बेगम हज़रत महल जन्म से मृत्यु तक का इतिहास (1828-1879)
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बेगम हज़रत महल जन्म से मृत्यु तक का इतिहास क्या है?

by रवि पाल
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एक तरफ हिंदुस्तान को अंग्रेजों से आजादी के लिए आन्दोलन चल रहे थे वहीँ दूसरी तरफ कुछ राजा- महाराजा अंगेजों की गुलामी करने में लगे हुए थे, लेकिन जब हिंदुस्तान का इतिहास लिखा जा रहा था उस समय इतिहासकारों ने किसी के बारे में बहुत ज्यादा लिख दिया है तो किसी के बारे में बहुत कुछ छिपाया है आज बेगम हज़रत महल की जिन्दगी के कुछ पन्ने लिखने की कोशिश करेंगे |

यह बात बिल्कुल सही नहीं है कि हिन्दस्तान की आज़ादी का हक़दार केवल पुरुष वर्ग को ही जाता है सच तो यह है इस देश में बहुत सी बहादुर बेटियां ने जन्म लिया है जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में फिरंगी तलवारों से अपनी तलवारे टकरा कर उन्हें मौत का मज़ा चखाया, तो कभी देश पर अपनी जाने निछावर कर अपना नाम अमर शहीदों में लिखवाया।

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इस देश के पुरुषों और महिलाओं के सयुंक्त प्रयासों और संघर्षो से ही आज़ादी रूपी फलदार पेड़ हमारी धरती पर उगाया गया। उस पेड़ की परवरिश के लिए पानी के स्थान पर खून बहाया है

हिंदुस्तान में बेगम हज़रत महल और बेटियों का इतिहास तथा कुर्बानी :-

इतिहास लिखने वाले उन कर्बानियों के लिए जहां हज़ारों वीर पुरुषों के नाम गिनाते है वहीं इस देश की महिलाएं भी उस पवित्र संघर्ष में बराबर ही साथ रही हैं। आज़ादी के संघर्ष में जान गंवाने वाला, एक पुरुष शहीदे वतन किसी मां का लाल, किसी बहन का भाई, किसी बेटी का बाप और किसी सुहागन का सुहाग होता था।

उन सभी मांओं, बहनों, बेटियों और पत्नियों ने अपनी ममता को कुर्बान कर, अपनी मुहब्बतों को निछावर कर, अपने सुहाग की इच्छाओं और भावनाओं पर पत्थर रख कर उसे वतन पर शहीद होने के लिए हौसला, सहयोग एवं हिम्मत दी,

इस तरह यह कहा जाना एक खुली हुई सच्चाई है कि एक पुरुष के शहीदे वतन बनने के पीछे उसके परिवार की कई महिलाओं की क़ुर्बानियां छुपी रहती हैं।

इसके अलावा भी देश में ऐसी कई महिलाएं हुई हैं, जिनके आज़ादी की लड़ाई के कारनामे बड़े-बड़े सूरमाओं को दांतों तले उंगलियां दबाने पर मजबूर कर देते हैं।

बेगम हज़रत महल का जन्म और स्वतंत्रता संघर्ष:-

समाज कोई भी हो हिन्दू या मुस्लिम दोनों ने इस देश की आजादी में अहम योगदान दिया है , मुसलमान समाज में जन्मी बेगम हजरत महल वीरता, देश प्रेम और स्वतंत्रता के संघर्ष का एक ऐसा उदाहरण हैं जिसे इतिहास याद रखने के लिए मजबूर है। महारानी लक्ष्मी बाई, जीनत महल, हज़रत महल और अज़ीज़न बाई आदि के बलिदानों से देश का सर सदैव ऊंचा रहेगा।

बेगम हजरत महल का जन्म 1830 में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, अवध के नवाब वाजिद अली शाह की हसीन, खूबसूरत, अच्छे आचरण की ईमानदार एवं वफ़ादार बेगम के घर हुआ था वैसे तो आज़ादी की पहली। लड़ाई का असर देश के कोने-कोने में था, कुछ भाग ऐसे थे जहां क्रांतिकारियों के जोश और जज़्बे के कारण अधिक ज़ोर था।

बेगम हज़रत महल और अवध:-

18वीं सदी में हिन्दुतान के ज्यादातर प्रान्तों में आजादी की गूंज चल रही थी तो फिर अवध कैसे दूर रह सकता था इस क्षेत्र में भी स्वतन्त्रता संघर्ष का व्यापक प्रभाव रहा, कहते है इस क्षेत्र में आज़ादी की महत्वपूर्ण नेता बेगम हजरत महल रहीं।

जब कि सम्पूर्ण हिन्दुस्तान पर मुग़ल शहंशाहों का राज था, उस समय अवल भी मुगलिया शासन का एक हिस्सा था। समय गुज़रता रहा, शहंशाह भी बदलते रहे। एक समय वह भी आया जब कि मुगलिया शासन कमज़ोर पड़ने लगा। ऐसे समय में अवध भी एक आज़ाद रियासत बन गई।

