जनरल शाहनवाज़ खान का इतिहास | आजाद हिन्द फौज का बहादुर सिपाही
Home » जनरल शाहनवाज़ खान  का इतिहास | पाकिस्तान में जन्मे इस क्रांतिकारी की कहानी

जनरल शाहनवाज़ खान  का इतिहास | पाकिस्तान में जन्मे इस क्रांतिकारी की कहानी

by रवि पाल
0 comment

जब भी हिंदुस्तान के इतिहास के बारे में लिखा और पढ़ा जाता है उस समय हर उस महापुरुष को याद और नमन किया जाता है जिन्होंने हिंदुस्तान की आजादी में अपना योगदान दिया लेकिन वर्तमान के इतिहासकार  एकतरफ़ा इतिहास को लिखने और बताने की कोसिश करते है लेकिन journalismology पर लिखे हुए प्रत्येक लेख बिल्कुल अलग है आज के इस लेख में जनरल शाहनवाज़ खान के बारे में जानेगें|

हिन्दुस्तान के ऐसे वीर नागरिक भी थे जो कि ब्रिटिश शासन की सेवा में थे, अथवा ब्रिटिश सेना में छोटे या बड़े ओहदों की ज़िम्मेदारी संभाले हुए थे, परन्तु उनके दिल देश प्रेम से खाली नहीं थे। वतन की मुहब्बत उनके दिलों में हर घड़ी समाई रहती थी। वह देश का माहौल देख कर वक़्त और मौक़े के इन्तिज़ार में रहते थे।

जनरल शाहनवाज़ खान का इतिहास :-

1857 का गदर इस बात का गवाह है कि ऐसे भारतीय जो कि ब्रिटिश सेना में थे, समय आने पर देश की वफ़ादारी में उन्होंने सैकड़ों फिरंगियों को मौत के घाट उतारा, उनके ख़ज़ाने और हथियार लूटे। उनके बंगलों में आगे लगाई। यहां तक कि बहुत से बहादुर सैनिकों ने देश पर अपनी जानें भी निछावर कर दीं। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का देश की आज़ादी के लिए संघर्ष और योगदान किसी से भी छुपी हुई बात नहीं है।

उनकी आज़ाद हिन्द फ़ौज की तहरीक ने अंग्रेज़ों के पैरों तले से जमीन हटा रखी थी। यह समय वह था जब कि नेता जी द्वारा सिंगापुर में आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना की गई। देशी फ़ौजी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल हो गए। यह सब वही फ़ौजी थे जो अंग्रेज़ों की सिंगापुर, चटगाम में हार के बाद जापानियों के क़ैदी हो गए थे। उसमें मुसलमान फ़ौजी बड़ी संख्या में थे।

जनरल शाहनवाज़ खान और सुभाष चन्द्र बोस के अनसुने किस्से:-

सुभाष चन्द्र बोस की सलाह पर वे सब अपने देश की आज़ादी के लिए कुर्बान होने को आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल हुए थे। उस फ़ौज में सभी फ़ौजी अनुभवी एवं जंगी कारनामों में माहिर थे। आज़ाद हिन्द फ़ौज क़ायम करने में नेताजी के सैकेट्री आबिद हुसैन, जनरल शाहनवाज़ ख़ान, कर्नल हबीबुर्रहमान, मेजर जनरल अज़ीज़ अहमद खां कियानी, लेफ्टीनेटर ढिल्लों, कैप्टिन प्रेम कुमार सहगल, कर्नल एहसान क़ादरी, कर्नल इसहाक, लेफ़्टीनेंट अशर्फ़ी मंडला और महत्वपूर्ण अफसरों में अय्यूब सेन, खा. एस. एम. अली, अमीर हयात खां, अली अकबर, अलताफ हुसेन, ता मुहम्मद, वाई. के. मिर्ज़ा, अब्दुर्रहमान खां, सय्यिद अखतर, अब्दुल मन्नान आदि के नाम महत्व रखते हैं।

मुसलमानों की वफादारियां केवल देश के साथ ही नहीं, बल्कि बगैर किसी भेदभाव के वे देश के नेताओं के भी वफ़ादार रहे। अपवाद स्वरूप कुछ दूसरे जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को किन्हीं कारणवश देश छोड़ने की नौबत आई, तो ऐसे कठिन समय में भी नेताजी के मुसलमान साथी अकबर खां पठान ने उन्हें ब्रिटिश पुलिस से छुपा कर पेशावर के रास्ते अफ़ग़ानिस्तान पहुंचाने का निर्णय लिया

