बुन्देलखण्ड की रियासतों पर [निबंध] मध्य प्रदेश का इतिहास
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बुन्देलखण्ड की रियासतों पर [निबंध] मध्य प्रदेश का इतिहास

by रवि पाल
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क्या आपने कभी सोचा है जिस तरह का आज भारत देश दिखाई देता है उस तरह का भारत 200 वर्ष पहले भी था? शायद आपका जबाब होगा नहीं , इतिहास को समझने और जानने के लिए वर्तमान से लगभग 200 वर्ष पहले जाना होगा जहाँ पर आपको अंग्रेजों का शासन और मुगलों की रियासतें जाननी बहुत जरुरी हो जाती है इसी लिए आज का लेख बुन्देलखण्ड की रियासतों पर [निबंध] मध्य प्रदेश का इतिहास आधारित है |

प्रजा मण्डल की स्थापना 1565  में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ ही भारत में तेजी से राष्ट्रवादी भावनाओं का प्रसार हुआ। अंग्रेज़ों की सहयोगी रियासतों के राजा अपनी प्रजा के साथ निरंकुशता का व्यवहार करते थे। अतः रियासती की जनता में भी स्वाधीनता की लहर जाग्रत हुई। यह जन असंतोष गवर्नर-जनरल लॉर्ड लिटन के समय तेजी से उभरा। लिटन ने इसे दबाने हेतु रियासतों के राजाओं को अंग्रेजों के पक्ष में करने की नीति अपनाना आरम्भ की।

बुन्देलखण्ड की रियासतों के सिद्धांत:-

अंग्रेज़ों द्वारा अब ऐसे प्रयास किए जाने लगे ताकि रियासतों के राजा उनके पक्ष में रहे। इसी क्रम में 1905 में भारत के प्रधान सेनापति लॉर्ड किचनर ने बुन्देलखण्ड में नौगांव छावनी में मिलिटरी स्कूल (किचनर कॉलेज) आरम्भ किया। इसके निम्न उद्देश्य थे-

  • बुन्देलखण्ड की रियासतों के राजाओं एवं जागीरदारों के पुत्रों को सैन्य शिक्षा प्राप्त करने हेतु आकर्षित करना।
  • बुन्देलखण्ड के राजाओं को ब्रिटिश प्रशासन एवं सैन्य व्यवस्था के नजदीक लाना।
  • प्रशासन में उनका सक्रिय सहयोग प्राप्त करना ।

1916 में श्रीमती एनी बेसेण्ट एवं बालगंगाधर तिलक ने होमरूल आन्दोलन चलाया, इससे ब्रिटिश सरकार चिन्तित हुई। अब देशी रियासतों को अपना पक्का सहयोगी बनाने के उद्देश्य से माण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों में “नरेन्द्र मण्डल” की स्थापना का सुझाव प्रस्तुत हुआ इस योजना के तहत फरवरी में हुयी

बुन्देलखण्ड की रियासतों को जानने से पहले चेम्बर ऑफ प्रिंसेस के बारे में जानना जरुरी:-

1921 में दिल्ली में नरेन्द्र मण्डल (चेम्बर ऑफ प्रिंसेस) की स्थापना हुई। इसमें 121 राजाओं ने सदस्यता ली। डॉ. काशी प्रसाद त्रिपाठी ने दिया है कि नरेन्द्र मण्डल की स्थापना को लेकर प्रथम बैठक 1 नवम्बर 1916 को हुई थी। इसमें 40 राजाओं ने भाग लिया था। इसमें बुन्देलखण्ड की ओरछा एवं दतिया रियासत के राजा भी सम्मिलित हुए थे।

देशी राज्यों एवं ब्रिटिश सत्ता के बीच घनिष्ठता लाने के उद्देश्य से 1927 में बटलर कमेटी का गठन किया गया। बटलर कमेटी की सिफारिशों के अनुसार ही 1935 में नवीन ढंग पर भारतीय संघ की रचना की गई। इस संघ का निर्माण ब्रिटिश राज्य एवं देशी रियासतों को मिलाकर किया गया था। बुन्देलखण्ड की रियासतों में राष्ट्रीय चेतना

