जालियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड की ही तरह छतरपुर के चरण पादुका नामक स्थल पर अंग्रेजों ने निहत्थी भीड़ पर गोली चलाकर चरण पादुका हत्याकाण्ड को अंजाम दिया। जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड 13 अप्रैल 1919 को वैशाखी के दिन हुआ था। तो चरण पादुका का हत्याकाण्ड 14 जनवरी 1931 को मकर संक्रान्ति के दिन हुआ ।
चरण-पादुका स्थान छतरपुर से उत्तर-पूर्व की ओर 50 कि.मी. दूर तथा खजुराहो से उत्तर की ओर 26 कि.मी. दूर ग्राम सिंहपुर, तहसील नौगाँव, जिला छतरपुर में स्थित है। चरण पादुका एक पवित्र तीर्थ स्थल है। कहा जाता है कि वनवास काल में श्रीराम इस स्थान पर ठहरे थे। यहाँ बहने वाली उर्मिल नदी के मध्य श्रीरामचन्द्र जी के चरण-चिह्न एक प्रस्तर खण्ड पर अंकित हैं इसीलिए यह स्थान चरण पादुका कहलाता है। जनता यहाँ पूजा-अर्चना करने आती है।
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छतरपुर का चरण पादुका हत्याकाण्ड से पहले बुन्देला विद्रोह का इतिहास:-
बुन्देलखण्ड में 1842 के बुन्देला विद्रोह एवं 1857 की क्रान्ति में जनता ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अंग्रेजों को इनके दमन में अत्यन्त ही परेशानी का सामना करना पड़ा। इस प्रकार समस्त बुन्देलखण्ड में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत् हुई। बुन्देलखण्ड भारत में चल रहे क्रान्तिकारी आन्दोलन से भी अछूता नहीं रहा । महान् क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद काकोरी ट्रेन काण्ड के पश्चात् गिरफ़्तारी से बचन के लिए भागकर झाँसीचन्द्रशेखर आज़ाद आए और मास्टर रुद्रनारायण के यहाँ सुरक्षित रहे। ओरछा रियासत सतारा नदी के तट पर कुटिया बनाकर वे हरिशंकर ब्रहाचारी के नाम से रहे। यह कुटिया बुन्देलखण्ड में क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र बनाई गयी |
छतरपुर का चरण पादुका हत्याकाण्ड से पहले चन्द्रशेखर आज़ाद की बुंदेलखंड में अध्यक्षता:-
4 सितम्बर 1929 को चन्द्रशेखर आज़ाद की अध्यक्षता में केन नदी के पास पाण्डव प्रपात पर क्रान्तिकारियों की एक सभा हुई। इससे बुन्देलखण्ड में राष्ट्रीय चेतना की लहर एक बार पुनः प्रसारित हुई। बुन्देलखण्ड में अज्ञातवास के रूप में रहने का कारण चन्द्रशेखर आज़ाद ने यह बताया कि – “विश्व के सबसे बड़े क्रान्तिकारी राम अयोध्या से आकर यहाँ ठहरे थे, इसके अतिरिक्त बुन्देलखण्ड की यह भूमि अनादिकाल से साधना भूमि रही है जिसमें में भी साधना करने आया हूँ।” इस प्रकार बुन्देलखण्ड की रियासतों में तेजी से आन्दोलन की हवा प्रवाहित होने लगी।
उपर टीकमगढ़ रियासत का कुण्डेश्वर भी क्रान्तिकारी आन्दोलनका गया। अब बुन्देलखण्ड में इन क्रान्तिकारियों के दमन हेतु ब्रिटिश शासन ने अपना दमन चक्र भी चलाया। रामसहाय तिवारी चन्द्रशेखर आजाद के सम्पर्क में आए और एक प्रमुख क्रान्तिकारी बन गए। 1929 में उन्हें छतरपुर रियासत द्वारा छः माह की सजा दी गई। चरखारी, छतरपुर, लुगासी, टीकमगढ़ एवं हमीरपुर आदि रियासतों में उन पर अनेक मुकदमे चलाए गए। 29 नवम्बर 1929 को जब महात्मा गाँधी महोबा आए तब एक बार पुनः बुन्देलखण्ड में जन-चेतना प्रसारित हुई।
बुन्देलखण्ड में महात्मा गाँधी का आगमन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन के इतिहास के कुछ पन्ने :-