बेगम हज़रत महल, नवाब वाजिद अली शाह और  ईस्ट इंडिया कंपनी:-

एक तरफ पंजाब और बिहार के प्रान्तों में क्रांतिकारियों के द्वारा आजादी की गूंज देखि जा रही थी वहीँ दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में ईस्ट इंडिया कम्पनी के दाखिले के बाद उसकी पकड़ मजबूत होने के अलग-अलग कारण रहे। कम्पनी ने रियासतों के हालात का अन्दाज़ा लगा कर उनके साथ अपने संबंध बनाए।

जो  रियासतें, राजा महाराजा कंपनी की बातों में नहीं आते थे उनको जोर ज़बरदस्ती कर या कुछ को लालच एवं सुविधाएं देकर अपनी कठपुतली बना लिया करते थे,अवध राज्य भी उन्हीं राज्यों में से एक था जो कि कम्पनी के अधीन हो गए था।

नवाब वाजिद अली शाह के समय कम्पनी का वायसराय लार्ड डलहौज़ी था। उसने अपनी शातिराना चालें चल कर जहां अन्य राज्यों को अपने क़ब्ज़े में कर लिया था, वहीं नवाब वाजिद अली शाह को बदनाम करके अवध को भी अपने क़ब्ज़े में ले लिया था। अवध की राजधानी लखनऊ थी। उस रियासत को अपने नियंत्रण में रखने के लिए कम्पनी द्वारा एक रेज़ीडेंट भी नियुक्त कर दिया गया था।

उसके बाद उनके बेटे वाजिद अली शाह को अवध की राज-गद्दी मिली, वाजिद अली शाह एक समझदार नवाब एवं कुशल प्रशासक था। हालांकि अवध रियासत भी अंग्रेज़ शासन की निगरानी में आ गई थी, फिर भी वाजिद अली ने राज गद्दी पर बैठ कर अपनी रियासत को बहुत कुछ संभालने के प्रयास किए। उन्होंने सबसे पहले अपनी फ़ौज में सुधार लाने के क़ानून बनाए ताकि सेना पूरे नियंत्रण में आ सके।

उस वक़्त के माहौल के अनुसार किसी भी राज्य की राज्य के उचित प्रबंध सेना पर ही निर्भर करते थे। इस कारण सेना को करना जरूरी था। वाजिद अली शाह ने कमज़ोरियां दूर करने की कोशिशें श्री की सेना पर प्रतिदिन सुबह की परेड लाज़िमी कर दी गई। प्रत्येक सैनिक की सही पर परेड पर हाजिरी अनिवार्य कर दी गई।

इतिहास के पन्ने :-

वक़्त की पाबंदी न करने वाले सैनिकों के लिए सजा का प्रावधान किया गया। यहां तक कि परेड का मुआयना करने के लिए तय किए गए वक्त से पहले ही नवाब खुद मैदान में मौजूद रहते।। जब वाजिद अली शाह द्वारा फ़ौज को अनुशासित करने एंव अन्य रियासती कामों में दिलचस्पी लेने से अंग्रेज़ शासन चौकन्ना हो गया

अंग्रेज नहीं चाहते थे। कि कोई भी राजा या नवाब अपनी रियासत के ऐसे कामों में ज्यादा हिस्सा ले जिससे कि रियासत पर उनकी पकड़ मजबूत हो, उनकी फौज में अनुशासन रहे या वह फ़ौज एवं जनता को जागरुक कर सकें।

फिरंगियों को नवाब की यह गतिविधियां खतरनाक लगने लगीं इसके साथ ही ब्रिटिश शासन द्वारा नवाब वाजिद अली शाह की इन गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी गई। इसके पीछे फिरंगी साजिश हुई थी। मजबूर हो कर नवाब को उन सभी कामों से दूरी बनानी पड़ी। रियासत के सभी इन्तिज़ाम वजीरों को सौंप दिए गए। वजीरों पर भी नवाब का नियंत्रण न रहने के कारण रियासत में बिगाड़ आना शुरू हो गया।

फिरंगी चाहते भी यही थे कि रियासत को पूरी तरह से हड़पने का उन्हें कुछ बहाना मिल सके। अब अंग्रेज़ शासन ने साज़िश के तहत नवाब की सरकार को बदनाम करना शुरू कर दिया। फिरंगियों द्वारा अपनी चालबाजियों पर पर्दा डालने के लिए नवाब वाजिद अली को बदनाम करने की मुहिम आरंभ कर दी गई। उसके लिए अय्याश, नाकारा, खराब आचरण का प्रोपेगंडा किया गया।