जनरल शाहनवाज़ खान का जन्म और वर्तमान का पाकिस्तान:-

जनरल शाहनवाज़ ख़ान भी देश के उन्हीं वफ़ादारों में से एक फ़ौजी थे। वह रावलपिंडी के ग्राम मतर के एक सम्मानित मुस्लिम घराने में 24 जनवरी 1914 को पैदा । उनके वालिद भी ब्रिटिश सेना के एक फ़ौजी अफ़सर थे। वह चाहते थे कि हुए। उनका बड़ा बेटा भी फ़ौजी अफ़सर बने। इस सोच के मद्देनज़र शाहनवाज़ खान को भी “प्रिंस आफ़ वैल्स रायल इंडियन मिलेट्री कालेज” देहरादन में दाखिला दिलाया गया। वह हिन्दुस्तानी ब्रिटिश फ़ौज में पंजाब रेजीमेंट की पहली बटालियन में पदस्थ किए गए। वह द्वितीय विश्व युद्ध के समय कई हिन्दस्तानी सैनिकों के साथ ब्रिटिश सेना की ओर से जापान के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे। ब्रिटिश सेना जापानी सेना से हार गई। वहां हिन्दुस्तानी फ़ौजियों की बड़ी संख्या को बन्दी बना लिया

उधर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की फ़िरंगी शासन के विरुद्ध गतिविधियां ज़्यादा बढ़ गईं तो शासन को यह बात पसंद नहीं आई। भारतवासियों में गुलामी से नफ़रत और आज़ादी से मुहब्बत का जज़्बा इतना बढ़ा हुआ था कि वह न तो शासन के विरोध की परवाह करते थे और न किसी सज़ा से डरते थे। नेताजी को फ़िरंगी शासन ने कलकत्ता में नज़रबंद कर दिया। आज़ादी के मतवाले सुभाष चन्द्र बोस ने अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए योजना बनाई। वह एक पठानी लिबास में दाढ़ी बढ़ाए हुए भेस बदल कर अपना नाम निज़ामुददीन बता कर पेशावर पहुंच गए।

29 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में आजाद हिन्द फ़ौज:-

वह पेशावर होते हुए 18 मार्च 1941 को जर्मन और इटली के फौजी अधिकारियों से मिले। उसके बाद बर्लिन आ गए। उन्होंने जर्मन में बंद हिन्दुस्तानी कैदियों को छुड़ाया। इसी प्रकार जापान में भी ब्रिटिश सेना के जो हिन्दुस्तानी कैदी बंद थे, उन्हें भी रिहा करा के अपने साथ मिला लिया। नेताजी 1943 में सिंगापुर पहुंच गए। वहां सुभाष चन्द्र बोस को अपने देश हिन्दुस्तान के लिए आजादी का आन्दोलन फिर से शुरू करना था।

यहां उन्होंने भारत के अन्य नेताओं से भी चर्चा  हुयी  तथा उन्होंने 29 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में हिन्दुस्तान की आज़ाद अस्थायी हुकूमत बना ली। उसके बाद आजाद हिन्द फ़ौज का भी एलान कर दिया। सेना के बहादुर अफ़सर शाहनवाज खान, जिन के दिल में पहले से ही अपने वतन हिन्दुस्तान से मुहब्बत और आज़ादी की शमा रोशन थी, नेताजी की एक आवाज़ पर सदैव के लिए उनके साथ हो लिए। नेताजी के इस नारे पर “तुम मुझे खून दो में तुम्हे आजादी दूंगा सिंगापुर, मलाया आदि जहां भी हिन्दुस्तानी मौजूद थे अपने वतन को आज़ाद कराने के जज्बे के साथ आ गए। इस प्रकार हिन्दुस्तानियों की आजाद हिन्द फ़ौज के नाम से बड़ी फ़ौज तैयार हो गई।

