घरों की चार दीवारी और पर्दों के पीछे रहने वाली ऐसी भी कई वतन प्रेमी महिलाएं हुई, जिनके दिलों में अपने वतन का प्यार पलता था। वतन से मुहब्बत के कारण उन्होंने न तो अपने सुहाग की परवाह की और न ही ममता भरे दिलों का ख़याल रखा। देश की आबरू पर उन्होंने कभी अपने सुहाग की बाज़ी लगाई, तो कभी अपनी आरजुओं को आज़ादी के लिए परवान चढ़ाया आज के इस लेख में आबादी बानो बेगम [बी अम्मा] के बारे में है |
आबादी बानो बेगम [बी अम्मा] का जन्म:-
यह हिन्दुस्तान की उन औरतों में से एक वतन प्रेमी ख़ातून थीं, जिसने देश पर कुर्बान होने के लिए अपने बेटों का हौसला बढ़ाया। वह अमरोहा ज़िला मुरादाबाद में 1852 के लगभग पैदा हुई। उनके परिवार के अधिकांश बुजुर्ग पढ़े लिखे थे। उस समय मुगलिया शहंशाहियत धीरे धीरे पतन (ज़वाल) की ओर बढ़ रही थी। आबादी बानो के बुज़ुर्ग मुग़लिया दरबारों में बड़े ओहदों पर नौकरियां करते रहे। समय के साथ हालात में भी परिवर्तन आता गया। मुगलिया सल्तनत अपना उत्थान (उरूज) खोती जा रही थी। उनके क़रीबी लोग हालात का अन्दाज़ा लगा कर अपनी-अपनी राह पकड़ रहे थे।
आबादी बानो क पूर्वज भी वहां से निकल कर अमरोहा में ही आ कर रहने लगे। उन्होंने समझ आने तक का जमाना अमरोहा में अपने मायके वाले परिवार के साथ ही गुजारा उनके वालिद शेख मुजफर अली, बल्द शैख गुलाम मौला शेख शम्सुद्दीन वर्वेश अली खां थे। उनके बुजुर्गों ने 1857 के स्वतन्त्रता संघर्ष के समय फिरंगियों को बहुत नुकसान पहुंचाया था। बहुत से अंग्रेजों को मौत के घाट भी उतारा। जब वह वक्त निकल गया तो अंग्रेजों ने बदले की भावना से उन पर जुल्म व सितम के पहाड़ तोड़ना शुरू कर दिये।
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आबादी बानो बेगम [बी अम्मा] के चाचा शेख बशारत अली को फांसी :-
चाचा शेख बशारत अली को फिरंगियों द्वारा फांसी पर लटका दिया गया, जब कि दूसरे चाचा शैख मेहरबान अली को बहुत ही बेदर्दी के साथ क़त्ल कर दिया गया। तीसरे चाचा दिलदार अली लापता हो गए। उनके वालिद अपना नाम बदल कर खामोशी से रहने लगे। इनकी परवरिश पुराने उसूलों के साथ ही हुई। वह शुरू से ही पर्दे में रहीं। उन्हें मज़हबी तालीम और घरेलू तरीके सिखाए गए। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई वह एक सलीक़ेमंद, समझदार लड़की बनती गई हालांकि उस ज़माने में रेडियो, टी.वी. आदि का चलन नहीं था, फिर भी घर के मर्दों और आने जाने वालों से हालात के चर्चे सुनाई दे जाते थे।
