टीकमगढ़ में स्वतन्त्रता संघर्ष [ कांग्रेस का इतिहास ] [UPSC] [M.P.]
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टीकमगढ़ में स्वतन्त्रता संघर्ष [ कांग्रेस का इतिहास ] [UPSC]  [M.P.]

by रवि पाल
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भारत देश जिस तरह से आज दिखाई देता है क्या उस तरह का भारत 1947 से पहले भी था ?शायद आपका उत्तर होगा , नहीं , फिर उस तरह का भारत कैसा रहा होगा ? आज के इस लेख में  टीकमगढ़ में स्वतन्त्रता संघर्ष [ कांग्रेस का इतिहास ] के बारे में समझेंगे और जानंगे | टीकमगढ़, सागर संभाग का जिला है। स्वाधीनता पूर्व टीकमगढ़ एक देशी रियासत थी, जो ओरछा के नाम से जानी जाती थी। ओरछा राज्य की राजधानी टीकमगढ़ थी। ओरछा राज्य की विक्टोरिया’ कही जाने वाली ओरछा की रानी लड़ाई सरकार, झाँसी के मराठा राज्य के प्रति शत्रुता का भाव रखती थी। उन्हें यह लगता था कि मराठों ने ओरछा के भू-भाग को लेकर झाँसी राज्य की स्थापना की है।

टीकमगढ़ में स्वतन्त्रता संघर्ष तथा  राजा गंगाधर राव की मृत्यु के उपरान्त क्या हुआ :-

21 नवम्बर 1853 को झाँसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु के उपरान्त रानी लड़ई सरकार को लगा कि अब वह आसानी से रानी लक्ष्मीबाई से झाँसी प्राप्त कर सकती है। उसके दीवान नत्थे खाँ ने झाँसी पर आक्रमण भी किया मगर वह परास्त ” परास्त होकर वह इन्दौर चला गया | ह्यूरोज की 1857 के क्रान्तिकारियों के विरुद्ध गुप्त सूचनाएं देकर मदद को लड़ई सरकार अंग्रेज़ों की मित्र थी उसने पन्ना, बिजावर, चरखारी, तोड़ी, दतिया, अजयगढ़ आदि सभी बुन्देला राज्यों से झाँसी के मराठों के विरुद्ध संगठित रहने के निर्देश दिए। स्यूरोज द्वारा झाँसी पर हमला करने पर रानी झाँसी छोड़कर चली गई। 3 अप्रैल 1857 को झाँसी पर ब्रिटिश सत्ता स्थापित हो गई |

बुन्देलखण्ड के राजाओं में प्रथम राजा की उपाधि तथा हमीर सिंह के बाद का इतिहास:-

1868 में लड़ई सरकार का एवं 1874 में हमीर सिंह का देहान्त हो गया। इसके पश्चात् के छोटे भाई प्रताप सिंह ओरछा के राजा (1874-1930 ई.) बने इनके अंग्रेजों के साथ अच्छे सम्बन्ध थे। 1882 में अंग्रेज़ों ने उन्हें सवाई की उपाधि प्रदान की। 1886 में उन्हें सर्वोच्च उपाधि “सरामद-ए-राजा- बुन्देलखण् (बुन्देलखण्ड के राजाओं में प्रथम राजा) की उपाधि प्रदान की गई में प्रताप सिंह ने जनहित के लिए टीकमगढ़ में अस्पताल खोला। 1891 मे टीकमगढ़ नगर की स्वच्छता के लिए महाराजा प्रताप सिंह ने नगरपालिका की स्थापना की।

1877 में महाराजा प्रताप सिंह ब्रिटिश सम्राट् एडवर्ड सप्तम के दरबार में भाग लेने दिल्ली गए। उसी समय ओरछा को ने 17 तोपों की सलामी का अधिकार दिया। 1894 में महाराजा प्रताप सिंह को “नायब कमाण्डर ऑफ इण्डियन एम्पायर” (के.सी.आई.ई.) की उपाधि प्राप्त हुई। 1898 में उन्होंने महारानी विक्टोरिया की स्वर्ण जयन्ती हेतु 5,000 रुपए दिए। सन् 1900 में विक्टोरिया मेमोरियल कलकत्ता के निर्मा 12,000 रुपए प्रदान किए|

