बैरिस्टर मौलाना मज़हरुल-हक | Indian Freedom Fighter
Home » बैरिस्टर मौलाना मज़हरुल-हक | Indian Freedom Fighter

बैरिस्टर मौलाना मज़हरुल-हक | Indian Freedom Fighter

by रवि पाल
0 comment

वर्तमान में जिस तरह से इतिहास के बारे में भारत की राजनैतिक दलों के द्वारा गलत जानकारी / आधी- अधूरी जानकारी दी जाती है इसीलिए प्रत्येक भारतवासी का यह कर्तव्य है कि वह भारत के इतिहास को अच्छे से पढ़े, इस लेख में बैरिस्टर मौलाना मज़हरुल-हक के बारे पढेंगे|

भारत देश का पढ़ा लिखा व्यक्ति हो या अनपढ़, ग़रीब हो या धनवान, शहर का रहने वाला हो या ग्रामवासी सभी गुलामी की घुटन से निकल कर आजाद रहना चाहते थे। असल में फिरंगियों ने केवल भारत देश पर ही कब्जा नहीं कि उन्होंने देशवासियों को धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक प्रत्येक क्षेत्र में ऐसा बांध दिया था कि कहीं भी वे आज़ादी महसूस नहीं कर पाते थे।

Read more about it :-

डा.बरकतुल्लाह भोपाली कौन थे ?

“शैखुल-हिन्द” मौलाना महमूद हसन का इतिहास | Indian History

नात्सीवाद और हिटलर का उदय Question Answer MCQ|QUIZ

UPSSSC VDO परीक्षाओं में पूछे गये महत्वपूर्ण MCQ Quiz science & Environment

बैरिस्टर मौलाना मज़हरुल-हक का जन्म और तालीम:-

बैरिस्टर मौलाना मजहरुल हक़ भी भारत के एक ऐसे ही उच्च शिक्षा प्राप्त सपूत थे, जो कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को बनाए रखते हुए देश को गुलामी से आज़ाद कराना चाहते थे। वह 24 दिसम्बर 1866 को जिला पटना, थाना मुनीर ग्राम बाहपुरा में शैख अहमदल्लाह के घर पैदा उनके वालिद अपने इलाके के हुए। बड़े जमींदारों में गिने जाते थे। वैसे उनके कई कारखाने भी थे।

इस तरह उनके परिवार के आर्थिक हालात बहुत अच्छे थे। आरंभिक तालीम घर पर ही पूरी होने के बाद उन्होंने बाहपुरा स्कूल से मैट्रिक पास किया। वह आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ गए वहां कैर्निंग कालेज (Canning College अब लखनऊ विश्वविद्यालय) में दाखिला लिया। जब दिल में किसी बात की सच्ची लगन हो तो कुदरत भी उसके लिए राहें खोलती है।

वह बचपन से ही वतन प्रेमी थे। उनके दिल मैं देश एवं देशवासियों की सेवा का जज्बा भरा हुआ था। साथ ही पढ़ाई का शौक़ भी उन्हें चैन से बैठने नहीं देता था। यहां की पढ़ाई पूरी करके वह इंग्लिस्तान पहुंच गए। वहां उन्होंने बैरिस्टरी की तालीम पाई। वहां उनके गांधी जी से संबंध रहे। 1891 में वह बेरिस्टरी की डिग्री लेकर कर वतन वापस लौट आए।

बैरिस्टर मौलाना मज़हरुल-हक का बेरिस्टरी की डिग्री के बाद का जीवन:-

इन्होने पटना में वकालत की प्रेक्टिस शुरू कर दी कहते है उनकी गिनती अच्छे वकीलों में होती थी। बाद में वह अंग्रेजी अदालत में मुसिफ के पद पर भी आसीन हो गए थे। अंग्रेजी अदालत की नौकरी उन्हें पसंद नहीं आई। वह वहां बेचैनी और घुटन महसूस करते थे। एक बार उनके ज्यूडीशियल कमिश्नर ने उनसे दो अच्छे शिकारी कुत्तों की फ़रमाइश कर डाली।