वह अपने देश पर फिरंगियों के नाजायज़ क़ब्ज़े और उनके अत्याचारों से भी वाक़िफ़ होती गई। कभी ब्रिटिश शासन की सख़्तियों और परेशानियों के बारे में तरह-तरह की घटनाएं सुनतीं, तो कभी आज़ादी के मतवालों के संघर्षों की जानकारी भी मिलती। अंग्रेज़ शासन के ज़ोर व ज़ुल्म को सुनकर वह दुखी हो जातीं तथा देशवासियों के किसी भी आन्दोलन की सफलता पर वह ख़ुश भी हो जाया करती थीं। इस तरह देश में चल रहे स्वतंत्रता के संघर्ष और आन्दोलनों की ख़बरों में वह शुरू से ही दिलचस्पी रखती थीं। धीरे-धीरे उनकी इस ओर रुचि बढ़ती गई। उनके दिल में भी देश और क़ौम के लिए कुछ करने का जज़्बा अन्दर ही अन्दर पनपने लगा |
उस दौर में आम महिलाओं के कुछ करने या न करने की सीमाएं थीं। कई तरह के बन्धन थे। इसी कारण आबादी बानो बेगम भी अपनी सीमाओं में रहते हुए मन ही मन देश के लिए सोचतीं और ख़ामोश रहती थीं। समय के अनुसार अन्य महिलाओं की तरह उनकी पढ़ाई भी घर में ही हुई। वह अक़लमंद, हौसले और हिम्मत वाली महिला थीं। स्वभाव से वह नर्म दिल, दूसरों की मदद करने और ख़ुदा की इबादत करने वाली थीं|
आबादी बानो बेगम [बी अम्मा] का निकाह( शादी):-
एक समय वह भी आया कि उनके पिता ने रामपुर में उनकी शादी मौलाना अली से कर दी। वह रियासत रामपुर में ही नौकरी करते थे। अब नए आकर कुछ समय के लिए उनकी सोच का रुख बदल गया। भर-पूर सुखी परिवार और उनके पति की उन पर जिम्मेदारियां आ गई। चूंकि वह एक होशियार और सलीकेमंद महिला थीं, उन्होंने कुछ समय में ही अपने पति और दुसराल वालों के दिल जीत लिए। यहां तक कि वह एक ‘मां’ भी बन गई। मौलाना अब्दुल अली के आबादी बानो बेगम से एक बेटी और पांच बेटे कुल छः औलादें हुदी दो बेटों का तो आरंभ में ही इन्तिकाल हो गया।
तीसरे बेटे कादियानी फ़िरक़े में शामिल हो कर अलग हो गए। अब दो बेटे मौलाना शौकत अली और मौलाना मुहम्मद अली जौहर अपनी मां के दुखिया दिल का सहारा व अरमान बने। दोनों ही भाई अली ब्रादरान कहलाए। आबादी बानो बेगम, मां बनने के बाद अपने बच्चों की जबानी पहले “बुआ” कहलाई। कुछ समय बाद “बी अम्मा” कहलाने लगीं। वह बुआ से जब बी अम्मा हुई तो सब में इसी नाम से मशहूर हो गई। लोग उनका असल नाम ही भूल गए।समय के साथ-साथ जीवन चक्र इसी तरह चलता रहा,1880 में हैज़े की बीमारी अचानक फैल गई।
उस समय उपलब्ध सभी इलाज किए गए। जैसे-जैसे समय गुज़रता रहा, बीमारी का प्रकोप बेकाबू होता गया। अधिकांश घरों में लोग जे की चपेट में आकर मौत का निवाला बन रहे थे। उनमें कुछ स्वस्थ भी हो रहे थे। इधर बी-अम्मा के पति मौलाना अब्दुल अली और उनके बड़े बेटे को भी हैजे की बीमारी ने पकड़ लिया। सब कुछ इलाज कराया गया, परन्तु अब्दुल अली की तबीयत में बजाए सुधार के बिगाड़ ही आता गया। बी-अम्मा ने अपने घर के दोनों ही मरीज़ों की बहुत सेवा की।
आबादी बानो बेगम [बी अम्मा] के पति मौलाना अब्दुल अली की बीमारी:-
