जब हिंदुस्तान अंग्रेजों का गुलाम था उस समय न तो पाकिस्तान का उदय हुआ था और न ही बांग्लादेश का, जब आज के युवा वर्तमान और इतिहास दोनों को खंगालते है तो बहुत अंतर दिखायी देता है चाहे बात पुरुषों की हो या महिलाओं की , वहीं दूसरी तरफ एक समाज अपने आप को आजादी के इतिहास में अहम योगदान देने की बात करता है तो वहीँ दुसरे समाज को नीचा दिखाने का काम करता है आज का लेख बेगम ज़ीनत महल के बारे में है|
बेगम जीनत महल आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की बेगम थीं। उन्होंने वृद्ध बहादुरशाह ज़फ़र को 1857 की प्रथम आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करने के लिए हौसला और हिम्मत दी। वह उनके देश प्रेम और आज़ादी की चाहत का प्रतीक है। प्रकृति ने जहां उन्हें सुन्दर बनाया था वहीं वह एक अच्छी सूझ-बूझ की मालिक और प्रशासनिक क्षमता भी रखती थीं।
इतिहास में ऐसे बहुत सी क्रांतिकारी महिलाएं हुयी है जिन्होंने अपने प्यारे भारत देश के लिए अपनी कुर्बानियां दी है उनमे चाहे बेगम हजरत महल की बात हो या फिर अजीजन बाई की, हजारों महिला क्रांतिकारियों ने इस देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया |
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बेगम ज़ीनत महल के अंदर क्रांतिकारी भावना:-
जिस प्रकार से अन्य देशवासी अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ादी चाहते थे, उसी तरह बेगम जीनत महल भी गुलामी के बन्धनों से तंग आ चुकी थीं। क्योंकि बहादुरशाह जफर केवल नाम के ही मुग़ल सम्राट बन कर रह गये थे। उनको किसी भी प्रकार की शक्तियां प्राप्त नहीं थीं। बेगम ज़ीनत महल गुलामी को एक अभिशाप मानती थीं। वह चाहती थीं कि देश को किसी भी तरह आज़ादी मिले। ब्रिटिश शासन की तानाशाही और दमन चक्र की नीतियों से तंग आकर 1857 में देशवासियों का गुस्सा फूट पड़ा।
बैरकपुर में वीर मंगल पांडे के मन में क्रांति का ज्वालामुखी फट गया। फिर क्या था, उसकी लपटें दूर-दूर तक फैल गई। आज़ादी के मतवाले अपनी जानें हथेलियों पर लिए हुए मैदानों में कूद पड़े। चारों ओर हा- हाकार मच गया। ऐसे समय में विद्रोहियों को सही नेतृत्व की ज़रूरत महसूस होने लगी। मेरठ, अवध एवं रुहेलखंड के विद्रोही सैनिकों ने बहादरशाह ज़फ़र के दरबार में हाज़िर होकर उनसे नेतृत्व करने की गुहार लगाई। वैसे तो शहंशाह, भारत से फिरंगियों को मिटाना चाहते थे, परन्तु बूढ़े होने के कारण उनके शरीर में इतनी ताकत बाक़ी नहीं रह गई थी कि वह मुक़ाबले के लिए मैदाने जंग में उत्तर सबै विद्रोहियों ने उन्हें भरोसा दिलाया कि आपके नेतृत्व में हम भारत से फिरंगी शासन को नेस्त व-नाबूद कर देंगे।
इसके अतिरिक्त जंग लड़ने के लिए धन की कमी भी नहीं आने देंगे। ख़ज़ाना भी भर दिया जाएगा। विद्राहियों के जज्बात देखकर बहादुरशाह ज़फ़र ने हिम्म्त तो की, लेकिन अपनी वृद्धावस्था तथा कुछ दरबारियों के बहकावे में आकर उनकी हिम्मत टूटने लगी।
रुहेलखंड के विद्रोही सैनिकों ने बहादरशाह ज़फ़र से गुहार तथा मंगल पांडे के मन में क्रांति की भावना:-
बेगम जीनत महल ने, जिनकी रंगों में गुलामी से आज़ादी पाने का खून दौड़ रहा था, जिसके दिल में अंग्रेजों के लिए नफ़रत भड़क रही थी, सारे हालात को देखते हुए और विद्रोहियों की सच्ची भावनाओं को परखते हुए अपने मन की आवाज़ से शहंशाह की आत्मा को झंझोड़ा। बेगम जीनत महल ने बहादुरशाह ज़फ़र से कहा-“आप इन बहादुर सिपाहियों की दरखास्त कुबूल कर लीजिए। इनके नेतृत्व के लिए तैयार हो जाइए। यह वक़्त गजलें कह कर दिल बहलाने का नहीं है। आज पूरे हिन्दुस्तान की निगाहें आप पर और दिल्ली पर लगी हुई है। आपका ह फ़र्ज़ है कि आप इनका साथ दें। यदि आपने ऐसा नहीं किया तो हिन्दुस्तान का इतिहास आपको कभी माफ़ नहीं करेगा।