1898 में प्रताप सिंह ने अयोध्या में कनक मन्दिर का निर्माण कराया। 1909 में जनकपुर में जानकी मन्दिर का निर्माण कराया। 1910 में प्रयाग की यात्रा की। 3,000 रुपए एडवर्ड मेमोरियल को दिए। 2,000 रुप इलाहाबद मेमोरियल फण्ड को दिए। 1902 में भारत का वायसराय लॉर्ड कर्जन ओरछा आया। उनका भव्य स्वागत किया। 1911 में जॉर्ज पंचम के कॉरोनेशन दरबार में भाग लेने दिल्ली गए। 1921 में पुनः राजकुमार वेल्स के दिल्ली दरबार में भाग लिया।

1911 में जॉर्ज पंचम के कॉरोनेशन दरबार में भाग लेने दिल्ली तथा 1921 में पुनः राजकुमार वेल्स के दिल्ली दरबार मे भाग लेने के लिए आये:-

1924 में 50 वर्ष तक वैभवपूर्ण शासन करने के उपलक्ष्य में महाराजा प्रताप सिंह की गोल्डन जुबली मनाई गई। इस स्वर्ण जयन्ती समारोह को धूमधाम से मनाया गया। इसकी यादगार स्वरूप 11 प्राइमरी स्कूल आरम्भ किए गए। कर्मचारियों को एक माह का वेतन मुफ्त दिया गया। कृषकों के लगान के 11 लाख रूपए माफ कर दिए गए। जागीरदारों के उबारी के ढाई लाख रुपए माफ कर दिए गए। इस अवसर पर गजाशाही रुपया भी चलाया गया|

इसलिए यहाँ की जनता उनके साम्राज्य में सुखी थी। 1920 के असहयोग आन्दोलन एवं 1923 के मण्या सत्यामह का यहीं कोई अधिक प्रभाव नहीं देखा गया। असहयोग आन्दोलन के दौरान टीकमगढ़ का कुण्डेश्वर राष्ट्रीय का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ निम्न रचनात्मक गतिविधियों चलाए जाने पर विशेष ओर होता था

• विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार

• सरकारी नौकरियों का बहिष्कार

शिक्षा हेतु देशी संस्थाओं की स्थापना ब्रिटिश सरकार से सभी सम्बन्ध तोड़ना

ब्रिटिश अदालत के स्थान पर पंचायतों में अपने मामले ले जाकर समाधान प्राप्त करना

टीकमगढ़ में स्वाधीनता आन्दोलन में चन्द्रशेखर आजाद की भूमिका:-

महोबा में चलने वाले स्वाधीनता आन्दोलन का प्रभाव भी टीकमगढ़ पर पड़ा। महोबा की सभा में अली बन्धुओं ने जनता से अपील की कि देशी वस्तुओं का बहिष्कार कर अंग्रेजी शासन को कमजोर करें, भाई- बरे को बढ़ावा दें। टीकमगढ़ में स्वाधीनता आन्दोलन के प्रारम्भ होने का श्रेय चन्द्रशेखर आजाद को जाता है।

1924 में चन्द्रशेखर आजाद अपनी क्रान्तिकारी के परिणामस्वरूप अज्ञातवास में ओरछा के समीप सतारा नदी के किनारे एक छोटी-सी कुटिया में हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से रहे। है ऊपरी तौर पर तो पास ही के ग्राम डिमरपुरा में बच्चों को पढ़ाते थे। इसके साथ-साथ वह यहाँ गुप्त रूप से क्रान्तिकारी गतिविधियाँ भी संचालित करते थे। उन्होंने यहाँ रहकर यहाँ की जनता में राष्ट्रवादी भावनाएं ति की। उनके सानिध्य में आकर बिनवारा के लालाराम बाजपेयी ने नाकेदारी की नौकरी छोड़ दी। वे झाँसी जिले के वरिष्ठ काँग्रेसी नेताओं के सम्पर्क में आए। उन्होंने ही निवाड़ी में काँग्रेस संगठन की नींव डाली। गुप्त रूप से टीकमगढ़ रियासत में काँग्रेसी विचारधारा का प्रचार-प्रसार आरम्भ किया।