इलाज भी बहुत किया लेकिन उनके प्रयास ज्यादा सफल नहीं हो सके। अब्दुल अली ख़तरनाक बीमारी के कारण बी-अम्मा को 1880 में 28 वर्ष की कम उम्र में ज़िम्मेदारियां सौंप इस दुनिया से चल बसे। इस दुख भरी घटना के कारण बी-अम्मा बहुत ज़्यादा दुखी हो गई, किन्तु उनके बच्चों और एक के बाद एक नई-नई ज़िम्मेदारियों ने उन्हें अकेलापन महसूस नहीं होने दिया। अपने पति के बाद वह बीमार बेटे की सेवा में पूरी तरह से लग गई। उन पर बच्चों के खानपान से लेकर उनकी तालीम और तरबियत की सभी जिम्मेदारियां आ गई। वह अकेली विधवा महिला हर तरह के हालात का मुकाबला करते हुए बच्चों की तालीम की ओर विशेष ध्यान देती रहीं। साथ ही उनके दिल में वतन और क़ौम की जो मुहब्बत थी, उसे भी अपने बच्चों में बांटती रहीं। उनका यह अरमान था कि उनके बच्चे बड़े होकर देश के काम आएं। आज़ादी के संघर्ष में भाग लेकर फिरंगियों से अपने मुल्क को आज़ाद कराने में सहयोग करें।
श्री. अम्मा ने मजहब के अनुसार अपने पर्दे की पाबंदी करते हुए की तालीम व तरबियत में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उन्होंने बड़े बेटे और बाद में शौकत अली को भी अंग्रेजी तालीम दिलाने के लिए घर से दूर बरेली भेज दिया एक प्रकार से अब वह अकेली ही पड़ गई। उन्होंने अपनी तनहाई की उतनी चिन्ता नहीं की. जितनी कि बच्चों को समय के अनुसार शिक्षित करने की फिक्र की। उन्होंने बच्चों का भविष्य बनाने के लिए अपने आराम और तकलीफ़ की परवाह नहीं की। उनके इस काम से समाज वाले खुश नहीं थे।
यहां तक कि बी-अम्मा के देवर ने, जो कि अपने भतीजों की जायदाद की देख रेख करते थे, दोनों भतीजों की पढ़ाई के खर्चे, स्कूल की फ़ीस आदि देने से इनकार कर दिया। बी-अम्मा ने इस पर भी हार नहीं मानी। उन्होंने बच्चों की पढ़ाई के लिए अपने ज़ेवर खामोशी से गिरवी रखवा दिये। उनके देवर को जब यह मालूम हुआ तो बी-अम्मा की जिद के आगे उन्होंने बच्चों की फ़ीस आदि अदा करनी शुरू कर दी। बी-अम्मा ने कम आमदनी होने पर भी अपने बच्चों के शौक़ पूरे किए।
आबादी बानो बेगम [बी अम्मा] की जिन्दगी के अनसुने किस्सों का इतिहास:-
उन्होंने स्वयं मोटे-झोटे साधारण कपडे पहने लेकिन बच्चों को क़ीमती कपड़े पहनाए। खुद रूखी-सूखी खाई परन्तु बच्चों के लिए अच्छे खानों का इन्तिज़ाम किया। इतिहास की पुस्तकों के अध्ययन से यह भी मालमू हुआ कि फुर्सत के समय वह अपने बच्चों का दिल बहलाने के लिए उन्हें कभी देश भक्तों के क़िस्से सुनातीं, तो कभी वतन सेवा के गीत गुनगुनाती। कभी देश को आज़ाद कराने के लिए उनकी भावनाएं उभारतीं, तो कभी देश पर क़ुर्बान होने वाले शहीदों की कहानियां बतातीं।
बी-अम्मा ने अपने बेटों के दिलों में वतन से मुहब्बत और क़ौम के लिए कुछ कर गुज़रने की भावनाएं जगाई। उनकी प्रेरणा से दोनों बेटों मुहम्मद अली और शौकत अली ने देश और क़ौम की सेवा के लिए ख़ुद को समर्पित कर दिया। मुहम्मद अली ने ख़िलाफ़त मूव्मेंट (तहरीक) द्वारा सेवा करने, देशवासियों में एकता बनाने और फ़िरंगी शासन की जड़ें हिलाने की कमान संभाली। उन्होंने “कामरेड” नामक अंग्रेजी साप्ताहिक अखबार निकालना शुरू किया। उसमें फ़िरंगी शासन के विरोध में लेख लिखे।
