इसकी पहचान चाक पर बने चॉकलेट रंग के मृद्भाण्डों से की जाती है। ये मृद्भांड बनावट में मोटे हैं और इन पर गहरा लेप चढ़ा रहता है। मृद्भांड की आकृतियों में ऊंची गर्दन वाला मर्तबान, तश्तरी, पायदान सहित तश्तरी, कटोरी, नडिया, छल्ला, खूंटी, बड़ा मर्तबान, कुंडीदार ढक्कन, बीकर आदि देखे जा सकते हैं। इस लेख में ताम्रपाषाण की सवालदा संस्कृति के बारे में विस्तृत जानकारी लिखेंगे|
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ताम्रपाषाण में सवालदा मृद्भांड:-
इस अपर एक विशिष्टता मोटे लेप के ऊपर बनाए गए चित्र हैं, जिसमें मृद्भांड पर हथियार, औज़ार एवं अन्य ज्यामितिय प्रतीकों का चित्रण देखा जा सकता है। काओचे सवालदा संस्कृति का दूसरा केंद्र है। यह इस सभ्यता के लोगों का एक अल्पकालिक निवास क्षेत्र माना जाता है। घरों का आकार अंडाकार या गोलाकार होता था, जिस पर ढलवीं छत बनी होती थी। हड्डियों से बने औज़ारों के अतिरिक्त हड्डी, शंख, कार्नेलियन और टेराकोटा के आकर्षक मनके पाए गए हैं। जंगली हिरण एवं पालतू मवेशी, भैंस, भेड़, बकरी और कुत्तों की हड्डियां चिह्नित की गई हैं। उगाए जाने वाले पौधों में बाजरे की कई प्रजातियों के अतिरिक्त चने और मूंग के अवशेष मिले हैं। यहां से प्राप्त मृद्भाण्डों पर ज्यामितिय तथा प्राकृतिक प्रतीकों के डिजाइन बनाए गए हैं।
ताम्रपाषाण अवस्था में अनाज, भवन, मृद्भांड :- इसमें क्षेत्रीय अंतर भी दिखाई देते हैं। पूर्वी भारत चावल उपजाता था, तो पश्चिमी भारत जौ और गेहूँ । महाराष्ट्र में मृतक को कलश में रखकर अपने घर में फर्श के अंदर उत्तर-दक्षिण स्थिति में लोग गाइते थे। हड़प्पाई लोगों की तरह अलग-अलग कब्रिस्तान नहीं होते थे। कब्र में मिट्टी की हड़ियाँ और तांबे की कुछ वस्तुएँ भी रखी जाती थीं, जो जाहिर है कि परलोक में मृतक के इस्तेमाल के लिए होती थीं। मिट्टी की स्त्री-मूर्तियों से प्रतीत होता है कि ताम्रपाषाण युग के लोग मातृदेवी की पूजा करते थे। कई कच्ची मिट्टी की नग्न मूर्तिकाएँ भी पूजी जाती थीं। इनामगाँव में मातृदेवी की प्रतिमा मिली है। मालवा और राजस्थान में मिली मिट्टी की वृषभ मूर्तिकाएँ यह सूचित करती हैं कि वृषभ (साँइ) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।
ताम्रपाषाण समाज में समाज की कल्पना :-
बस्ती के ढाँचों और शव संस्कार विधि दोनों से पता चलता है कि ताम्रपाषाण समाज में असमानता आरंभ हो चुकी थी। महाराष्ट्र में पाई गई कई जोरवे बस्तियों में एक तरह का ऊँच-नीच का क्रम दिखाई देता है। कुछ बस्तियाँ तो बीस हेक्टर तक की बड़ी-बड़ी हैं, जबकि कुछ केवल पाँच हेक्टर या उससे भी छोटी हैं। बँस्तियों के विस्तार में अंतर का अर्थ है कि बड़ी-बड़ी बस्तियों का दबदबा छोटी-छोटी बस्तियों पर रहता था।
लेकिन बड़ी और छोटी दोनों तरह की बस्तियों में सरदार और उनके नातेदार आयताकार मकानों में रहते थे और गोल झोंपड़ियों में रहने वाले पर प्रभुत्व रखते थे। इनामगाँव में शिल्पी या पंसारी लोग पश्चिमी छोर पर रहते थे, जबकि सरदार केंद्रस्थल में रहता था। इससे निवासियों के बीच सामाजिक दूरी जाहिर होती है। पश्चिमी महाराष्ट्र की चंदोली और नेवासा बस्तियों में पाया गया है कि कुछ बच्चों के गलों मैं तांबे के मनकों का हार पहना कर उन्हें दफनाया गया है, जबकि अन्य बच्चों की कब्रों में सामान के तौर पर कुछ बरतन मात्र हैं।
भारत में ताम्रपाषाण युग:-
भारत के मध्य और पश्चिमी भागों में ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ 1200 ई. पू. में. या 1000 ई० पू० आते-जाते लुप्त हो गई; केवल जोरवे संस्कृति 700 ई. पृ• तक जीवित रही। पश्चिमी भारत और पश्चिम मध्य प्रदेश मैं ताम्रपाषाण वस्तियों के लुप्त होने का कारण लगभग 1200 ई० पू० के बाद से वर्षा की कमी मानी जाती है। लेकिन लाल मिट्टी वाले क्षेत्रों में, खासकर पूर्वी भारत में ताम्रपाषाण अवस्था के तुरंत बाद, लौह अवस्था आ धमकी और उसने धीरे-धीरे लोगों को पूरा खेतिहर बना दिया। यही बात मध्य गंगा के मैदान में स्थित ताम्रपाषाण संस्कृतियों पर लागू होती है। इसी तरह दक्षिणी भारत के कई स्थलों पर ताम्रपाषाण संस्कृति ने लोहे का इस्तेमाल करने वाली महापाषाण संस्कृति का रूप ले लिया।
इसे भी समझें :-
भारत में ताम्रपाषाण युग, जिसे ताम्र युग के रूप में भी जाना जाता है, एक ऐसा काल था जिसमें पत्थर और धातु दोनों उपकरणों का उपयोग होता था। इस समय के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों के समुदायों ने पत्थर के औजारों के साथ-साथ, आभूषणों और अन्य उपकरणों के लिए तांबे का उपयोग करना शुरू कर दिया। यह परिवर्तन प्राचीन भारतीय समाज के तकनीकी और सामाजिक-आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण कदम था। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ थीं, प्रत्येक की अपनी अनूठी विशेषताएँ और प्रथाएँ थीं। इन संस्कृतियों ने बहुमूल्य पुरातात्विक साक्ष्य छोड़े हैं। जो उनकी जीवनशैली, व्यापार और सामाजिक संरचनाओं के बारे मैं जानकारी प्रदान करते हैं।
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