1930 ई. में जब भारत में महात्मा गाँधी की अगुआई में सविनय अवज्ञा आन्दोलन (नमक सत्याग्रह) चल रहा था, उस समय बुन्देलखण्ड की छतरपुर, अजयगढ़ एवं बिजावर रियासतों में कर-विरोधी आन्दोलन चला इस आन्दोलन के सर्वप्रमुख नेता पं. रामसहाय तिवारी थे। बुन्देलखण्ड की जनता करों के बोझ से कराह रही थी। बुन्देलखण्ड की रियासतों के राजा भारतीय होते हुए भी जनता पर अत्याचार कर रहे थे। कर वसूल कर रहे थे।
पिछड़ी जातियों पर “हालू” कर लगा था। पिता की मृत्यु पर “मृत्यु चौथा”, विधवा पुनर्विवाह पर “बचलखा”, हल की लकड़ी पर “हरोका”, खेत पर बनाई गई झोंपड़ी पर “मंडवकाश्त” कर लगाया गया था। इनके अलावा जोजियत, पेलवा, दामी, जुजावन, महूटा, गलयावन, सरी एवं चमड़ा कर भी लगता था इन करो की वसूली भी अमानवीय तरीकों से की जाती थी| इनके अलावा नज़राना पृथक से देना होता था इन अमानवीय करों के विरोध में बुन्देलखण्ड की जनता आन्दोलित हो पई, इनके आन्दोलन से रियासत के राजाओं में पबराहट फैल गई। उन्होंने नौगाँव स्थित पालिटिकल एजेण्ट कर्नल फिशर से मदद मांगी।
नवम्बर 1930 में छतरपुर रियासत की लौडी तहसील में कर न देने के कारण गनेशा हरिजन को इतना पीटा गया कि उसकी मृत्यु हो गई। इससे उत्तेजना और अधिक बढ़ गई। बिजावर रियासत में आन्दोलनकारियों की सभा को तितर-बितर करने के लिए हाथी को लोहे की जंजीर देकर छोड़ा गया। सभा तो बिखर गई मगर राजाओं के अत्याचारों के खिलाफ आक्रोश बढ़ता गया। अब समस्त बुन्देलखण्ड की रियासतों में यह आन्दोलन फैल गया।
राजाओं के अत्याचारों का सामना करने उनके अत्याचारों से लड़ने आन्दोलनकारियों ने एक संगठन बनाया। रंगोली के कुँवर हीरासिंह सभापति एवं पं. रामसहाय तिवारी को मन्त्री चुना गया। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर जन सभाएं कर जनता में राष्ट्रीय चेतना विकसित करने का कार्य आरम्भ किया। 30 अक्टूबर 1930 को चरण पादुका नामक स्थल पर आम सभा हुई, इस सभा में एक लाख से अधिक लोग एकत्रित थे। सभा स्थल पर ही भोंदूराजा बिलहारी के द्वारा फिशर ने एक पत्र रामसहाय तिवारी के इस भेजा। उसमें लिखा था कि पॉलिटिकल एजेण्ट धुर बेहर नामक स्थान पर जन प्रतिनिधियों से मिलना चाहते हैं|
पुर बेहर में जनता का हुजूम उमड़ पड़ा। उधर जनता को आतंकित करने फिशर ने भी भारी संख्या में पुलिस बल तैनात किया था। फिशर ने नेताओं को बताया कि 4 जनवरी 1931 को इन्दौर स्थित गवर्नर-जनरल के एजेण्ट नौगाँव आ रहे हैं, आप उनसे मिलकर अपनी समस्याएं उन्हें बताएं। जनता ने संदेश देने आने वाले भोंदूराजा के पुत्र नत्थूराजा को चरण पादुका में अपनी गिरफ्त में जमानत स्वरूप रखा था। जनता को आशंका थी कि कहीं फिशर जन नेताओं को मिलने के बहाने बुलाकर उन्हें गिरफ़्तार न कर ले। जब फिशर ने सिर्फ वार्ता की तब नत्थूराजा एजेण्ट टू गवर्नर जनरल (ए.जी.जी.) इन्दौर से मिलने के पूर्व ज प्रतिनिधियों ने छतरपुर महाराज से मिलकर अपनी समस्याओं का समाधान करने का फैसला लिया। उनका मानना था कि जनता एवं रियासत के राजा के मध्य की समस्याओं के समाधान में अंग्रेजों की मदद क्यों जाए, क्यों उन्हें अधिक महत्त्व दिया जाए।
रामसहाय तिवारी तहसीलदार श्री श्याम सुन्दर भट्ट के साथ दीवान सुखदेव बिहारी से मिले, जिसने छतरपुर महाराज से उनकी मुलाकात का समय तय किया। जब नौगांव के पॉलिटिकल एजेण्ट फिशर को इस समझौता वार्ता की जानकारी वह तिलमिला उठा। उसे अपने महत्त्व पर प्रश्नचिह्न लगा दिखाई दिया। उसने क्रोध के वशीभूत दीवान सुखदेव बिहारी को छतरपुर बाध्य किया। तहसीलदार श्याम सुन्दर भट्ट को भी निलम्बित कर दिया है रायबहादुर इकबाल किशन तनखा की छतरपुर रियासत का नया दीवान नियुक्त किया गया। इस तरह महाराज छतरपुर से शान्ति वार्ता न हो|