अंग्रेज़ी सरकार को यह बात बिल्कुल भी पसंद नहीं आई। इस कारण शासन ने उनके अख़बार को बंद करके अली ब्रादरान (मुहम्मद अली- शौकत अली) को जेल भेज दिया। उन दोनों भाइयों को इस जुर्म में पांच वर्षों की सज़ा सुनाई गई। बी-अम्मा को अपने बेटों के लम्बी अवधि के लिए जेल जाने का दुख तो था, फिर भी उन्हें यह सोच कर तसल्ली हो जाया करती थी कि यह सजा वह देश हित में झेल रहे हैं। क्योंकि देश हित में उन्हें कोई भी कुर्बानी बड़ी नहीं लगती थी। देश के लिए वह भी कह उठाने को तैयार रहती थी। ऐसी ही उम्मीद वह अपने बेटों और देशों से भी रखती थीं।
बी-अम्मा ने एक मौके पर अपने बेटों की नज़रबंदी के संबंध में कहा था-:
तकलीफ़ बर्दाश्त करने को चुनता है। बेटों के दिलों में वर्षों पूर्व उनके द्वारा देश सेवा का संजोया हुआ अरमान उन्हें पूरा होता नज़र आ रहा था। एक विधवा होने के नाते उन्होंने अपने दोनों बेटों के तक जेल में बंद रहने के कारण बहुत दुख उठाए, तकलीफे सहीं। इन्हीं कारणों से वह बीमार भी रहने लगी थीं।
बीमारी या जईफ्री में जब उन्हें अपने बेटों के सहारे की जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने उस समय में भी अपनी सेवा से ज्यादा देश की आजादी को महत्व दिया। उन्होंने अपने बेटों को अपनी सेवा के लिए घर पर नहीं रहने दिया, बल्कि देश सेवा के लिए उन्हें समर्पित कर दिया। बेटों का हौसला बढ़ाने के लिए वह स्वयं भी जगह-जगह के दौरे करती थीं। अब एक घरेलू महिला श्री अम्मा खुद भी अंग्रेजी सरकार के विरोध में मैदान में उत्तर आई थीं। वह मीटिंगों और जलसों में, जहां जैसी ज़रूरत होती, जाया करती थीं। वहां जा कर लोगों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हौसला और हिम्मत बंधातीं। आज़ादी की राह में संघर्ष करने वालों में अपनी बातों से जोश पैदा किया करती थीं।
ऐसी केवल उन लोगों के लिए ही है, जिन को अली ब्रादरान की माँ बी-अम्मा के जोश और वतन से मुहब्बत के जज्बे की शोहरत जगह-जगह हो चुकी थी, यहां तक कि उनको जलसों में बाकायदा बुलाया भी जाने लगा। वह बुलाए जाने पर ऐसे जलसों में शिरकत करने लगीं जो कि देश की आज़ादी से संबंधित हों।
इतिहास के पन्ने:-
30 दिसम्बर 1917 को कलकत्ता में मुस्लिम लीग द्वारा एक जलसे का आयोजन किया गया। उसमें बी-अम्मा को भी बुलाया गया। उन्होंने उस जलसे में शिरकत करके उसमें तक़रीर भी की। उनकी तक़रीर के एक- एक शब्द में वतन प्रेम की खुश्बू थी। उन्होंने यह बात साफ़ तौर से कही कि अपने वतन से वफ़ादारी के मुक़ाबले मैं अपनी औलाद की भी कोई हैसियत नहीं है। बी अम्मा द्वारा उस जलसे में की गई तक़रीर के एक हिस्से का सारांश पेश किया जा रहा है-.