इतिहास का रिसर्च :-

शाहनवाज़ खान को आज़ाद हिन्द फ़ौज में लेफ़्टीनेंट कर्नल का ओहदा दिया वह एक योग्य अनुभवी और मिलेट्री कालेज के प्रशिक्षित फ़ौजी थे। उन्होंने आजाद हिन्द फ़ौज में न केवल अपने पद के अनुरूप सेवा की, बल्कि फ़ौजियों को ट्रेनिंग भी दी। उन्होंने आर्मी ट्रेनिंग स्कूल भी कायम किया। उन्होंने उन तमाम कियों से परिचित कराया जो कि मैदान जंग के लिए जरूरी होती है। उन्होंने इसको अपना काम समझ कर सच्चे जज्बे से किया। शाहनवाज़ खान अपने वतन से मुहब्बत की भावनाएं लिए हुए फ़ौजी कैम्पों में प्रतिदिन सुबह व शाम पहुंच कर उन्हें जागरुक करते। उन्हें आज़ाद हिन्द फ़ौज के गठन का महत्व भी बताते।

इसके गठन का मक़सद जापान की सहायता से भारत को आज़ाद कराना था। उन्होंने फौजियों का हौसला एवं हिम्मत बढ़ा कर उन्हें मजबूत बना दिया। शाहनवाज की सच्ची भावनाओं और अनुभव से नेताजी भी बहुत प्रभावित थे। वह उन्हें अपना खास एवं क़रीबी व्यक्ति मानते थे। शाहनवाज़ ख़ान की योग्यता और अनुभव को देखते हुए उन्हें फ़ौज का जनरल बनाया गया।

चूंकि जापानी सेना और आज़ाद हिन्द फौज को सयुंक्त रूप से लड़ना था इस कारण दोनों के बीच कुछ बातें तय होना बाक़ी थीं। जापानी फौज के कमांडर इन- बीफ का सुझाव यह था कि जापानी सेना ही हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए ब्रिटिश सेना से लड़ाई लड़े। मुल्क को आजाद कराने के बाद वह आज़ाद हिन्द फौज को सौंप दिया जाए। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस इस बात से सहमत नहीं हुए। उन्होंने जापानी कमांडर के सामने यह बात स्पष्ट कर दी कि लड़ाई हिन्दुस्तान को आजाद कराने के मकसद से लड़ी जा रही है, इसलिए यह आवश्यक है कि आजाद हिन्द फौज अगली पंक्ति में रहे। हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई में पहले उसके सपूतों का ही खून उसकी धरती पर टपकेगा।

बाद में सहयोगियों की नौबत आ सकती है। ब्रिटिश शासन से लड़ाई के लिए पहले जो ब्रिगेड बनाई गई, उसका नाम ब्रिगेड रखा गया। उस ब्रिगेड में तीन हजार फ़ौजी थे। ब्रिगेड की कमान नेताजी के खास विश्वसनीय और करीबी साथी जनरल शाहनवाज खान के पास सुभाष थी।

सुभाषचंद्र बोष:-

शाहनवाज खान ने अपने अनुभव और समझदारी से फ़ौज की कमान संभाली यहां तक कि कुछ समय में ही उनके कारनामों से यह अन्दाज़ा हो गया कि अ हिन्द फ़ौज किसी तरह भी लड़ाई में कमज़ोर नहीं है। इसके अलावा फ़ौज की और भी डिवीज़नें बनाई गई, जिनकी जिम्मेदारी अन्य अनुभवी और माहिर फौजियों को सौंपी गई। एक ब्रिगेड की कमान, कमांडर इनायत कियानी, अन्य ब्रिगेड की जिम्मेदारी जनरल मुहम्मद जमा कियानी तथा एक और ब्रिगेड, कमांडर गुलबार सिंह की मातहती में दी गई। जैसे ही नेताजी सुभष चन्द्र बोस ने दिल्ली चलो का नारा दिया, जनरल शाहनवाज खान की कमांड में आज़ाद हिन्द फ़ौज बर्मा की ओर से अपने चलन हिन्दुस्तान की सरजमी पर पहुंच गई। आजाद हिन्द फ़ौज और ब्रिटिश सेना के बीच घमासान छिड़ गया। दोनों ओर से मार-काट आरंभ हो गई। जनरल शाहनवाज की कमान में जोरदार हमलों से ब्रिटिश फ़ौज को बहुत नुकसान हुआ। ब्रिटिश फौ ऐश एवं आराम की जिन्दगी गुजारने के लिए हिन्दुस्तान की लूट मार चाहते इन्हीं कारणों से वे मजबूरी में लड़ रहे थे। जब कि आजाद हिन्द फौज के जवान अपने दिलों में वतन की मुहब्बत और अपने वतन को गुलामी से आजाद कराने के लिए अपनी जानें निछावर कर रहे थे।