उनको कमिश्नर की फरमाइश बेवकुफी की लगी। वह तो वैसे भी नौकरी छोड़ना ही चाहते थे ,  उन्होंने अपने ज्यूडीशियल कमिश्नर को ही फटकार लगाते हुए कहा कि मैं ऐसी कोई भी नाजायज फ़रमाइश पूरी नहीं कर सकता। दोनों के बीच बात ज़्यादा बढ़ने पर उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया।

वैसे तो उनके परिवार के आर्थिक हालात अच्छे थे। साथ ही वह एक इज्जतदार घराने से भी थे, लेकिन उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का मकसद ऐश व आराम से बैठ कर गुज़ारना नहीं बनाया। वह अपने देश को आज़ाद करा कर एवं धर्मनिरपेक्ष शासन की स्थापना चाहते थे। वह गांधी जी से बहुत प्रभावित थे उन्होंने अपनी वेशभूषा को गांधी जी की तरह सादा एवं साधारण बना लिया दौलतमंद व्यक्ति होते हुए भी उन्होंने इतनी सादगी पसंद कर ली थी कि लोग उनको दर्वेश के नाम से पहचानने लगे थे।

अंग्रेजों की राजनीति “ हिन्दुतान में फूट डालो और राज करो”:-

इस दौरान बैरिस्टर हक़, लन्दन से तालीम हासिल करके जब हिन्दुस्तान वापस लौटे तो किए अंग्रेज़ यहां ‘फूट डालो और राज करो’  की योजना लागू हुए थे। उनक मक़सद तो हिन्दू और मुसलमानों को लड़ा कर खुद राज करना था, क्योंकि ब्रिटिश शासन इस बात को अच्छी तरह से समझ चुका था कि हिन्दू-मुसलमान एकता उनके शासन के लिए ख़तरनाक है।

स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों द्वारा जब एकता के साथ आज़ादी की मांग की गई तो अंग्रेज़ शासन ने रूझान बांटने के उद्देश्य में ब्रिटिश संसद ने “मारले-मिंटो रिफॉर्म्स” (Morley-Minto Reforms, 1909) का अधिनियम पास किया। वह हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालने का एक ऐसा फ़ार्मूला था जिस के विरोध में कई आवाज़ें उठने लगीं। एकता के प्रतीक बैरिस्टर हक़ ने भी उस फ़ार्मूले का कड़ा विरोध किया। मारले-मिंटो रिफॉर्म्स फार्मूले के अनुसार अंग्रेज़ों ने शरारत के उद्देश्य से चुनाव के समय वोट देने के लिए हिन्दू और मुसलमानों की अलग-अलग योग्यताएं निर्धारित की थीं।

देशवासियों को यह भेदभाव की नीति बिल्कुल भी पसंद नहीं आई। चारों ओर से विरोध में सुर उठने के कारण वह पक्ष-पात वाला फ़ार्मूला लागू नहीं कर सके। इसके कारण अंग्रेज शामर की हार तो हुई लेकिन पहले से जारी आज़ादी की मांग की ओर से लोगों का रुझान हट गया। उसके बाद देश के वरिष्ठ नेताओं का एक प्रतिनिधि मंडल विभिन्न मांगें ले कर इंग्लैंड भेजा गया। उसमें बैरिस्टर मौलाना मज़हरुल हक़ भी शामिल थे।

बैरिस्टर मौलाना मज़हरुल-हक की विचारधारा:-

ब्रिटिश शासन को तो हिन्दुस्तानियों की किसी भी मांग को आसानी से पूरा ही नहीं करना था। हुआ यही कि प्रतिनिधि मंडल नाकाम लौट आया।

बैरिस्टर हक देशहित के प्रत्येक काम में आगे रहना चाहते थे। गांधी जी के चम्पारण सत्याग्राह के समय भी उन्होंने बहुत साथ दिया। वह अपने लक्ष्य पूर्ति के लिए यदि जेल भी जाना हो तो उस से भी नहीं घबराते थे। इसी तरह वह आपसी एकता के भी पक्षधर थे। कोई भी ऐसी घटना हो जिस में टकराव की स्थिति बन रही हो, बैरिस्टर हक़ वहां पहुंच कर सुलह-सफ़ाई के प्रयास तेज कर दिया करते थे। एक समय गांधी जी जब चम्पारण प्रकरण में जांच के लिए गए जिससे कालों पर गोरी के जुल्म व सितम की आवाज़ उठाई जा सके, उसमें भी मज़हरुल हक़ साहिब का पूरा सहयोग रहा। यहां तक कि गांधी जी ने जब यह पूछा।

