यहां पर लिए गये कुछ महत्वपूर्ण और रिसर्च ब्रह्मसूत्र,शंकराचार्य और मंडनमित्र का शास्त्रार्थ और श्रीशंकर दिग्विजय से लिए गये हैं ताकि आने वाले परीक्षा में उसका अच्छे से अध्यन कर सके। यहाँ शंकराचार्य तथा अद्वैत वेदांत का वर्णन है जोकि पिछले वर्ष परीक्षा में पूछे जा चुके है।
आदि शंकराचार्य का जन्म और प्रारंभिक जीवन का परिचय :-
इनका जन्म 8वीं शताब्दी में केरल के कालड़ी नमक स्थान पर हुआ था इनके पिता का नाम शिवगरु और माता का नाम आर्रम्भा था (अलग -अलग किताबों में माता का वर्णन को नामों को दर्शाया गया है | ऐसा पुराणों और किताबों में माना जाता हैं कि इनके माता-पिता भगवान शिव के भक्त थे और शांतन प्राप्ति के लिए उन्होंने बहूत घोर तापस्ता की थी।मान्यता हैं कि भगवान शिव स्वयं उनके पुत्र के रूप में थे।
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आदि गुरु शंकराचार्य ने सन्यास ग्रहण कैसे और क्यों किया?
शंकर के पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था जिस कारण उनकी माता अकेली रह गयीं लेकिन शंकर का झुकाव सन्यास की तरफ था जब वे अपनी माता से सन्यास लेने की अनुमति मागने लगे तब उनककी माता नें मना कर दिया।यहाँ शंकर का नाम शंकराचार्य से है |
सन्यास लेने की घंटना को दर्शाया गया :-
पुराणों के अनुसार ” जब शंकर नदी में स्नान कर रहे थे तब एक मगरमच्छ ने उमका पैर पकड़ लिया, उन्होंने अपनी माता से कहा कि यदि वे सन्यास की अनुमति देंगी तो शायद शंकर बच जायें।” उस दौरन माता ने अनुमति दी और मगरमच्छ ने उन्हें छोड़ दिया इसके बाद उन्होंने सन्यास ग्रहण किया और ज्ञान की खोज में निकल गये |
गुरु गोविन्द भागवत्पाद से शिक्षा प्राप्त :-
शंकराचार्य अपने गुरु गोविन्द भागवत्पादसे नर्मदा नदी के तट पर शिक्षा प्राप्ति की, गुरु ने उन्हें अद्वैत वेदांत का रहस्य समझाया और इस दर्शन को पूरे भारत में प्रचलित करने की आज्ञा दी।
भारत भ्रमण :-
उन्होंने पूरे भारत में भ्रमण किया और विभिन्न मठों, विद्वानों,और अचार्यों से शास्त्राण किया। अद्वैत वेदांत को तर्क और शास्त्रों के आधार पर सिद्ध भी किया। बाद में उन्होंने बौद्ध, जैन, पशुपात सांख्य, चार्बाक और पूर्ण मीमांसा जैसी अन्य परम्पराओं से शस्वार्थ किये और अद्वैत वेदांत को सर्वोच्च सिद्ध किया।
आत्मा और परमात्मा के बारे में विचार –
वह कहते हैं कि जो भी हमें संसार की विविधता और द्वैत के रूप में दिखता हैं, वह केवल हमारी अज्ञानता (अविधा) का परिणाम हैं। जब हमें सच्चा ज्ञान प्राप्त होता हैं, तब हम समझते हैं कि आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है।
गुरु शंकराचार्य का दर्शन केवल तर्क और शास्त्रों पर आधारित नहीं था बल्कि यह आत्म- साक्षात्कार और अनुबंध पर भी केंद्रित था। उन्होंने अद्वैत वेदांत के माध्यम से यह बताया कि मनुष्य भी आत्मा और परमात्मा (ब्रह्म) एक ही है और संसार में जो कुछ भी भिन्न -भिन्न रूप में दिखता है वह केवल माया (भ्रम) है।
इसका मूल सिद्धांत ” केवल ब्रह्म सत्य है, संसार माया है।
आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांत क्या है?
“ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या” इसका अर्थ हैं कि
1- ब्रह्म ही सत्य है।
2- यह संसार (जगत) एक भ्रम (माया) है।
3- जीव (व्यक्ति) स्वयं ब्रह्म का ही रूप हैं।
इनका जन्म 8वीं शताब्दी में केरल के कालड़ी नमक स्थान पर हुआ था इनके पिता का नाम शिवगरु और माता अलग-अलग किताबों में अलग अलग दर्शया गया है रिसर्च से मिला हुआ माता का नाम आर्रम्भा था |
इनके गुरु का नाम ” गोविन्द भागवत्पाद था” ।
यह जब बालक अवस्था मे थे बहूत ही असाधारण, बुद्धिमान और मेधावी थे तथा इन्होंने बहूत कम उम्र में ही वेद, उपनिशद और अन्य शास्त्रों का अध्यन कर लिया था। उनका शुरू से ही अध्यन की ओर झुकाव था।
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