उधर 3 मार्च 1930 को ओरछा नरेश प्रताप सिंह का स्वर्गवास की गया। उनके पश्चात् वीरसिंह देव द्वितीय (1930-56) प्रताप सिंह के प भगवंत सिंह के पुत्र ओरछा के राजा बने। उनका जन्म 15 अप्रैल 1888 हुआ था। 4 नवम्बर 1930 को कर्नल आर. जे.डब्लू. हील (एजेण्ट ६.६ गवर्नर-जनरल सेण्ट्रल इण्डिया) ने वीरसिंह देव को मुकुट पहनाकर पर बिठाया। इस शुभ अवसर पर वीरसिंह देव द्वितीय ने 100 प्राथमिक विद्यालय खोलने की घोषणा की। 1931 ई. में विंध्येश्वरी प्रसाद पाण्डेय को प्रधानमन्त्री बनाया। 1933 में सज्जन सिंह को प्रधानमन्त्री बनाया गया।

टीकमगढ़ में स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस की बघेलखण्ड शाखा का जन जागरण अभियान:-

1930 में भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस की बघेलखण्ड शाखा के अन्तर्गत बुन्देलखण्ड में जन-जागरण आन्दोलन आरम्भ हुआ। ओ के उपर पश्चिम में झाँसी (अंग्रेज़ी राज्य था एवं दक्षिण-पूर्व में सागर राज्य था। इन दोनों अंग्रेजी राज्यों में जो अंग्रेजविरोधी गतिविधि रही थीं, उनका प्रभाव ओरछा राज्य पर भी पड़ा।

1936 में लखनऊ में कॉंग्रेस का अधिवेशन हुआ। इसमें भाग टीकमगढ़ से लालाराम बाजपेयी पैदल ही गए। वहाँ के चोटी के नेताओं के सम्पर्क में आए। लौटकर उन्होंने टीकमगढ़ एवं निवाड़ी में कांग्रेसी विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया ।” 1937 में अंग्रेज़ी क्षेत्र ललितपुर मह के निर्वाचन क्षेत्र में कॉंग्रेस उम्मीदवार रघुनाथ विनायक धुलेकर चुनाव में खड़े हुए। इन्हें जिताने हेतु प्रचार के सिलसिले में पं. जवाहरलाल नेहरू टीकमगढ़ से गुजरे। उनके दर्शन एवं भाषण सुनने भीड़ उमड़ी। ओरछा नरेश वीरसिंह देव द्वितीय ने उन्हें टीकमगढ़ में रुकने की अनुमति नहीं दी। इससे राजा के विरुद्ध जन भावना भड़क उठी।

1930 के बाद टीकमगड़ का इतिहास:-

1937 में ही टीकमगड़ में राष्ट्रीय पुस्तकालय एवं खादी भण्डार की स्थापना हुई। कैप्टन अवधेश प्रताप सिंह ने लालाराम बाजपेयी, चतुर्भुज पाठक देवीसिंह रावली, प्रेमनारायण खरे तथा नारायण दास खरे को विधिवत कॉंग्रेस का सदस्य बनाकर टीकमगढ़ राज्य में काँग्रेस संगठन की नेहाली 30 सितम्बर 1937 को उत्तर प्रदेश के नेताओं का एक जत्था भी मुख्तार अहमद की अध्यक्षता मे सत्याग्रह मनाने टीकमगढ़ आया। इस जाथे में रामेश्वर दयाल शर्मा एवं स्वराज्यानन्द भी थे।