अब जन-प्रतिनिधियों के पास एकमात्र विकल्प था, नौगांव में इन्दौर से भेंट कर उनसे अपनी समस्याओं के समाधान हेतु वार्ता करना। 4 जनवरी 1931 को लगभग 2,000 लोगों के साथ जन-प्रतिनिधि ए इन्दौर से भेंट करने नौगाँव पहुंचे ए.जी.जी. इन्दौर ने स्पष्ट किया कि आपको लगान एवं कर देने ही होंगे। आपकी शिकायतों, लगान व अब्बाद की जाँच करने अनुभवी अंग्रेज अधिकारी मिस्टर विल्स को नियुक्त किए गया है वह बन्दोबस्त व्यवस्था के अच्छे जानकार हैं। वह अगले माह आकर आपसे भेंट करेंगे एवं देखेंगे कि लगान कितना ज्यादा है। जाँच उपरान्त वह जो भी रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे उसके अनुसार हम आगामी कार्यवाही करेंगे। ए. जी. जी. इन्दौर के इस कथन से जनता सन्तुष्ट नहीं हुई। अंग्रेज़ों का रुख जनविरोधी दिखा। उनकी बातों से अहंकार फूट रहा था अतः जनता शान्त होने के स्थान पर और भड़क उठी फिशर को भी एहसास हो गया कि जनता आन्दोलित हो रही है।
दूसरे ही दिन 5 जनवरी 1931 को उसने आस-पास की सभी रियासतों को किसी भी आकस्मिक घटना का मुकाबला करने हेतु सावधान कर दिया। मालवा से फोल एवं भील फीज को बुलवाकर सभी जगह तैनात कर दिया 6 से 12 जनवरी 1931 को आन्दोलनग्रस्त क्षेत्रों हेतु अपना दौरा कार्यक्रम जारी किया। लुगासी रियासत का राजा नाबालिग था अतः फिशर की देख-देख में वहाँ का शासन चल रहा था। लुगासी रियासत के टीकुर गाँव में जनता ने फिशर का विरोध किया। फिशर ने टीकुर जाकर वहाँ के क्रान्तिकारियों पर अत्याचार किए। रामसहाय तिवारी ने उत्तेजित होते. हुए फिशर की हत्या करने का संकल्प लिया।
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जब फिशर टीकुर ग्राम में रुका हुआ था तब रामसहाय तिवारी सख्त पहरे से बचते हुए रिवाल्वर लेकर उसके तम्बू तक पहुंच गए। रामसहाय तिवारी को खानसामा ने देख लिया और खतरे का बिगुल बजा दिया। रामसहाय तिवारी को गिरफ़्तार कर लिया गया। उन पर 124ए/109 ताजी-राते-हिन्द के अन्तर्गत मुकदमा चला। उन्हें 9 वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई।
रामसहाय तिवारी छतरपुर रियासत के एक अत्यन्त ही लोकप्रिय नेता थे। उनकी गिरफ़्तारी से जनता और अधिक आन्दोलित हो उठी। जनता ने अपने लोकप्रिय नेता की रिहाई के लिए एक बहुत बड़ा प्रदर्शन चरण पादुका में करने का निर्णय लिया। 14 जनवरी मकर संक्रान्ति को में मेला भरता था अतः इस मेले में आस-पास की जनता आती थी। इस बार अपने लोकप्रिय नेता की रिहाई हेतु और अधिक जनता यहाँ एकत्रित हुई। यहाँ 14 जनवरी 1931 को आयोजित विशाल जनसभा के सभापति सरजू दउआ थे। रामसहाय तिवारी का जो मन्त्री का पद रिक्त हुआ था, उस पद पर लल्लूराम नियुक्त हुए।12 लल्लूराम जब इस विशाल सभा को सम्बोधित कर रहे थे उसी समय फिशर चौदह-पन्द्रह बसों में फौज़ भरकर सभा स्थल पर आ गया।