कि तुम में से कौन- कौन जेल जाने को तैयार है, तो उस आवाज़ पर बैरिस्टर हक़ ने सब से पहले अपना हाथ ऊंचा उठाया।

बैरिस्टर हक के कई ऐसे कारनामे हैं जो कि उनकी समाज सेवा और देश सेवा के प्रतीक है। वह तालीम को बहुत महत्व देते थे। उन्होंने शिक्षा पद्धति में सुधार के लिए बहुत काम किए। मेडीकल सेवाओं को मजबूत बनाने और बीमारों की बड़े पैमाने पर देख-रेख अच्छी तरह से किए जाने के संबंध में भी उन्होंने काम किया। वह चाहते थे कि कोई भी बीमार दवा व इलाज के बग़ैर न रह सके। इसके अलावा उन्होंने बबुआ मजदूरी की भी मुखालफत की। एक समय इंजीनियरिंग के छात्रों का किसी कारण अपने स्कूल के प्रिंसिपल से विवाद हो गया।

इतिहास के पन्ने :-

असल में 1925 में कुछ वतन प्रेमी इंजीनियरिंग के छात्रों ने  बिहार स्कूल आफ़ इंजीनियरिंग पटना की प्रयोगशाला में छुरियां बनानी शुरू कर दी थीं। स्कूल के प्रबन्धकों को इस पर ऐलान हुआ उन छात्रों को स्कूल से निकाल दिया गया। वे सभी हक साहिब के पास अपनी शिकायत लेकर आए। हक़ साहिब फिक्रमंद हो गए। उन्होंने उन छात्रों को समझाया उनके लिए एक नए स्कूल खोले जाने का उन्होंने एलान कर दिया। उन्होंने अपने खर्चे से “सदाकत आश्रम के नाम से एक मकान बनवाया। उनका यह काम भी लोगों को बहुत पसंद आया।

इस काम के लिए लोगों ने ज़मीन और पैसों से भी उनकी मदद की। सदाकत आश्रम में बिहार विद्यापीठ के नाम से कालेज शुरू कर दिया गया। बैरिस्टर मजहरुल हक़ को उसका प्रिंसिपल बनाया गया। समय गुज़रता रहा, हालात में भी बदलाव आता गया, क्योंकि हक़ साहिब कांग्रेसी थे, इसलिए बाद में “सदाकत आश्रम बड़े-बड़े कांग्रेसी राजनीतिज्ञों का ठिकाना बन गया। वहां से देश की राजनीति चलाने के महत्वपूर्ण फ़ैसले किए गए। वह कांग्रेस के दफ़्तर के रूप में उपयोग में लाया जाने लगा।

इसी तरह 1917 में एक मौक़े पर बिहार में कुर्बानी को लेकर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच झगड़ा शुरू हो गया। भड़काने वालों ने मौक़े से फ़ायदा उठाया।

आपसी टकराव में दोनों जानिब से एक दूसरे को नुकसान पहुंचाया गया। अधिक नुकसान पहुंचाने की योजनाएं तैयार की जाने लगीं। मौलाना हक उस घटना मे बेचैन हो गए। वह नहीं चाहते थे की भाई-भाई आपस में टकरा कर एक दूसरे को नुकसान पहुंचाएं। उन्होंने शीघ्र ही हिन्दू-मुसलमान नेताओं को जमा किया। टकराव ख़त्म करने के अथक प्रयास कर आपसी समझौता करवाया। झगड़े में जिन लोगों का नुक़सान हुआ उनकी बग़ैर पक्षपात के मदद की गई।

