो लोग घटना स्थल पर शहीद हो गए।

लगभग 20 लोग घायल हुए है दीपचन्द गोठी की माँ सोनीबाई ने अपने पुत्र को चाँदी का हँसिया तो दिया ही साथ ही महिलाओं को जंगल सत्याग्रह में भाग लेने हेतु प्रेरित भी किया। इन महिलाओं के दल का नेतृत्व स्थानीय सेठ तांतेड़ की धर्मपत्नी सावित्रीबाई ने किया, जो जिला परिषद् में शिक्षिका थी। जिला परिषद् बैतूल के अध्यक्ष श्री ब्रह्मदीन शर्मा ने महिला शिक्षिकाओं के माध्यम से काफी महिलाओं को जंगल सत्याग्रह की टोलियों में बारी-बारी से आने के लिए प्रेरित किया है |

जंगल सत्याग्रह में दीपचन्द गोठी तथा इनकी माताश्री सोनीबाई का योगदान:-

बैतुल जिला परिषद् के अधीन संचालित स्कूलों के शिक्षकों ने जंगल सत्याग्रह में अहम् किरदार निभाया। कुछ शिक्षक गिरफ्तार भी हुए। कमिश्नर एकसी, टर्नर ने अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए 29 मार्च 1930 को बैतूल जिला परिषद् के अध्यक्ष को चेतावनी देते हुए लिखा कि
शालाओं के शिक्षको की गिरफ्तारी यह साबित करती है कि जंगल सत्याग्रह में यह भाग ले रहे हैं। यह ठीक नहीं है। मैं चेतावनी देता हूँ कि 15 अप्रैल 1930 तक इनका जंगल सत्याग्रह में भाग लेना बन्द कराया जाए ऐसा न करने पर अनुदान रोक देने या परिषद् को भंग करने की अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी परिषद् ने जब उनकी बात नहीं मानी एवं शिक्षकों का सत्याग्रह में भाग लेना जारी रहा, तब परिषद् भंग कर दी गई। जब पुनः चुनाव हुए तो वही कॉंग्रेस-शासित परिषद् पुनः बन गई। यहाँ तक कि पुराने अध्यक्ष-उपाध्यक्ष पुनः निर्वाचित हो गए। यह ब्रिटिश सरकार की अप्रत्यक्ष पराजय थी।

श्री दीपचन्द गोठी रिहा कर दिए गए उनकी सरकार-विरोधी गतिविधियां जारी रहीं। पुनः जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन, गाँधीजी के लंदन से द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेकर लौटने पर, आरम्भ हुआ, त भी इसका आरम्भ गोठी जी ने कर दिया। 1932 में पुनः दीपचंद गोटी क सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के कारण 9 माह का कारावास एवं अर्थदण्ड दिया गया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन समाप्त होने के पश्चात् भी 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह एवं 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान पुनः श्री दीपचंद गोठी की सक्रिय भूमिका के कारण उन्हें कारावास की सजा भुगतनी पड़ी।

जंगल सत्याग्रह में गंजन सिंह कोरकू की भूमिका:-

अगस्त 1930 में सेठ दीपचंद गोठी की गिरफ्तारी के पश्चात् बैतूल जंगल सत्याग्रह नेतृत्वविहीन हो गया। दीपचंद पर तुरत-फुरत मात्र तीन दिन के अन्दर मुकदमा चलाकर उन्हें एक वर्ष का कारावास दे दिया गया। इन परिस्थितियों में कोरकू जनजाति के आदिवासी गाँव “बंजारीदा के गंजन सिंह कोरकू ने जंगल सत्याग्रह को कुशल नेतृत्व प्रदान किया। बजारीढाल गाँव बैतूल से 52 कि.मी. एवं शाहपुर से 15 कि.मी. की दूरी पर स्थित था। 22 अगस्त 1930 को बंजारीढाल के इस आदिवासी गंजन सिंह ने जंगल सत्याग्रह का नेतृत्व सम्भाल लिया। यह सत्याग्रह इस तरह दीपचन्द की गिरफ्तारी के 21 दिन पश्चात् पुनः आरम्भ हो गया|