यह संदेश न तो मझसे संबंधित है और न उन दो सेवकों से, जिनको खुदा ने अमानत के तौर से मुझे सौंपा है। जिन्होंने मेरी गोद में परवरिश पाई है। अगरचे. इस उम्र दराज़ बढ़ी औरत का जिस्म अब कमजोर हो गया है फिर भी मेरे दिल और दिल के अन्दर ईमान इतना भी कमज़ोर नहीं कि शौकत अली और अली को सच्चाई के रास्ते से एक क़दम भी बाहर जाने की इजाजत दें। इससे मुहम्मद पहले कि वे सच्चाई के रास्ते से हटें, मैं अपने इन्ही बूढ़े हाथों से उनका गला घोंट दूंगी। मेरा दिल ग़मज़दा होते हुए भी आज इस जगह अपने हिन्दू मुस्लिम भाइयों और अज़ीज़ों को देख कर उसमें ख़ुशी की लहर उठती है। मगर वह लहर शिकवा-शिकायत से पाक है।
बी-अम्मा अपने देश हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए अपने मन में बड़े अरमान संजोए हुए थीं। जब कभी वह किसी जलसे में तक़रीर करतीं या देश के किसी अभियान के लिए निकलतीं तो वह बहुत भावुक हो जाया करतीं थीं। एक जलसे में बी-अम्मा ने अपनी तक़रीर में बहुत ही अरमान भरे अन्दाज में कहा था-
“मैंने, लाल क़िले से अपना झंडा उतरता हुआ देखा है। अब मेरी वह तमन्ना है कि इन्ही आंखों से विदेशी झंडा भी उतरते हुए देखूं। 198 बी अम्मा की प्रत्येक गतिविधि से ऐसा लगता था कि सम्पूर्ण भारत देश उनका घर है और सभी देशवासी उनके परिवार के सदस्य हैं। उन्हें अपने बेटों से जितना प्यार था उतना ही वह देश के अन्य नौजवानों के लिए भी अपने दिल में दर्द रखती थीं। फ़िरंगी शासन के दमन चक्र की लपेट में जब भी देश का कोई नौजवान आता बी-अम्मा बेचैन हो जाया करती थीं। इतिहास के पन्नों में इसका खुला हुआ उदाहरण “होम रूल आन्दोलन” (Indian Home Rule movement) है।
उस समय भी बी-अम्मा के दोनों बेटे मुहम्मद अली, शौकत अली नज़रबंद थे। उनकी नज़रबंदी के कारण ज़ईफ़ अकेली बी-अम्मा कई तरह की परेशानियों का सामना कर रही थीं। फ़िरंगी शासन द्वारा देश के अन्य नौजवान भी नज़रबंद कर दिए गए। देश के उन नौजवानों के लिए बी-अम्मा का दिल तड़प उठा। उन्होंने अपनी तकलीफ़ों के मुक़ाबले में अन्य नज़रबंद नौजवानों के परिवारों की परेशानियों को अपने से ज़्यादा ज़रूरत मंद समझा। उनके जज़्बात भड़क उठे। 1917 में उन्होंने सर सुब्रह्मणियम अय्यर को एक ख़त लिखा कि-“मेरे बेटे मुहम्मद अली और शौकत अली जवान और स्वस्थ हैं। पूरे देश में उनके इतने दोस्त हैं कि वह जिस तरह की भी मदद चाहें उन्हें मिल सकती है। हालांकि अपने मतलब की ख़ातिर उन्होंने किसी के सामने कभी हाथ नहीं फैलाए। मेरा ममता भरा दिल देश के उन सैकड़ों बहादुर नौजवानों के लिए ख़ून के आंसू बहा रहा है जो कि बग़ैर किसी सुनवाई के बंद कर दिए गए हैं|
आबादी बानो बेगम [बी अम्मा] दर्द भरी दांस्ता:-
मेरे देश के उन मासूम नौजवानों की नज़रबंदी के कारण उनके परिवार रोटी-रोज़ी से महरूम कर दिए गए हैं। 199 देश की आज़ादी के संघर्ष में बी-अम्मा ने अपनी बहू अमजदी बेगम (पत्नी मुहम्मद अली जौहर) को भी साथ लेकर दौरे किए। उनके प्रयासों से हिन्द-मुस्लिम एकता और आज़ादी की भावनाओं की ऐसी लहर दौड़ी जिसने देशवासियों के जज्बात को जगा दिया। उन्होंने “खिलाफ़त मूमेंट” और “असहयोग आन्दोलन” द्वारा जंगे आज़ादी में भाग लेने के लिए देश की महिलाओं को भी तैयार किया। नौजवानों को ललकारा, बूढ़ों को जगाया। वह सदैव आपसी भाई-चारा और एकता में विश्वास रखती थीं।