देश के प्रति वफादारियां:-

शाहनवाज अपने अनुभव से सेना में घूम-घूम कर जहां जैसी भी जरूरत है वहां सैनिकों की टुकड़ियों को कभी आगे बढ़ने कभी पीछे हटने के हुक्म देते रहते थे। आवश्यकता पड़ने पर वह फ़ौजियों का हौसला भी बढ़ाते थे। फ़ौजियों को हिम्मत देने से उनका जोश व जज्बा उछालें मारकर फिरंगियों का खून बहा रहा था ब्रिटिश शासन अपने फ़ौजियों के पैर उखड़ते देख कर बौखला गया। उसने अपनी बर्बरता, जुल्म व अत्याचार की सीमाओं को पार करते हुए हिरोशीमा व नागासाकी पर एटम बम गिरा दिए। उसकी ख़ौफनाक तबाही ने जापानियों की हिम्मतें तौड़ दीं और हौसले मिट्टी में मिला दिए। चारों ओर तबाही और हाहाकार मच गया। इन हालात में जापानी फ़ौज को हथियार डालने पड़े। इस कारण से आज़ाद हिन्द फ़ौज के भी बढ़ते क़दम थम गए।

फ़िरंगी सेना ने अज़ाद हिन्द फ़ौज को चारों ओर से घेर लिया। बहादुर जनरल शाहनवाज खान, कैप्टन गुरब दिल्ली और सहगल तीनों गिरफ्तार करके दिल्ली लाए गए।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और कर्नल हबीबुर्रहमान काक का इतिहास:-

हल्ली अगस्त 1945 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और कर्नल हबीबुर्रहमान काक हवाई अड्डे से चल दिए। एक जापानी बम्बार हवाई जहाज पर सवार हो गए 19 अगस्त को यह खबर फैल गई कि फारमोसा (अब ताइवान) पर उनका हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाहियों की बड़ी संख्या कैदी बना ली गई। उनमें भी मुसलमान बड़ी संख्या में था बहुत से क़ैदियों को सजा सुनाई गई। बहुत से फांसी के फन्दों पर लटका दिए गए। उस समय देश के माहौल में बदलाव आ रहा था।

यहां तक कि ब्रिटिश शासकों को इस बात का अन्दाज़ा हो गया था कि अब वह ज्यादा समय तक हिन्दुस्तान पर क़ाबिज़ नहीं रह सकते। वे इस बात को समझ रहे थे कि उन्हें हिन्दुस्तान को छोड़ना ही है। इसलिए फौजी कैदियों के खिलाफ कोई बड़ा फ़ैसला लेना उन्होंने उस समय के हालात के हिसाब से उचित नहीं समझा।

आजाद हिन्द फ़ौज की गाथाएँ:-

19 अगस्त 1945 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने ब्रिटिश शासन से कहा कि- “इस समय आज़ाद हिन्द फ़ौज के कैदियों की बड़ी संख्या है। उनमें से कुछ को फांसी की सजा भी दी जा चुकी है। वर्तमान हालात में जब कि मुल्क में नई व्यवस्थाएं लागू होने की संभावनाएं हैं, तो इन फ़ौजी कैदियों से सख्ती से निपटा जाना गलत होगा। बदले हुए हालात में उन्हें बाग़ी मानना या उन्हें बाग़ियों जैसी सजा देना करोड़ों हिन्दुस्तानियों को पसंद नहीं आयेगा