गंजन सिंह कोरकू ने बंजारीढाल ग्राम से जंगल सत्याग्रह का आरम्भ 22 अगस्त 1930 को किया। उसके नेतृत्व में 500 आदिवासियों के जत्थे ने जंगल कानून तोड़ा। इसमें स्त्री-पुरुष दोनों ने ही भाग लिया। शाहपुर की पुलिस ने जब उन्हें रोकने की कोशिश की तो इनके मध्य जमकर संघर्ष हुआ। पुलिस के सिपाहियों को गम्भीर चोटें आई। एक सिपाही मारा गया। इस परिस्थिति में बैतूल का पुलिस अधीक्षक अतिरिक्त पुलिस बल लेकर वहाँ पहुँचा।

उधर आदिवासियों की संख्या अब बढ़कर 800 हो गई थी।। गंजन कोरकू के नेतृत्व में आदिवासियों ने जमकर संघर्ष किया। पुलिस ने गोलियां चलानी आरम्भ कर दी। इस गोली चलाने की घटना में कोबा गो नामक आदिवासी शहीद हो गया। गंजन कोरकू पुलिस को चकमा देकर फरार हो गया। जब सरकार द्वारा उसे पकड़ने के सभी प्रयास असफल हुए तो उसकी गिरफ़्तारी पर 500 रुपए का इनाम रखा गया। पुलिस ने 23 आदिवासियों को गिरफ़्तार कर लिया और उन पर मुकदमे चलाए। एक माह पश्चात् पचमढ़ी की पुलिस ने गंजन सिंह कोरकू को गिरफ़्तार कर लिया। उसे 5 वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई।

जंगल सत्याग्रह के दौरान गंजन सिंह कोरकू को 18 महीने का कारावास:-

बंजारीढाल में कोबा गोंड की स्मृति में एक चबूतरा बनाया गया। गंजन सिंह की बहन एवं उसके परिवार के साथ सरकार ने बहुत बुरा व्यवहार किया। सरकार आदिवासी समुदाय से अत्यधिक नाराज थी। अठारह माह के कारावास के पश्चात् गंजन सिंह कोरकू को रिहा कर दिया गया। शाहपुर तथा घोड़ा डोंगरी तथा आसपास के इलाके में विष्णु सिंह गौड ने जंगल सत्याग्रह का नेतृत्व किया। विष्णु सिंह गौड द्वारा चलाया गया जंगल सत्याग्रह इतना तीव्र था कि उन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। लोगों का कहना था कि गंजन कोरकू एवं विष्णु सिंह पर देवताओं का हाथ था। वह एक साथ कई स्थानों पर दिखाई देते थे।

जंगल सत्याग्रह में सिवनी की भूमिका:-

9 अक्टूबर 1930 को सिवनी जिले के दुरिया ग्राम में जंगल सत्याग्रह आरम्भ हो गया। दुरिया ग्राम सिवनी से 54 कि.मी. दूर स्थित था। मध्य प्रान्त के गवर्नर हेनरी टॉयनबी अत्यन्त ही क्रूर एवं घोर काँग्रेस विरोधी थे। सिवनी के डिप्टी कमिश्नर सीमेन भी घोर साम्राज्यवादी थे |