सभा स्थल को चारों ओर से घेर लिया। मशीनगन लगा दी गई। जन-प्रतिनिधियों से मंच खाली करने हेतु कहा गया। जन-प्रतिनिधियों ने कहा पहले हमारी माँगे मानी जाएं, तभी मंच खाली किया जाएगा। फिशर द्वारा लाई गई इस फौज़ की घेराबन्दी देखकर भी चरण पादुका में एकत्रित साठ-सत्तर हजार लोगों की विचलित नहीं हुई। सभा की कार्यवाही चलती रही। फिशर आखिर यह कैसे बर्दाश्त कर सकता था। उसने भीड़ पर गोली दागने का आदेश दे दिया। बेरहमी से निहत्थी भीड़ पर मशीनगनों से गोलियाँ चलाई गई।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस चरण पादुका हत्याकाण्ड में 21 की मृत्यु हुई एवं 26 व्यक्ति घायल हुए। वस्तुतः इस हत्याकाण्ड में मरने वालों एवं घायलों की संख्या इन आंकड़ों से कहीं अधिक थी। मरने की 6 लाशें सरकार द्वारा उनके परिवार वालों को दी गई। ये थे सुन्दरलाल वैश्य, छीरु कुर्मी, रामलाल कुर्मी, बधैया के हल अक्षर, खिरवा के धरमराठ एवं गुना बुरवा के रामलाल शामिल थे।
सरजू दउआ सुन्दरलाल के शव को महोबा से जाना चाहते थे, ताकि कॉंग्रेस के समक्ष इसे रखकर यह बताए कि रियासतों की सरकार निरीह लोगों पर कैसा नादिरशाही अत्याचार कर रही है, परन्तु सरजू दा को गिरफ़्तार कर लिया गया। नाज़िम मुंशी फजलुलहक के न्यायालय में मुकदमा चलाकर उन्हें 4 वर्ष के कारावास की सजा दी गई। 20 अन्य व्यक्तियों को भी गिरफ्तार कर 3 वर्ष की सजा दी गई।
इस चरण पादुका हत्याकाण्ड में मरने वालों की संख्या बहुत अधिक थी। गोलियाँ चलने पर चारों ओर हाहाकार मच गया था। किसी कवि ने लिखा है।
लाशों से मैदान भर गया, खून बहा फिर पानी में, देखी गई तभी उतरती, लाशें नदिया रानी में इस प्रकार उस चरण पादुका हत्याकाण्ड में मरने वालों की संख्या अत्यधिक थी। फौज़ का मन मात्र इस हत्याकाण्ड से नहीं भरा। इस नरसंहार के उपरान्त फौज़ ने कई मकानों को लूटा, कई मकानों को जला दिया। मल्लसिंह दउआ के मकान को गिरा दिया एवं लल्लूराम शर्मा के मकान को जला डाला।
चरण पादुका हत्याकाण्ड की जाँच करने 15 जनवरी 1931 को बुन्देलखण्ड की देशी रियासतों के राजाओं की एक पीस काउंसिल की बैठक नौगाँव में हुई। इस बैठक के पश्चात इन्होंने कहा कि ब्रिटिश फौज को गोलियाँ विवशता में चलानी पड़ी। पहले भीड़ की और से गोलिय चलाई गई, जिसमें मिस्टर फिशर एवं उनके साथी बाल-बाल बच गए। इसी कारण फिशर को अपने बचाव स्वरूप मशीनगनों से गोलियाँ चलवानी पड़ी। यह गोलियाँ जनता पर न चलाकर ऊपर की ओर चलाई गई।
इस प्रकार रियासत के राजा अंग्रेजों के स्वामी भक्त निकले, उन्होंने फिशर का पूरा-पूरा बचाव किया। इन्होंने यह भी कहा कि फिशर के कारण एवं कोल-भील पलटन के आ जाने से बुन्देलखण्ड में शान्ति का वातावरण निर्मित हुआ है।
साथ ही यह भी निर्णय लिया गया कि जब तक बुन्देलखण्ड में पूर्णतः शान्ति नहीं हो जाती, मालवा की कोल-भील पलटन को बुन्देलखण्ड में ही रखा जाए। चरण पादुका हत्याकाण्ड को बुन्देलखण्ड का जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की संज्ञा दी गई। इस हत्याकाण्ड में शहीद होने वालों में एक सेठ सुन्दरलाल भी थे।
सेठ सुन्दरलाल ददरया का जन्म 5 मार्च 1901 को ग्राम गिलीहा, जिला उतरपुर मे हुआ था। इनकी प्रारभिक शिक्षा लौंड़ी में हुई थी एवं उनका प्रमुख व्यवसाय व्यापार था। इन्होंने अंग्रेज़-विरोधी आन्दोलन में सक्रियता से भाग लिया। इनके शहीद होने के पश्चात् 17 जनवरी 1931 को इनके घर की सारी सम्पत्ति फौज़ द्वारा लूट ली गई। उनकी वृद्ध माता, असहाय पत्नी परम देवी, 9 वर्षीय पुत्री रमादेवी, 7 वर्षीय पुत्र लक्ष्मी प्रसाद रोते रहे, बिलखते रहे। पलटन को उन पर कोई तरस नहीं आया। सुन्दरलाल की पत्नी गर्भवती थी। दो माह बाद उन्होंने पुत्र को जन्म दिया।
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