भारतीय रियासतों पर धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार अपना शिकंजा कसती जा रही थी। अधिकांश रियासतों के राजा कमजोर थे। आपसी वैमनस्य के कारण वे एकजुट न होकर अलग-थलग थे। इसी कारण उन पर ब्रिटिश शिकंजा कस रहा था। उन्हें ब्रिटिश सत्ता की सर्वोच्चता कबूल करनी पड़ी। ब्रिटिश सरकार से बदले में इन्हें आन्तरिक एवं बाह्य खतरों से सुरक्षा की गारण्टी तो मिली, मगर इनके आन्तरिक मामलों में ब्रिटिश हस्तक्षेप धीरे-धीरे बढ़ता ही गया। इस प्रकार बिना युद्ध किए ही ब्रिटिश सरकार ने रियासतों के अधीन भारत के 45 प्रतिशत क्षेत्र एवं 24 प्रतिशत जनसंख्या पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया।

अधिकांश रियासतों के राजा निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी थे। यह रियासतें इसी कारण सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी हुई थीं। राजा-महाराजा अपनी विलासिता के लिए राजकोष का मनमाना इस्तेमाल करते थे। इसकी पूर्ति प्रजा पर मनमाने कर लगाकर की जाती थी। भू-राजस्व कर अत्यधिक था। जनता कर के बोझ से कराह रही थी। श्री भागीरथ शर्मा द्वारा सृजित यह लोकगीत जनता की कराह का सटीक वर्णन करता है|

बुन्देलखण्ड की रियासतों के गीत तथा भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना की स्थापना:-

बुन्देलखण्ड की जनता रोवै, भये राजा अत्याचारी। अंग्रेजन के गुलाम राजा, तिनके हम गुलाम भारी।। सत्ताईस कर हमरे सर पर, कैसे चुकत चकाये से। है बेकारी कर्जा भारी, सूत पै सूत लगाये से।

रियासतों में प्रजा मण्डल की स्थापना भारत स्थित ब्रिटिश सत्ता एवं रियासतों के मध्य की पनिष्ठता का असर रियासतों की आम जनता पर पड़ा। वह राज्य के अन्दर राज्य के बोझ त कर कराह उठी। 28 दिसम्बर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना से रियासती प्रजा के अन्दर भी राष्ट्रवादी भावनाएँ जाग्रत हुई। रियासती प्रजा का दर्द यह था कि काँग्रेस ने अपने प्रारम्भिक 35 वर्षों तक रियासती समस्याओं को अपनी कार्य सीमा से बाहर रखा। रियासती जनता को अपना आन्दोलन स्वयं चलाना पड़ा।

रियासती कार्यकर्ताओं ने अपने त्याग, बलिदान एवं आन्दोलनकारी स्वभाव से अन्ततः कॉंग्रेस का ध्यान आकर्षित किया। वल्लभभाई पटेल, डॉ. पट्टाभि सीतारमैया एवं जवाहरलाल नेहरू ने रियासती समस्याओं में रूचि ली। 1918 के कॉंग्रेस के नागपुर अधिवेशन में यह प्रावधान लाया गया कि रियासती जनता जिला काँग्रेस समितियों के रूप में सम्मिलित हो सकती है। 1920 के गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन ने रियासती जनता में न केवल राष्ट्रीय चेतना अपितु एक नवीन स्फूर्ति का भी संचार किया|

बटलर कमेटी का गठन:-

1921 में यदि एक ओर बटलर कमेटी का गठन हुआ तो दूसरी ओर रियासतों की जनता ने अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की स्थापना की। इसका प्रथम अधिवेशन कॉंग्रेस के प्रथम अधिवेशन स्थल बम्बई में ही 1927 में हुआ। इसमें देशी रियासतों के 800 से भी अधिक प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। इसमें देशी रियासतों के राजाओं के दुराचार, ब्रिटिश सरकार की दूषित नीति एवं रियासतों में सुधार की सम्भावनाओं पर विचार-विमर्श हुआ। इस परिषद् को गाँधीजी का आशीर्वाद प्राप्त था। रियासती राजाओं ने इस परिषद् को कॉंग्रेस का रियासती भाग करार दिया एक उन्होंने इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया

बुन्देलखण्ड की रियासतों में राष्ट्रवाद की बयार बहने लगी। छतरपुर रियासत के रामसहाय तिवारी एवं अन्य कार्यकर्ताओं ने स्वदेशी आन्दोलन में भाग लिया। 1923 से 1928 तक आर्यसमाज द्वारा यहाँ खादी प्रचार एवं अछूतोद्धार आदि कार्य सम्पन्न किए।