पुलिस कप्तान पैरी भी एक बड़े तानाशाह थे। मूका लुहार के नेतृत्व में टुरिया ग्राम के लोगों ने 9 अक्टूबर 1930 को अत्यन्त ही तीव्रता के साथ जंगल सत्याग्रह आरम्भ किया। उसके नेतृत्व में 400 से अधिक व्यक्ति एकत्रित हो गए। इस सत्याग्रह में स्त्री-पुरुषों ने समान रूप से भाग लिया। सत्याग्रह की टोली ने घास काटना आरम्भ कर दिया। सिवनी के डिप्टी कमिश्नर सीमेन ने पुलिस इंस्पेक्टर सदरुद्दीन को सन्देश भेजा कि “दुरिया के जंगल सत्याग्रहियों को सबक सिखाओ”, इंस्पेक्टर सदरुद्दीन एवं रेन्जर मेहता बड़ी संख्या में सत्याग्रह स्थल पहुँचे । मूका लुहार को गिरफ्तार कर लिया गया। ग्रामवासी उत्तेजित हो गए। पुलिस ने गोलियां चला दीं। इसमें तीन स्त्रियाँ एवं एक पुरुष मारा गया। इनके नाम क्रमशः श्रीमती गुड्डेबाई (ग्राम खामरीठ), श्रीमती रैनीबाई (खम्बा), श्रीमती देयोबाई (ग्राम भीलवा) एवं श्री बिरजू भाई (ग्राम मुरझोड़) थे। इनके अलावा 40-50 लोग घायल हुए। 18 व्यक्तियों पर मुकदमे चलाए गए।

पं. द्वारका प्रसाद मिश्र  का लेख:-

सिवनी जिले के दुरिया गाँव में अधिकारी बड़ी बेरहमी से पेश आए। उसके सीमेन नामक अंग्रेज वहाँ डिप्टी कमिश्नर था। अपनी मनमानी के लिए यह जिले भर में बदनाम था। उसके आदेश पर उंगली गांव में कई सत्याग्रही पेड़ से बाँधे गए और उन्हें फोड़े लगाए गए। आदेश पर इंस्पेक्टर सदरुद्दीन ने मूका लोहार को गिरफ्तार किया जब मूका लोहार को गिरफ्तार किया गया तो करीब 2,000 लोगों की भीड़ हाथ में लाठी और कुल्हाड़ी लेकर पुलिस कैम्प पहुँच गई। जिनका नेतृत्व मौजी पिपरिया के गौसी गोंड कर रहे थे। पुलिस पर पत्थर फेंकने के फलस्वरूप पुलिस को गोली चलानी पड़ी, जिसमे तीन महिलाओं एवं एक पुरुष की मृत्यु हुई एवं तीस घायल हुए।

पुलिस के इस बर्बर अत्याचार के विरुद्ध जन नेताओं के द्वारा कोर्ट में मुकदमा चलाया गया, जिसकी पैरवी पी.डी. जटार एवं नित्येन्द्र नाथ शील द्वारा की गई एवं उन्होंने पुलिस की सख्तियों का काफी अच्छी तरह से पर्दाफाश किया।

जंगल सत्याग्रह  के दौरान मंडला, डिंडोरी, भुवाबिछिया तथा छिंदवाड़ा जिले के आदिवासियों का योगदान:-

सन् 1930 के जंगल सत्याग्रह में मंडला जिले के आदिवासियों ने भारी संख्या में भाग लिया। मंडला, डिंडोरी, भुवाबिछिया में जंगल कानून तोड़ा गया। छिंदवाड़ा जिले में भी जंगल सत्याग्रह के दौरान रामकोना एवं सुराबा नामक स्थानों पर बड़ी संख्या में जंगल कानून तोड़ दमोह जिले के लोगों ने भी जंगल सत्याग्रह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। गोकुलचंद्र जी वकील ने इस आन्दोलन को गति प्रदान की भारी संख्य में सत्याग्रही गिरफ़्तार हुए मध्य प्रान्त के तत्कालीन आई.जी. ने कहा था कि -मुझे इसका कतई अन्दाजा नहीं था कि इस आन्दोलन को इस प्रकार से गँवार, जंगली और अज्ञानी लोगों का सहयोग प्राप्त होगा।

इस तरह हम देखते हैं कि मध्य प्रान्त के बैतूल एवं सिवनी में जंगल सत्याग्रह की तीव्रता सर्वाधिक रही। दीपचन्द गोठी, गंजन कोरकू एवं लोहार ने स्थानीय लोगों को एक सशक्त नेतृत्व प्रदान किया। आज भी यहाँ उनका नाम आदर के साथ लिया जाता है।

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