झण्डा सत्याग्रह के लिए आए इस दल का स्वागत एवं अगवानी श्री प्रेमनारायण खरे, नारायण दास खरे, चतुर्भुज पाठक एवं सेठ जाबिर भाई आदि ने गऊघाट पर की 1 टीकमगढ़ में झण्डा सत्याग्रह हेतु आने वाले जत्थे चतुर्भुज पाठक था। श्री नारायण दास खरे का जन्म ग्राम देलवारा नारायण दास खरे को टीकमगढ़ की सीमा से लगभग एक मील की दूरी पर पुलिस तथा शासन के वरिष्ठ कर्मचारियों द्वारा रोक लिया गया। सत्याग्रहियों की जमकर पिटाई की गई। उन्हे एक मोटर में भरकर राज्य की सीमा से बाहर खदेड़ दिया गया। टीकमगढ़ में झण्डा सत्याग्रह आन्दोलन का नेतृत्व श्री नारायण दास खरे ने किया जिला झाँसी उत्तर प्रदेश में 14 फरवरी 1918 को हुआ था। इनके पिता श्री गनपत सिंह का बचपन में ही स्वर्गवास हो जाने के कारण नारायण दास अपने चाचा पारीक्षत के साथ रहते थे।

बुंदेलखंड के इतिहास के पन्ने ;-

नारायण दास खरे के बड़े भाई एवं चाचा पारीक्षत दोनों को ही स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के कारण सरकारी नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। श्री नारायण दास खरे को अपने भाई एवं चाचा से भी स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने की प्रेरणा मिली। नारायण दास खरे ने मात्र 17 वर्ष की आयु में ही झण्डा सत्याग्रह का नेतृत्व किया। इस सत्याग्रह में भाग लेने के कारण इनकी पिटाई की गई एवं ओरछा राज्य से इन्हें निष्कासित कर दिया गया। इस कर इन्हें पढ़ाई-लिखाई छोड़नी पड़ी।

झण्डा सत्याग्रह के लिए आए जत्थे के प्रमुख स्वागतकर्ता श्री प्रेमनारायण खरे एवं चतुर्भुज पाठक को गिरफ्तार कर नजरबन्द कर लिया गया। सरकार के इस दमन चक्र की जाँच की गई। महाकौशल काँग्रेस कमेटी, जिला कॉंग्रेस कमेटी, झाँसी के हस्तक्षेप पर इन दोनों नेताओं को रिहा कर दिया गया। 1937 में धारासभा चुनावों के पश्चात् भारत के अनेक प्रान्तों बस की सरकार बनी। जून 1937 में उत्तर प्रदेश में कॉंग्रेस सरकार का गठन हुआ।

इसमें पं. गोविन्द बल्लभ पंत मुख्यमन्त्री बनाए गए जगह-जगह कॉंग्रेस कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण केन्द्र गए। इससे ओरछा रियासत में राष्ट्रीय चेतना प्रसारित हुई में बुन्देलखण्ड राज्य कॉंग्रेस कमेटी की स्थापना हुई लालाराम बाजपेयी इसमें सक्रिय रहे। 14 जनवरी 1939 को मऊ में एक सभा हुई जिसमें निश्चित किया गया कि ओरछा रियासत में स्वाधीनता संग्राम आरम्भ किया जाए। इसी बीच राज्य के पलेरा ग्राम में एक काँग्रेसी कार्यकर्ता मल्ले दउआ ने ग्राम में झण्डा फहरा दिया। राज्य सरकार ने उसे उसके साथियों सहित गिरफ्तार कर काफी यातनाएं दी। इससे आ होकर निवाड़ी तहसील के थोना ग्राम से स्वाधीनता संग्राम छेड़ने क निकालकर फैसला किया गया।

राज्य सरकार को चुनौती दी गई कि वे 8 फरवरी 1939 को थोना ग्राम में झण्डा फहराकर आन्दोलन आरम्भ करेंगे। उस दिन लालाराम बाजपेयी के नेतृत्व में थोना बाजार में जुलूस झण्डा फहराया गया। नारेबाजी की गई। फौज खड़ी खड़ी चुपचाप ब देखती रही। सभा के उपरान्त जब सभी लौट रहे थे तब पुलिस द्वारा गोली चलाकर उनको भयभीत किया गया। कुछ कार्यकर्ताओं की बुरी तरह से पिटाई भी की गई 1 भारत के कई समाचार-पत्रों ने इस यो गोलीकाण्ड की तीव्र भर्त्सना की उसका परिणाम यह हुआ कि टीकमगढ़ के राजा वीरसिंह देव द्वितीय ने 15 अप्रैल 1939 को जनता को कुछ रियायतें देने एवं सुधार सम्बन्धी घोषणाएं की।