बुन्देलखण्ड भारत में चल रहे क्रान्तिकारी आन्दोलन से भी अछूता नहीं हा महान् क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद काकोरी ट्रेन काण्ड के पश्चात् गिरफ्तारी से बचने के लिए भागकर झाँसी आए और मास्टर रुद्रनारायण के यहाँ सुरक्षित रहे। ओरछा रियासत में सतारा नदी के तट पर कुटिश बनाकर वे हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से रहे। यह क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र बन गई बुन्देलखण्ड में अज्ञातवास के रूप रहने का कारण चन्द्रशेखर आज़ाद ने यह बताया कि. कुटिया बुन्देलखण्ड में विश्व के सबसे बड़े क्रान्तिकारी राम अयोध्या से आकर यहाँ ठहरे थे, इसके अतिरिक्त बुन्देलखण्ड की यह भूमि अनादिकाल से साधना की भूमि रही है जिसमें मैं भी साधना करने आया हूँ ।

बुन्देलखण्ड में चन्द्रशेखर आज़ाद, मास्टर रुद्रनारायण का इतिहास:-

इस प्रकार बुन्देलखण्ड की रियासतों में तेजी से आन्दोलन की हवा प्रवाहित होने लगी। उधर टीकमगढ़ रियासत का कुण्डेश्वर भी क्रान्तिकारी आन्दोलन का गढ़ बन गया। अब बुन्देलखण्ड में इन क्रान्तिकारियों के दमन हेतु ब्रिटिश शासन ने अपना दमन चक्र भी चलाया। रामसहाय तिवारी चन्द्रशेखर आज़ाद के सम्पर्क में आए और एक प्रमुख क्रान्तिकारी बन गए। 1929 में उन्हें छतरपुर रियासत द्वारा छः माह की सजा दी गई। चरखारी, छतरपुर, लुगासी, टीकमगढ़ एवं हमीरपुर आदि रियासतों में उन पर अनेक मुकदमे चलाए गए।

राजाओं के अत्याचारों से लड़ने हेतु आन्दोलन चलाने एक संगठन बना, रंगोली के कुँवर हीरासिंह सभापति एवं पं. रामसहाय तिवारी मन्त्री चुने गए। 1930 में छतरपुर के चरण पादुका नामक स्थान पर एक सभा आयोजित की गई। सरकार से असहयोग करना अर्थात् माँग पूर्ण न होने तक कर न देना सभा का मुख्य विषय था ।

आन्दोलन समाप्त करने के लिए अंग्रेज़ों ने रियासती राजाओं की शान्ति परिषद् गठित कराई। इसके अध्यक्ष पन्ना नरेश बने। नौगाँव छावनी स्थित पॉलिटिकल एजेण्ट कर्नल फिशर भी आन्दोलन की तीव्रता को देखकर चिन्तित था। एजेण्ट टू गवर्नर-जनरल इन्दौर (ए.जी.जी.) से बुन्देलखण्ड के आन्दोलनकारी अपनी समस्याओं को लेकर 4 जनवरी 1931 को मिले। मगर उसकी अहंकार भरी बातों को सुनकर आन्दोलनकारी और भड़क उठे। अब स्पष्ट हो गया कि शान्ति सम्भव नहीं जिस प्रकार जालियाँवाला बाग में वैशाखी का मेला लगता है, ठीक उसी प्रकार 14 जनवरी मकर संक्रान्ति पर प्रतिवर्ष चरण पादुका  मेला लगता था। 14 जनवरी 1931 को भी प्रतिवर्ष की भाँति मेला लगा।

बुन्देलखण्ड की रियासतों की जनता इस बार ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों का विरोध करने हेतु एक बहुत विशाल प्रदर्शन करने जा रही थी। इस विशाल सभा के सभापति सरजू दौआ एवं मन्त्री लल्लूराम थे। सभा चल ही रही थी कि ठीक उसी समय चौदह-पन्द्रह बस आई जिसमें भारी फौज थी। फौज़ ने सभा स्थल को चारों ओर से घेर लिया। फौज ने सभा समाप्त करने एवं मंच खाली करने हेतु कहा। वहाँ उपस्थित साठ-सत्तर हजार जनता तनिक भी विचलित नहीं हुई। मंच खाली किया न सभा समाप्त की। यह कर्नल फिशर को बर्दाश्त नहीं हुआ।