मौलाना मज़हरुल-हक की गिरफ्तारी :-

मजहरुल हक़ ने देश प्रेम और जागरूकता का संदेश लोगों तक पहुंचाने के लिए माडर्न बिहार” के नाम से एक अंग्रेज़ी मैग्जीन निकाला। इसी तरह 1921 में एक अंग्रेज़ी साप्ताहिक “दि मदर लैंड का प्रकाशन भी आरंभ किया। वह एक उच्च स्तर का अखबार माना गया। अंग्रेज़ा को कोई भी ऐसा लेख या तक़रीर पसंद नहीं आती थी जो कि ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ हो। 1922 को हक़ साहिब के बग़ावती लेखों के कारण उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।

बैरिस्टर साहिब भेदभाव की भावना रखने वाले लोगों को पसंद नहीं करते थे। वह सब को एक ही मालिक के बन्दे मानते थे। वह जानते थे कि धर्म के रिश्ते पर की आस्थाओं से जुड़े रहते हैं। लोगों की आस्थाएं और मान्यताएं तो अलग अलग हो सकती हैं, लेकिन दिलों की धड़कनें सब की एक जैसी ही होती हैं। शरीर में बहने वाले ख़ून का रंग भी एक जैसा ही होता है। यहां तक कि सीनों में मचलने वाली सांसें भी सभी की एक ही रास्ते आती और जाती हैं। फिर यह भेद-भाव पक्षपात, हिन्दू और मुसलमान के बंटवारे सब झूठे झमेले हैं। सब एक हैं। सबका मालिक एक है। इंसानियत, मुहब्बत और एकता के साथ रहने में ही सब की कामयाबी का राज छुपा हुआ है।

मौलाना मज़हरुल-हक के जिन्दगी का आखिरी समय :-

वह पक्के कांग्रेसी नेता थे। पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं से उनके क़रीबी संबंध में वह आज़ादी अथवा देशवासियों के हित के प्रत्येक आन्दोलनों में भरपूर साथ दिया करते थे। 1920-21 में गांधी जी ने नॉन-वायलें अहिंसा का आन्दोलन शुरू किया। उन्होंने देशवासियों से अपील की कि वे ब्रिटिश शासन के अधीन सरकारी नौकरियां छोड़ दें। सरकारी स्कूल कॉलेजों का बायकाट करें।

उस आन्दोलन में बैरिस्टर हक़ ने उनका पूरा साथ दिया। हक़ साहिब ने गांधी जी की आवाज़ के साथ अपनी आवाज़ मिलाई। यहां तक कि गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने देश के लिए बैरिस्टरी की अपनी अच्छी नौकरी छोड़ दी।

मज़हरुल हक़ ने अपनी ज़िन्दगी का अधिकांश समय सच्चाई और ईमानदारी के साथ देश के लिए संघर्षों में गुज़ारा। विभिन्न आन्दोलनों में हिस्सा लिया यातनाओं को सहा। देशवासियों को एकता, सदभावना और मुहब्बत की सीख दी आपसी झगड़े और मन-मुटाव दूर कराए। आख़िरी समय में वह पटना छोड़ क सारण के ग्राम फ़रीदपुर में आकर अपने बनाए हुए घर “आशियाना” में रहने ल थे।

भारत माता का सपूत शहीद:-

1929 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन (सालाना इजलास) हो रहा था, उस समय बैरिस्टर हक़ फ़ालिज की बीमारी से जूझ रहे थे। उनका बहुत इलाज किया गया, मगर “मरज़ बढ़ता गया जूं-जूं दवा की” का उदाहरण सामने आया।

आख़िरकार, 2 जनवरी 1930 को वह देश प्रेमी, स्वतंत्रा सेनानी, एकता और भाई चारे का प्रतीक क़ौम का मसीहा इस दुनिया को अलविदा कह गया। उस महान नेता के मातम में चारों ओर सन्नाटा छा गया। विशेष कर पूरे बिहार में मातम छाया रहा। बैरिस्टर मौलाना मज़हरुल-हक़ की देश के प्रति सेवाएं इतिहास में अमर रहेंगी |







You may also like

About Us

Lorem ipsum dolor sit amet, consect etur adipiscing elit. Ut elit tellus, luctus nec ullamcorper mattis..

Feature Posts

Newsletter

Subscribe my Newsletter for new blog posts, tips & new photos. Let's stay updated!