उस समय के हालात के मद्देनज़र ब्रिटिश शासन ने भी समझोते से ही काम लेना उचित समझा। सरकार ने फ़ौजी कैदियों के खिलाफ़ बगावत आदि के इल्ज़ाम हटा लिए और लाल किले में ही मुकदमों की कार्यवाही करने का फ़ैसला लिया। सरकार ने यह भी तय किया कि सभी फौजी अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के बजाय जरनल शाहनवाज खान, कैप्टन गुरबाडश ढिल्लों और कैप्टन प्रेमनाथ महगल पर क़त्ल, ज़ुल्म और जंगी अपराधों के संगीन इल्ज़ाम लगा कर उन पर सजा का फ़ैसला लिया जाए। अब देशवासियों का पूरा रुझान देश के उन तीनों बहादर सपूतों की ओर ही हो गया। देश के बूढ़ों से लेकर बच्चों तक की मुहब्बत और हमदर्दियां उन तीनों पर ही केंद्रित हो गई। मुक़द्दमे की पैरवी के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाई गई। जिस में सर तेज बहादुर सपरू, पं. जवाहरलाल नेहरू, बैरिस्टर आसिफ अली और भोला भाई देसाई शामिल किए गए।

इतिहास के पन्ने:-

देश के उन सपूतों पर कुछ महीने मुक़द्दमे में की कार्यवाही चलती रही। मु के दौरान जब जनरल शाहनवाज़ से उन पर लगाए गए इल्ज़ामों के संबंध में फिरंगी अदालत में पूछा गया, तो उन्होंने बहुत ही हौसले और हिम्मत से बयान देकर आज़ादी के मतवालों का सर गर्व से ऊंचा कर दिया। जनरल शाहनवाज़ ने ब्रिट सेना के ख़िलाफ़ उनके द्वारा तैयार किए गए मनसूबों और कार्यवाहियों का सीना ठोक कर इक़रार किया। उनके दिलेराना बयान से जहाँ अंग्रेज़ अचम्भे में रह ग वहीं जनरल शाहनवाज़ की बहादुरी और अपने वतन से मुहब्बत का भी सुत मिलता है।

उन तीनों देश प्रेमियों पर फ़िरंगियों द्वारा मुक़द्दमा चलाए जाने के कारण देशवासियों के दिलों में ग़म व गुस्से का लावा पक रहा था। इस संबंध में जगह जगह चर्चाएं हो रही थीं। कोई भी यह नहीं चाहता था कि उन तीनों को किसी भी तरह की सज़ा दी जाए। देशवासी इस बात से सहमत थे कि गुलामी से छुटकारा पाने के लिए आज़ादी का संघर्ष करना न तो कोई अपराध है और न ही पापा इन्ही चर्चाओं के बीच मुक़द्दमे का फ़ैसला आ गया।

जरनल शाहनवाज़ ख़ान सहित तीनों फ़ौजी अफ़सरों, कैप्टन गुरबख्श ढिल्लो और कैप्टन प्रेमनाथ सहगल को अदालत द्वारा आजीवन कालेपानी की सजा सुना दी गई। उन वीरों के लिए जैसे ही इस सज़ा की ख़बर फैली तो देशवासियों के दिलों छुपा हुआ गुस्सा फूट पड़ा। देश में चारों ओर कोहराम मच गया। लाखों लोग में शासकीय और अशासकीय नौकरियों, मिल-कारखानों और जो जहां भी काम कर रहा था सब अपने काम छोड़ कर आन्दोलन की राह पर चल पड़े। ब्रिटिश शासन पूरी तरह से ठप हो कर रह गया। शासन देशवासियों की इतनी बड़ी एकता को देख कर घबरा गया।

हिन्दू-मुसलमान एकता पर जरनल शाहनवाज़ ख़ान की सोच:-

बिगड़ते हुए हालात को संभालने के लिए वायसराय ने अपने अधिकारों को उपयोग में लाते हुए आज़ादी के मतवाले तीनो फ़ौजी अफसरों को ख़ामोशी से रिहा कर दिया। अवाम की नज़र जैसे ही उन पर पड़ी देखने वाले खुशी से उछल पड़े। थोड़े से वक़्त में हज़ारों की संख्या में अवाम इकट्ठा हो गए। तीनों बरी सपूतों के लिए ज़िन्दाबाद के नारों से आकाश गूंज उठा। उधर ब्रिटिश शासन के विरोध में सैनिक और गैर सैनिक संस्थाओं ने भी हड़ताल कर दी। इस कारण ब्रिटिश शासन के हौसले और भी पस्त हो गए।देशवासियों के प्यार और सहयोग से जरनल शाहनवाज़ ख़ान आज़ादी के संघर्ष से निपट कर अपने घर रावलपिंडी पहुंच गए। वहां पहुंच कर भी वह देश सेवा से आज़ाद नहीं हुए। उन्होंने गांधी जी के साथ रह कर काम शुरू कर दिया।

