इस लेख में इतिहास चर्चा करेंगे जिससे भारत के इतिहास के बारे में जानकारी मिल सके, उसके साथ- यह भी समझेंगे कि नवपाषाण युग के अंत तक धातुओं का इस्तेमाल होना कैसे शुरू हुआ था उसके बाद जोधपुरा संस्कृति. मालवा संस्कृति और जोरवे संस्कृतिः के बारे में भी वर्णन करेंगे |
- विशेष राज्य का दर्जा (विशेष श्रेणी / एससीएस) की विशेषताएं क्या है?
- सी-सेक्सन/ Caesarean Delivery डिलिवरी के आंकड़े दिन-प्रतिदिन बढ़ते दिख रहे है, पूरी जानकरी क्या है?
- लोक सभा में अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का चुनाव तथा नियम 8 की जानकारी बहुत महत्वपूर्ण है
- लोकसभा उपसभापति/उपाध्यक्ष की भूमिका और इतिहास का वर्णन कीजिये
- भारतीय इतिहास में किलों की प्रथम खोज कब हुयी थी पूरी जानकरी देखिये |
जोधपुरा संस्कृति तथा मालवा संस्कृति से पहले नवपाषाण युग का अंत :-
नवपाषाण युग का अंत होते-होते धातुओं का इस्तेमाल शुरू हो गया। धातुओं में सबसे पहले तांबे का प्रयोग हुआ। कई संस्कृतियों का जन्म पत्थर और तांबे के उपकरणों का साथ-साथ प्रयोग करने के कारण हुआ। इन संस्कृतियों को ताम्रपाषाणिक कहते हैं, जिसका अर्थ है पत्थर और तांबे के उपयोग की अवस्था । यह लगभग 3300 ईसा पूर्व से 1300 ई.पू. तक फैला हुआ है। ताम्रपाषाण युग के लोग अधिकांशतः पत्थर और तांबे की वस्तुओं का प्रयोग करते थे। वे मुख्यतः ग्रामीण समुदाय बनाकर रहते थे और देश के ऐसे विशाल भागों में फैले थे जहाँ पहाड़ी जमीन और नदियाँ थीं। भारत में ताम्रपाषाण अवस्था की बस्तियाँ दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में पाई गई हैं।
मालवा संस्कृति:-
मध्य और पश्चिमी भारत की मालवा ताम्रपाषाण संस्कृति की विशेषता मालवा मृद्भांड है जो ताम्रपाषाण मृद्भांडों में उच्चतम माना गया है। मालवा संस्कृति की विशेषता इसकी उन्नत मिट्टी के बर्तनों की तकर्नीक थी, जिसमें बढ़िया काले चित्रित डिजाइनों के साथ लाल बर्तनों का उपयोग शामिल था। वे धातु विज्ञान में कुशल थे, विशेषकर तांबे की वस्तुओं के उत्पादन में । मालवा संस्कृति स्थलों पर गेहूं और जौ जैसे अनाज की खेती सहित कृषि के साक्ष्य पाए गए हैं। पुरातात्विक निष्कर्षो के आधार पर अन्य समकालीन संस्कृतियों जैसे हड़प्पा सभ्यता के साथ व्यापार संबंध का भी सुझाव दिया गया है।
मालवा संस्कृति भारत में ताम्रपाषाण काल के एक महत्वपूर्ण पहलू का प्रतिनिधित्व करती है, जो इस क्षेत्र के प्राचीन समाजों के तकनीकी और सांस्कृतिक विकास में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।
गणेश्वर-जोधपुरा संस्कृति:-
यह स्थान राजस्थान के उत्तर पूर्वी हिस्से में केन्द्रित है। इस संस्कृति से जुड़े 80 से अधिक स्थलों की खोज हो चुकी है। सर्वाधिक स्थल सिकर जिले में अवस्थित हैं लेकिन जयपुर और झुनझुनु जिलों में भी बहुत से स्थल स्थित हैं। इस संस्कृति का क्षेत्रीय केंद्रीकरण ताम्र अयस्क से जुड़े बालेश्वर और खेतड़ी जैसे स्थानों से जुड़ा हुआ है। जहां पर प्राचीन काल से ताम्बे का प्रयोग होता रहा है। गणेश्वर-जोधपुरा में ताम्बे को गलान से जुड़े कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिले हैं, किन्तु गणेश्वर से सैंकड़ों की संख्या में मिली ताम्र वस्तुओं के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समय तक यह ताम्र वस्तुओं के निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन चुका था और जहां से ताम्बे की वस्तुओं को दूसरे क्षेत्र में रह रहे समुदायों को निर्यात भी किया जाता रहा था।