1924 में हिन्दओं और मुसलमानों के बीच किन्हीं कारणों से टकराव पैदा हुआ तो बी-अम्मा ने उसे आज़ादी के संघर्ष के लिए बड़ा नुक़सान माना। वह घर मैं चैन से नहीं बैठीं। वह प्रभावित क्षेत्रों में गई। दोनों ही पक्षों को समझाया कि आपसी टकराव न केवल हमें कमज़ोर कर देगा, बल्कि गुलामी से छुटकारा दिलाने में भी बाधक बनेगा। उन्होंने महिलाओं को उनके कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक किया। उन्हें भी जंगे आज़ादी में पुरुषों का सहयोग करने के लिए तैयार किया। यहां तक कि उन्होंने स्वराज की पैरवी की। उन्होंने कहा कि हम स्वराज लेकर रहेंगे। स्वराज प्राप्ति के आन्दोलन में हम सभी देशवासी उस समय तक संघर्ष करेंगे|
जब तक हमारी रगों में ख़ून दौड़ रहा है, जब तक हमारे बाज़ुओं में ताक़त बाक़ी है, जब तक हमारे दिलों में धड़कनें मौजूद हैं। उन्होंने हिन्दू-मुसलमान सभी महिलाओं को विदेशी सामान का बायकाट करने और गर्व के साथ खादी पहनने का भी आह्वान किया। बी-अम्मा ने 1921 में मुम्बई में तक़रीर करते हुए कहा था-
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इस वक़्त हिन्दू और मुसलमान दोनों ही तंग आ चुके हैं। हमारा दुश्मन न तो हमारे देश को आज़ाद कर रहा है और न ही देशवासियों पर अत्याचार बंद कर रहा है। इसलिए इस समय ज़रूरत इस बात की है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही एकता के साथ मिलजुल कर रहें। खादी का उपयोग करें। उन्होंने दर्द भरे अन्दाज़ में कहा— मेरे भाईयो! सीधे रास्ते पर चलो। अपने मुल्क के सिपाही बन जाओ, बहादुर बन जाओ। ख़ुदा तुम्हें इज्जत बख्श |
“यंग इंडिया” गांधी जी द्वारा 1919 से 1931 तक प्रकाशित अंग्रेज़ी में साप्ताहिक पत्रिका थी। “यंग इंडिया” में बी-अम्मा के संबंध में गांधी जी का एक कथन इस प्रकार है-
बी अम्मा बूढ़ी हो गई थीं फिर भी उनमें नौजवानों जैसी ताकत थी। उन्होंने खिलाफ़त और स्वराज प्राप्ति के लिए लगातार सफर किए वह पूरी तरह मजहब इस्लाम की मानने वाली थीं। वह हिन्दुस्तान की आज़ादी और इस्लाम पर अमल को एक दूसरे के लिए जरूरी समझती थीं। उनके नजदीक खादी और उन्होंने अथक प्रयास किए, जो कि उनके नज़दीक ईमान का एक हिस्सा बा
बी-अम्मा एक महिला थीं, मगर देश की आज़ादी के संघर्ष में वह किसी मर्द से कम नहीं थीं। उन्होंने आजादी के आन्दोलनों को जारी रखने के लिए देशवासियों से बड़ी संख्या में चन्दा वसूल करके राष्ट्रीय कोष में जमा किया 1923 में मौलाना शौकत अली की जेल से रिहाई के बाद बी अम्मा ने देशवासियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए दर-दर के कई सफ़र किए। अलग-अलग जगहों पर उनकी तक़रीरें भी हुई। जिसमें सभी समुदाय के लोगों ने शिरकत की। उनकी की और कमजोरी की वजह से बेटे शौकत अली ने उन्हें ज्यादा काम करने से उन्होंने बी अम्मा से कहा कि अब हम लोग जेल से रिहा हो कर आ गए हो हम पूरी ताक़त से देश के लिए काम करेंगे। आप इस हालत में सफ़र न करो आप अपने बेटों पर भरोसा कीजिए,
हम अपने वतन हिन्दुस्तान और मज़हब की खिदमत करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उनको यह सलाह पसंद नहीं आई। उन्होंने अपने शौकत अली से कहा कि बेटा क्या तुम नहीं चाहते कि यह बुढ़िया तुम्हारे मुल्क की खिदमत करे। ऐसा मुझसे कभी नहीं हो सकेगा कि मैं घर पर पड़ी और अपने मुल्क व मज़हब की खिदमत न करूंप बहादर