पॉलिटिकल एजेण्ट फिशर के आदेश पर फौज़ ने मशीनगनों से गोली चलाना आरम्भ कर दिया। एकदम भगदड़ मच गई। सरकारी आँकड़ों के अनुसार 21 लोग मारे गए, 26 घायल हुए। चोटें तो कई लोगों को आई। मरने वालों में सेठ सुन्दरलाल ददरया (गिलौंहा), चिरकूमांतो (गोण्डा), धर्मदास मातो (खिरवा), रामलाल मातो (गोआ), एवं रघुराज सिंह (कटिया) सहित कई लोग थे। यही नहीं 21 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया। जिनमें से सूरज दौआ को 4 वर्ष का एवं शेष 20 लोगों को 3 वर्ष के कारावास की सजा दी गई। समूचा बुन्देलखण्ड इस घटना से स्तब्ध रह गया। इतिहासकारों ने इसे जालियाँवाला हत्याकाण्ड की संज्ञा दी।

प्रजा मण्डल अंग्रेजों ने अपनी सत्ता को मजबूती देने हेतु नरेन्द्र मण्डल की स्थापना की। इसका सामना करने हेतु रियासतों की जनता ने प्रजा मण्डल की स्थापना की। सर्वप्रथम बड़ौदा में प्रजा मण्डल की स्थापना हुई। चरण पादुका हत्याकाण्ड के पश्चात् बुन्देलखण्ड की रियासतों में राजाओं के साथ-साथ ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भी आक्रोश की भावनाएँ बलवती हुई। 1939 ई. में विभिन्न कार्यकर्ताओं ने जन-जागृति आन्दोलन प्रारम्भ कर बुन्देलखण्ड में जा-मण्डल सरकार की स्थापना की माँग की। इस माँग को करने वाल प्रमुख व्यक्ति निम्न थे
  • समर में पं. प्रेमनारायण तिवारी
  • जैन
  • बोट में हल्केराम
  • अलीपुर में विश्वनाथ अग्रवाल
  • गरौली में बहादुर सिंह गौना
  • लुगासी में महादेव प्रसाद तिवारी
  • छतरपुर में पं. रामसहाय तिवारी चरखारी में मगरोठ वाले दीवान शत्रुघ्न सिंह एवं कालकाप्रसाद सक्सेना
  • सरीला में बिहारीलाल विश्वकर्मा
  • गौरिहार में रघुनाथसिंह एवं शम्भूदयाल दुबे

इन लोगों की माँग रंग लाई और बुन्देलखण्ड की रियासतों में धौना-लुहारी गोली काण्ड प्रजा मण्डल सरकार की स्थापना को और अधिक बल मिला।

प्रजा मण्डलों की स्थापना का सिलसिला आरम्भ हो गया। बुन्देलखण्ड, चरण पादुका हत्याकाण्ड की विभीषिका से अभी उबर भी नहीं पाया था और यहाँ थौना-लुहारी गोली काण्ड सम्पन्न हो गया। इससे मकर संक्रान्ति के अवसर पर 14 जनवरी 1939 को मऊ के मेले में टीकमगढ़ रियासत के सभी कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई। इस बैठक में ओरछा रियासत में स्वतन्त्रता आन्दोलन विधिवत ढंग से संचालित करने की योजना निर्मित की गई। इसके तहत थौना (तहसील निवाडी में स्वतन्त्रता संग्राम छेड़ने का निश्चय किया गया। 30 जनवरी 1939 को रियासत के प्रमुख नेताओं ने चुनौती दी कि वे 8 फरवरी 1939 को थौना में झण्डा फहराकर आन्दोलन करेंगे। ओरछा रियासत ने इस चुनौती का सामना करने फौज़ को थौना बुलवा लिया।

पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अन्तर्गत 8 फरवरी को कार्यकर्ताओं का समूह बाजार से झण्डा फहराते हुए निकला। अंग्रेज़ एवं ओरछा रियासत के खिलाफ नारेबाजी की। फौज ने इसलिए कोई कार्यवाही नहीं की क्योंकि उभय था कि दमन करने पर फौज़ को भी नुकसान पहुंच सकता है। सत्याग्रहियों ने सफलतापूर्वक झण्डा फहराया एवं अपनी सभा सम्पन्न की। बीना से वे लुहारी आ गए। वापसी के समय जबकि लोग निश्चित होकर लौट रहे थे तभी फौज़ ने गोलियाँ चलाकर उन्हें भयभीत किया। साथ ही उनकी पिटाई भी की। अनेक व्यक्ति चोटग्रस्त हुए। इस चीना-लुहारी गोली काण्ड की चारों ओर तीव्र भर्त्सना हुई। इसकी जाँच हेतु कॉंग्रेस की ओर से श्यामलाल साहू जांच अधिकारियों के पास गए। पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी इस काण्ड के लिए ओरछा रियासत की भर्त्सना की।