जोरवे संस्कृतिः-
सबसे विस्तृत उत्खनन पश्चिमी महाराष्ट्र में हुए हैं। वे पुरास्थल हैं- अहमदनगर जिले मैं जोरवे, नेवासा, पुणे जिले में चंदोली, सोनगाँव, इनामगाँव, प्रकाश और नासिक। ये सभी पुरास्थल जोरवे संस्कृति के हैं। जारवे संस्कृति ने मालवा संस्कृति से बहुत कुछ ग्रहण किया है। जोरवे संस्कृति कुछ “भाग को छोड़ सारे महाराष्ट्र मैं फैली थी।
जोरवे संस्कृति तथा ताम्रपाषाण युग :
जोरवे संस्कृति ग्रामीण थी, फिर भी इसकी कई बस्तियाँ, जैसे दैमाबाद और इनामगाँव नगरीकरण के स्तर तक पहुँच गई थीं। महाराष्ट्र के सभी पुरास्थल अधिकतर काली-भूरी मिट्टी वाले ऐसे अर्धशुष्क क्षेत्रों में हैं जहाँ बैर और बबूल के पेड़ थे। महाराष्ट्र के जोरवे और चंदोली में ताम्र-कुठार पाए गए हैं और चंदोली में तांबे की छेनी भी मिली है। इसमें सौ से अधिक घर और कई कब्रें मिली है। यह बस्ती किलाबंद है और खाई से घिरी हुई है। इनामगाँव से ताम्रपाषाण युग के लोगों की कला और शिल्प के बारे में बहुत से तथ्य प्राप्त होते हैं।
वे लोग कताई और बुनाई जानते थे, क्योंकि मालवा में चरखे, कपास, सन और सेमल की रूई से बने धागे भी मिले हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वे लोग वस्त्र निर्माण से सुपरिचित थे। अनेक स्थलों पर प्राप्त इन वस्तुओं के शिल्पियों के अतिरिक्त हमें इनामगाँव में कुंभकार, धातुकार, हाथी दाँत के शिल्पी, चूना बनाने वाले और खिलौने की मिट्टी की मूरतें बनाने वाले कारीगर भी दिखाई देते हैं।
तिथि ई.पू. 1400 और 1000:-
साधारणतः इस संस्कृति की तिथि ई.पू. 1400 और 1000 के बीच निर्धारित की जाती है परंतु इनामगांव जैसे स्थलों पर यह संभवत ई.पू. 700 तक विद्यमान रही। घर वर्गाकार, आयताकार या वृत्ताकार होते थे। दीवारे मिट्टी और गारा मिलाकार बनाई जाती थी और उनमें लकड़ी के डंडों की टेक दी जाती थी। छत को गारे से ढक दिया जाता था। मृदभांड के डिजाइन बहुधा ज्यामितीय है जिनमें तिरछी रेखाओं का प्रयोग किया गया है। छोटे उपकरणों का समृद्ध उद्योग विद्यमान था तांबे की वस्तुओं में चूड़ियां, मनके, फलक, छैनियां, सलाइयां, कुल्हाडियों छुरे और छोटे-छोटे बर्तन इत्यादि शामिल थे।
वस्तुओं का मिलना :-
दायमाबाद में तांबे की चार वस्तुएं मिली है रथ चलाते हुए मनुष्य, सांड, गेंडे और हाथी की आकृतियां जिनमें प्रत्येक ठोस धातु की है और उसका वजन कई किलो हैं। इनके प्रमुख अनाज हैं – जौ, गेहूं, मसूर, मटर और कहीं कहीं चावल भी मिले है। बेर की झुलसी हुई गुठलियां भी पाई गई हैं। नेवासा में पटसन का साक्ष्य मिला है। पालतू बनाए गए पशुओं में गाय, बैल, बकरी, भेड, सुअर और घोड़ा शामिल थे। यहां से ढेर सारे मन मिले हैं। मृण्मूर्तियों में मात्र देवी के अनेक रूप मिलते हैं। मातृ देवी की एक आकृति सांड की आकृति के साथ जुड़ी हुई मिली है। एक प्रमुख विशेषता यह है कि बहुत सारे शवाधान कलश में किए गए है और यह कलश घरों के फर्श के नीचे रखे मिले हैं।
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