आजाद भारत में जरनल शाहनवाज़ ख़ान का योगदान:-

उन्होंने हिन्दू-मुसलमान एकता पर जोर दिया। इसके लिए उन्होंने मैदान में उत्तर कर भी प्रयास किए। शाहनवाज़ खान देश की मशहूर शख्सियत थे। छोटे और बड़े सभी उन्हें पहचानते और पसंद करते थे। उनकी नेक नीयती और देश प्रेम से प्रभावित होकर बड़े नेताओं ने उन्हें देश की राजनीति में आने के लिए मजबूर किया। यहां तक कि पं. जवाहरलाल नेहरू ने 1952 में मेरठ से उन्हें सांसद के लिए चुनाव लड़वाया। उन्होंने ‘चुनाव में वोटों के साथ-साथ लोगों का प्यार भी बटोरा तथा वह कामयाब हुए। वह पंडित जी की केबिनेट में डिप्टी मिनिस्टर भी बनाए गए अगली पंच वर्षीय योजना में उन्हें दोबारा चुनाव लड़ने का मौका दिया गया। वह दूसरी बार भी सफल रहे। राजनीति में भी शाहनवाज़ ख़ान ने मिलेट्री की तरह अनुशासन, ईमानदारी अपने विभागों में सुधार करके अपनी साख बनाई।

ईमानदारी की सेवा और लोकप्रियता के कारण वह लालबहादूर शास्त्री जी एवं श्रीमती इन्दिरा रांधी की केबिनेट में भी मंत्री रहे। उन्होंने अपने विभागों में व्यापक सुधार कर अवाम की सेवा की एवं देश हित की योजनाओं को लागू कराया। इनके अलावा भी उन्हें समय-समय पर महत्वपूर्ण एवं उच्च ओहदों की जिम्मेदारी दी गई, जिसमें उन्होंने बहुत ईमानदारी से काम करके अपने नाम की छाप छोड़ी। इस प्रकार उन्होंने न केवल आजादी के लिए संघर्ष करके देश को आजाद कराने में सराहनीय भूमिका निभाई, बल्कि देश निर्माण में भी उनके कारनामे अपने आप में यादगार हैं।

श्रीमती इन्दरा गांधी, शाहनवाज खान को बहुत सम्मान देती थीं। उनके संबंध में एक बार श्रीमती गांधी ने कहा था कि- “जनरल शाहनवाज खान ने हिन्दुस्तान के इतिहास में देश प्रेम, सच्चाई और इनसान दोस्ती की सब से आला मिसाल कायम की|

जनरल शाहनवाज़ खान के जिन्दगी का आखिरी सफ़र:-

आजाद हिन्द फौज का बहादुर, जनरल शाहनवाज़ खान देश को आज़ाद कराने से लेकर देश के आधुनिक निर्माण तक अपनी वीरता, सच्चाई, वतन प्रेम, एकता और वतन पर अपनी योग्यताएं निछावर करके 9 दिसम्बर 1982 को देश एवं देशवासियों को अलविदा कह गए| भारत के उस सपूत, स्वतंत्रता सेनानी एवं आधुनिक भारत के निर्माता का जार मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के मज़ार के उत्तर की ओर मौलाना आज़ाद ग्राउंड में मौजूद देश प्रेम की कहानी सुना रहा है।

इसे भी पढ़े

डा. मुख्तार अहमद अंसारी (1880-1936)
झारखंड राज्य का निर्माण  [जनवरी 1939 ई.] आदिवासी महासभा

कैसे हुए बोकारो में 80 गाँव (64 मौजा) विस्थापित|  बोकारो स्टील प्लांट 

दिल्ली सल्तनत SSC CGL, CPO [ हिंदी ] MCQ objectives

You may also like

About Us

Lorem ipsum dolor sit amet, consect etur adipiscing elit. Ut elit tellus, luctus nec ullamcorper mattis..

Feature Posts

Newsletter

Subscribe my Newsletter for new blog posts, tips & new photos. Let's stay updated!