ओरछा प्रजा मण्डल जवाहरलाल नेहरू की बातों का ओरछा नरेश महाराजा वीरसिंह देव द्वि तीय (1930-56) पर गहरा असर हुआ। अपने 40वें जन्म दिवस समारोह के अवसर पर उन्होंने 15 अप्रैल 1939 को जन-चेतना के अनुरूप राज्य मैं धारा सभा एवं प्रजा मण्डल स्थापित करने की घोषणा की। उन्होंने कहा टीकमगढ़ राजधानी में समस्त राज्य के लिए एक “ओरछा प्रजा-मण्डल” की शीघ्र ही स्थापना की जाएगी। प्रत्येक टप्पा प्रजामण्डल का निर्वाचित सभापति इस ओरछा प्रजा मण्डल का सदस्य होगा। कुछ सदस्य राज्य की ओर से नामांकित होंगे परन्तु बाहुल्य निर्वाचित सदस्यों का होगा।

यह ओरछा प्रजा मण्डल एक सलाहकारी संस्था के रूप में कार्य करेगा। जैसे- जैसे यह प्रजा मण्डल अपनी कार्य कुशलता एवं योग्यता का परिचय देगा उसी के अनुरूप इसके अधिकारों में वृद्धि की जाएगी। साथ ही एक राज्य परिषद् की भी स्थापना की जाएगी, जो कि अपर हाउस होगी। ओर नरेश की यह घोषणा अत्यन्त आश्चर्यजनक थी। एक ओर विभिन्न रियासतों के राजा निरंकुशतापूर्ण व्यवहार कर रहे थे, लोगों को न तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता थी और न ही प्रेस की। ऐसे में ओरछा नरेश की यह घोषणा एक प्रगतिशील कदम थी। यही कारण है कि कुछ दिनों ने ओरछा नरेश वीरसिंह देव द्वितीय को देशभक्त की संज्ञा दी है।

15 अप्रैल 1939 की घोषणा के अनुरूप 23 अक्टूबर 1939 को ओरछा रिक्स में निम्न तीन संस्थाएँ निर्मित की गई:-

1. टप्पा प्रजामण्डल रियासत के प्रमुख ग्रामों में इक्कीस टप्पा प्रजा मण्डल स्थापित किए गए। वस्तुतः पुरानी ग्राम पंचायतों के स्थान पर ये टप्पा प्रजा मण्डल स्थापित किए गए थे। इसके सभी सदस्य प्रजा द्वारा चुने जाते थे। इन्हें दीवानी एवं फौजदारी दी गयी | अधिकारों के साथ-साथ जंगल, कांजी हाउस (पशुओं के लिए) एवं ग्रामीण शिक्षण का प्रबन्ध सौंपा गया।

2. ओरछा प्रजा मण्डल : ओरछा प्रजा मण्डल में मण्डलाधिकारी के अतिरिक्त 33 सदस्य थे। इसमें से 21 सदस्य टप्पा प्रजामण्डलों के निर्वाचित सभापति थे। शेष 12 सदस्य राज्य द्वारा नामांकित किए गए। ओरछा प्रजा मण्डल का कार्य राज्य हेतु कानून निर्माण था।

3. राज्य परिषद् : रियासत के अपर हाउस के रूप में राज्य परिषद् 4 की स्थापना की गई। इसमें 1 सभापति, 6 सरकारी, 4 गैर-सरकारी नामांकित सदस्य एवं एक गैर-सरकारी निर्वाचित सदस्य होता था। ओरछा प्रजा मण्डल एवं राज्य परिषद् को मिलाकर धारा सभा बनती थी।