बेगम जीनत महल की इतनी बात सुनते ही शहंशाह बहादुरशाह जफर के में सोया हुआ शेर जाग उठा। उन्होंने अपनी जोशीली गरजदार आवाज में क “हम लड़ेंगे, बेगम! ज़रूर लड़ेंगे, आगे जो हमारी क़िसमत, जो ख़ुदा को मंजूर होगा वही होगा। हम कसम खाते हैं बेगम! कि गुलामी की मौत नहीं मरेगे आप तकलीफें उठाने के लिए तैयार हो जाइये।
बहादुर शाह ने अंग्रेज़ों को हिन्दुस्तान से बाहर निकाल भगाने का अपने मन में पक्का इरादा कर लिया। उन्होंने ऐसे समय में हिन्दू राजाओं और मुसलमान नवा को एकजुट हो कर फ़िरंगी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए आह्वान किया। उन्होंने अपने फ़रमान (आदेश) में कहा कि अभी तो हमारा असल मकसद अंग्रेजी शासन का खात्मा करना है, उसके बाद आप जिसे चाहें शासक बनाएं यह आप के राय- मशवरे पर निर्भर करेगा। हालांकि उनके इस फ़रमान का देशी रियासतों के शासकों पर कोई असर नहीं पड़ा।
बेगम ज़ीनत महल इन तमाम क्रियाओं की प्रतिक्रियाओं को जानती और नतीजों को समझती थीं. फिर भी उन्होंने ने शहंशाह के मनोबल को बनाए रखा और विद्रोहियों का हौसला बढ़ाया। जीनत महल इस अवसर पर बहुत ही सक्रिय रहीं। वह देश की लड़ाई में भाग लेने वाले अन्य नेताओं से भी सम्पर्क साधे हुए थीं। चारों ओर की सूचनाएं भी इकट्ठा करके बहादुरशाह ज़फ़र को सूचित करती रहती थीं। बेगम के हौसले, शहंशाह के नेतृत्व में आजादी के मतवाले क्रांतिकारियों ने जमकर संघर्ष किया। अंग्रेज़ों को क़त्ल किया, उनके बंगले जलाए, मार की।
फिरंगी डर के कारण अपनी जानें बचाने के लिए छुपते फिर रहे थे। लांकि इस लड़ाई में क्रांतिकारियों का भी जानी नुकसान हुआ, परन्तु वह निडर हो कर युद्ध के मैदान में जमे रहे। उनके इस संघर्ष का मकसद तो केवल आज़ादी लूट-पाट, मार-काट चलती रही। फ़िरंगी भी अपने बचाव के लिए मौका स्वयं को संगठित करते रहे। दोनों ही ओर से मरने और मारने का सिलसिला बलता रह्या फिरंगी अपना बचाव करते हुए शक्ति इकट्ठा करते रहे|
आज़ादी के लिए लड़ रहे विद्रोहियों को देशी राजा नवाबों के सहयोग का अभाव रहा। वह संगठित रूप से लड़ाई नहीं लड़ सके। एक समय वह भी आया जबकि क्रांतिकारियों में रसद की भी कमी हो गई। क्रांतिकारी हालात के कारण बिखरते दिखाई देने लगे। इसी बीच अंग्रेज़ों को संभलने का मौका मिल गया। उन्होंने दोबारा ताकत इकट्ठी करके विद्रोहियों पर काबू पा लिया। यहां तक कि बहादुरशाह बन और बेगम जीनत महल को लाल किले में कैद कर दिया गया। उन पर मुकदमा चला कर उन्हें जिला वतनी में उम्र कैद की सजा सुना कर रंगून भेज दिया। गया।
बेगम ज़ीनत महल की जिन्दगी का आखिरी सफ़र:-
देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ने की सजा में अंग्रेज़ों ने शहंशाह ज़फ़र के शहजादों के सर क़लम करके उसके पास भेज दिये। अंततः आज़ादी के मतवाले आखिरी मुगल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र दुखों की ताब न लाकर 7 नवम्बर 1862 को इस संसार को अलविदा कह गए। इसी तरह से बेगम जीनत महल को फिरंगियों कलीफें दी। उन्होंने देश की आजादी की खातिर फिरंगियों के कष्ट सहे तकलीफें उठाई, अपमान सहे। उन्हें भी बहादुरशाह ज़फ़र के साथ काले पानी की सत्रा सहनी पड़ी। बेगम जीनत महल को देश की आज़ादी के लिए उम्र क़ैद और जिला कतनी सजा सहनी पड़ी। अपने नौजवान शहजादों के करल का दख झेलना उनकी इतनी बड़ी कुर्बानी है जिस के कारण इतिहास के पन्नों में जीनत महल का नाम सदैव अमर रहेगा।
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