बी-अम्मा ने देश के विभिन्न स्थानों के दौरे करके एकता और आजादी क संदेश दिया। आन्दोलनों में हिस्सा लिया। खिलाफत मूमेंट पर जोर दिया और ख़िलाफ़त पर जान लुटा देने की अपने बेटों को सलाह दी। अपनी उम्र के अंतिम समय में भी उन्होंने बेटे शौकत अली के साथ सिन्ध का दौरा किया। मेरठ में आयोजित कान्फ्रेंस में पहुंचीं। वहां से अलीगढ़ गई। इसी बीच कमजोरी के कार उनका स्वास्थ कभी ठीक और कभी ख़राब चलता रहा। अंत में रामपुर पहुंच ग वहां पहुंच कर उनकी तबीयत ज्यादा बिगड़ गई।
उन्हें दिल्ली लाया गया, जहां डा मुख्तार अहमद अंसारी ने इलाज शुरू किया, परन्तु हालत क़ाबू से बाहर होती गई। हिन्दुस्तान की वह बहादुर महिला जिसने वतन प्रेम के जज्बे और हिम्मत से जीवन भर आज़ादी के परचम को थामे रखा, जिसने देश सेवा, समाज सेवा, आपसी एकता और भाई-चारे के लिए ज़िंदगी भर संघर्ष करके अपने आप को थका का चूर कर दिया लिए|
आबादी बानो बेगम [बी अम्मा] की जिन्दगी का आधिरी दिन :-
13 नवम्बर 1924 को मौत ने अपने आंचल में समेट कर सुला लिया। अली ब्रादरान की मां, देश भर की बी अम्मा, आजादी की दीवानी, मुस्लिम एकता की सच्ची प्रतीक, महिला समाज का गर्व और भारत का गौरव अपने ही देश की धरती में सदैव के लिए समा गया। उनके इन्तिकाल की खबर सुनते ही चारों ओर मातम छा गया। हर तरफ़ फैला हुआ सन्नाटा बी-अम्मा की बाल की आहट सुनने के लिए कान लगाए हुए था। कोई खिलाफ़त तहरीक की हिमायत में उनकी आवाज सुनने का मुन्तज़िर था, तो कोई असहयोग आन्दोलन में उनके आह्वान की ललकार के इन्तिज़ार में था। किसी के कानों में उनकी स्वराज प्राप्ति की सदा गूंज रही थी तो कोई हिन्दू-मुस्लिम एकता पर उनकी हिदायतें याद करके रामज़दा था। बी अम्मा की नर्म और नाजुक आवाज़ में कोई कह रहा था- गांधी जी का लेख
बी-अम्मा के इन्तिक़ाल पर गांधी जी ने कहा था कि- यह ख़याल करना बड़ा मुश्किल महसूस होता है कि बी- अम्मा का इन्तिकाल हो गया। यह मेरी बड़ी खुश किस्मती थी कि इन्तिकाल की रात में उनके करीब ही बार मैं और सरोजिनी देवी, मालूम होने पर शीघ्र ही वहां पहुंच गए। वह कहा करती थी कि मैं. हिन्दुस्तान में स्वराज और हिन्दू-मुस्लिम एकता देखना चाहती हूं। हमें अपने धर्मों पर क़ायम रहते हुए आपसी एकता बनाए रखनी चाहिए। एकता के बग़ैर आज़ादी असंभव है। वह विदेशी कपड़ों का उपयोग छोड़ चुकी थीं। उन्होंने वसीयत की थी कि उन्हें खादी के कफ़न में ही दफनाया जाए। जब कभी मैं, उनकी बीमारी की हालत में उनके पास गया तो उन्होंने हमेशा स्वराज और आपसी एकता के बारे में मुझसे मालूम किया। गांधी जी ने मुहम्मद अली, शौकत अली से अपने करीबी संबंधों के बारे में बताया कि किस प्रकार से मैं और अली ब्रादान, हिन्दू और मुसलमान हो कर भी एक साथ रह सकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे एक मां के तीन बेटे।
यह एक अजीब बात है कि अब हम न बी-अम्मा को जानते हैं, न देश के लिए उनकी कुर्बानियों से वाक़िफ़ हैं, न उनकी सद्भावना और एकता को याद करते हैं, न महिला समाज के उस गौरव को मानते हैं। वर्तमान इतिहास की पुस्तकों में बी-अम्मा जैसी देश की आज़ादी की मतवाली के कारनामे अंकित होना वक्त की अहम ज़रूरत है|
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