इधर यह रियायतें दी गई तो उधर थोना लुहारी झण्डा सत्याग्रह के प्रमुख नेता श्री लालाराम बाजपेयी को गिरफ्तार कर लिया गया। कॉंग्रेस के हस्तक्षेप पर उन्हें बाद में रिहा कर दिया गया। थोना लुहारी गोली काण्ड की जाँच करने श्यामलाल साहू ओरछा रियासत गए एवं विभिन्न लोगों से मिले। पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी उस काण्ड की भर्त्सना की। कॉंग्रेस के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए ओरछा नरेश वीरसिंह देव द्वितीय ने ओरछा सेवा संघ की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।

1938 ई. में नारायण दास खरे ने टोड़ीफतेहपुर राज्य पहुँचकर जमींदारों-जागीरदारों और उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए आन्दोलन किया। इसके लिए उन्हें जेल की सजा काटनी पड़ी। 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण झाँसी, इलाहाबाद, एवं चुनार की जेलों में बन्द रहे। इन्होंने आगीरदार एवं जमींदारों के द्वारा गरीबों के शोषण के खिलाफ आवाज बुलन्द करने में अपना जीवन लगा दिया। गरीब, हरिजन, किसान एवं मजदूरों को एकजुट करने के हरसम्भव प्रयास किए। 1942 ई. में इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हरिजन सेवक संघ की स्थापना की।

हरिजनों की शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु पाठशाला की भी शुरुआत की। नारायण दास खरे एक ओर तो हरिजनों के धतुर्मुखी विकास का कार्य कर रहे थे तो दूसरी ओर औरछा राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए सतत् संघर्ष कर रहे थे। उनका सामना करने के लिए प्रतिक्रियावादी ताकतों (जमींदारों-जागीरदारों) ने राजपूत सेवा संघ की स्थापना की।

ओरछा स्वतन्त्रता संग्राम समिति:-

दिसम्बर 1947 से उत्तरदायी शासन की स्थापना की माँग हेतु ओरछा राज्य में सत्याग्रह आन्दोलन बिताने का निश्चय किया। इसमें नारायणदास खरे की सक्रियता से प्रतिक्रियावादी ताकतें घबरा गई। 1 दिसम्बर 1947 को श्री नारायणदास खरे साइकिल से प्रातः बड़ागाँव से टीकमगढ़ के लिए रवाना हुए। 6-7 कि.मी. ही चले होंगे कि नरोसा नाले के पास प्रतिक्रियावादी ताकतों ने षड़यन्त्र कर बन्दूक एवं कुल्हाड़ी से श्री नारायणदास खरे की निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी। उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके नाले के पास गाड़ दिए। उनका यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया। ओरछा नरेश को कालान्तर में उत्तरदायी शासन की स्थापना करनी पड़ी।

टीकमगढ़ स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में श्री नारायणदास खरे का नाम सदैव स्वर्णाक्षरों से अंकित रहेगा। झाँसी के श्री भगवानदास माहौर ने यश की धरोहर पुस्तक में उचित ही लिखा है-

चन्द्रशेखर आज़ाद देश की आजादी के लिए साम्राज्यवादियों की गोली खाकर शहीद हुए। ठीक उसी तरह नारायणदास खरे गरीब किसान प्रजा की आज़ादी के लिए जागीददार राजशाही की गोली खाकर शहीद हुए दोनों की शहादत मुझे एक सी लगती है। चन्द्रशेखर आजाद को कोर्ति अधिक मिली, नारायणदास खरे को कम। यह परिस्थिति के फेर की बात है। इस तरह हम देखते हैं कि किस प्रकार श्री नारायण दास खरे ने गरीबों, मज़दूरों एवं हरिजनों के अधिकार की रक्षा के लिए अपना दान दे दिया।

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टीकमगढ़ कहाँ की राजधानी थी ?

ओरछा राज्य की राजधानी टीकमगढ़ थी।

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