टप्पा प्रजा मण्डल का प्रथम चुनाव 10 से 20 सितम्बर 1939 के बीच हुआ। चुनाव में लगभग 50,000 निर्वाचकों ने भाग लिया जिसमें 2,000 तो महिलाएं ही थीं। इन चुनावों में एक स्त्री भी निर्वाचित हुई और प्रजा-मण्डल एवं राज्य परिषद् का उद्घाटन 13 अक्टूबर 1939 को ओरा नरेश द्वारा किया गया। मार्च 1940 से अक्टूबर 1940 के मध्य औरछा प्रजा मण्डल के अधिवेशन हुए। इन अधिवेशनों के माध्यम से जनता ने शासन संचालन में भागीदारी की।

सरीला प्रजा मण्डल:-

सरीला रियासत में भी 1939 ई. में जन-जागृति आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। इस समय महिपाल सिंह जू सरीला के शासक थे। जनता उनके अत्याचारों से अस्त थी। मार्च 1939 में सरीला में एक सभा हुई। इस सभा द्वारा जनता से बेगार लेने की प्रथा बन्द करने की माँग की गई। इस माँग से पित होकर राजा ने नन्नू सिंह, गिरधर महतो, एवं महादेव छिबोली को नौगांव जेल भेज दिया। इससे उत्तेजना फैली। जनता ने 1939 में बिहारीलाल जी के नेतृत्व में सरीला प्रजा मण्डल का गठन किया। इनके नेतृत्व में ही आन्दोलन चलाया गया।

देशी राज्य लोक परिषद् एवं प्रजा मण्डल:-

1927 ई. में श्री अमृतलाल सेठ एवं उनके सहयोगियों के परिश्रम से अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की स्थापना की गई। 1940 ई. में बुन्देलखण्ड सेवा संघ का सम्मेलन सेठ गोविन्ददास की अध्यक्षता में हरपालपुर में हुआ। इसमें देशी राज्य लोक परिषद् के मुख्य सचिव बनाया

कन्हैयालाल वैद्य आए। उन्होंने अनुरोध किया कि आप लोग देशी राज्य लोक परिषद् के तत्वाधान में अपनी-अपनी रियासतों में प्रजा मण्डल की स्थापना करें। इसी के माध्यम से हम जन-आन्दोलन संचालित करेंगे।  कन्हैयालाल वैद्य का विचार बुन्देलखण्ड के प्रतिनिधियों को पसन्द आया । इसके तहत सर्वप्रथम छतरपुर एवं समथर रियासत में प्रजा मण्डल की स्थापना हुई। 1944 में अलीपुरा रियासत में भी लोक परिषद् की सम्बद्धता में प्रजा मण्डल का गठन हुआ। 1945 में श्री रामचन्द्र जैन ने खनिया थाना में प्रजा मण्डल की स्थापना की। 1945-46 में अजयगढ़ रियासत में जगन्नाथ प्रसाद मिश्र ने प्रजा मण्डल का गठन किया।

दतिया प्रजा मण्डल:-

पानीसिंह की मृत्यु के पश्चात् गोविन्द सिंह (1907-52) दतिया रियासत के राजा बने। सुरासुन्दरी एवं शिकार में उनका जीवन व्यतीत होता था। प्रजा पर अत्याचार एवं ब्रिटिश राजभक्ति उनका जीवन था। उन्होंने 1908 में प्रिंस ऑफ वेल्स के इन्दौर दरबार, 1911 के दिल्ली दरबार, एवं 1916 में लॉर्ड चेम्सफोर्ड के नरेश मण्डल में भाग लिया था। उनकी नीतियों के कारण रियासत के दीवान निरन्तर बदलते रहे। उनके दीवानों में श्री काजीजी, कालिका प्रसाद सक्सेना, कुं देवीसिंह एवं नईमउद्दीन का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। गामा पहलवान इन्हीं के काल का था ।

सन् 1937 से 1939 के मध्य रणमतसिंह परिहार
, रामचरण लाल वर्मा, रामकृष्ण वर्मा, एवं नारायण दास ने दतिया की निरंकुश हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलन्द की । भूतपूर्व दीवान कालिका प्रसाद सक्सेना ने भी इनका साथ दिया। इसके परिणामस्वरूप 1945 में दतिया प्रजा मण्डल की स्थापना हुई। इसके अध्यक्ष रामचरण लाल वर्मा एवं उपाध्यक्ष कालका प्रसाद सक्सेना बने। इसका अधिवेशन 1946 में बीकर में हुआ जिसमें महाराजा से उत्तरदायी शासन की माँग की गई।

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