यहां तक कि नवाब को अयोग्य करार देकर, खनिज सम्पदा से मालामाल अवध पर कम्पनी पूरी तरह से अपना क़ब्ज़ा जमाने में कामयाब हो गई।

महत्वपूर्ण तथ्य:-

वैसे नवाब वाजिद अली शाह के राज गद्दी पर बैठते समय ही कम्पनी की ओर से यह एलान कर दिया गया था कि यदि नवाब द्वारा रियासती कारोबार में कोई खराबी आती है तो कम्पनी रियासत को अपने कब्जे में कर लेगी।

इस शर्त से ही कम्पनी की बदनियती का अन्दाजा हो जाता है। हुआ भी वही कि कम्पनी ने पहले तो नवाब को, सेना एवं रियासत के शासन व प्रबंध में हिस्सा लेने पर पाबंदी लगा दी। और जब इस कारण से रियासती इन्तिज़ाम में अव्यवस्था पैदा हुई तो उसी को बहाना बना कर और नवाब पर इल्ज़ाम लगा कर कम्पनी द्वारा रियासत पर क़ब्ज़ा जमा लिया गया। इधर अंग्रेज़ इतिहासकारों ने भी नवाब पर झूटे इल्ज़ाम लगाए, उसे बदनाम करने में कम्पनी का साथ दिया।

प्रत्येक दौर में झूठ में छुपे हुए सच को उजागर करने वाले न्याय प्रिय व्यक्ति भी रहे हैं। इसी प्रकार उसे समय के कुछ
कम्पनी की चालबाजी और नवाब पर लगाए गए झूठे इल्ज़ामों के विरुद्ध अपना कलम चलाया।

एक अंग्रेज अधिकारी द्वारा लिखा गया :-

एक अंग्रेज सैन्य इतिहासकार, सिविल सेवक और सेना अधिकारी, जॉन विलियम कए (1814-1876) ने खुद लिखा है कि कम्पनी का यह तरीका रहा है कि जिस किसी हिन्दुस्तानी नवाब या राजा की रियासत छीनी जाती थी, उसे बदनाम करने तथा अवाम की निगाहों में गिराने के लिए उस पर बदतरीन इल्जाम लगाए जाते थे।

मशहूर इतिहासकार, गांधीवादी पंडित सुन्दरलाल की 1929 में प्रकाशित पुस्तक भारत में अंग्रेजी राज, भाग दो में लिखा है- “हिन्दुस्तान के आम लोग वाजिद अली शाह पर लगाए गए झूटे इल्ज़ामों को सच मानते चले आ रहे हैं। हम यह नहीं कहते कि नवाब वाजिद अली शाह ने अपने जीवन में ऐश परस्ती नहीं की अथवा वह कोई नेक पारसा नवाब थे, परन्तु इस हिन्दुस्तानी नवाब के संबंध में यह जरूर कहूंगा

उस दौर में नवाब वाजिद अली शाह के संबंध में कहीं गई नव्वे प्रतिशत बातें मन-गढ़ंत हैं। उस समय के नवाबों और राजाओं का शौकीन मिज़ाज होना आम सी बात थी। अंग्रेजों की पाबंदियों से पहले नवाब वाजिद अली शाह एक अच्छे, कुशल और मजबूत प्रशासक थे।

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि नवाब शुजा-उद्-दौला के बाद वाजिद अली शाह, अवध रियासत का ऐसा पहला नवाब था जिसके दिल में अपनी रियासत को अंग्रेजों से आजाद कराने का जज्बा था। नवाब का अंग्रेज विरोधी वही जज्बा, उस पर घटिया इल्ज़ाम, उसको नवाबी से अपदस्थ करने और उसकी जिलावतनी का कारण बना।

अवध में आन्दोलन का माहौल :-

नवाब वाजिद अली शाह के रंग-रलियों में पड़ने के कारण जो भी रहे हों, परन्तु वह ऐश परस्त नवाब मशहूर हो गए थे। मालूम हुआ कि उन्होंने एक परी खाना बनाया था जिसमें अप्सराओं के नाच-गाने हुआ करते थे। उसमें नवाब साहिब स्वयं भी भाग लिया करते थे।

वाजिद अली शाह द्वारा अवध की राज गद्दी संभालने पर उन्होंने अपनी हसीन सूझ-बूझ वाली इफ़तिखारुन निसा बेगम को हज़रत महल के खिताब से भी नवाजा। नवाब का इस बेगम से रमजान के महीने में एक बेटा पैदा हुआ। शाहाना तरीक़े से खुशियां मनाई

दादा, नवाब अमजद अली शाह द्वारा अपने चहेते पोते का नाम रमजान अली मिज़ा रखा गया। उसको “शहजादा ब्रिजीस क़दर बहादुर का लकब दिया गया। कम्पनी द्वारा रियासत पर क़ब्ज़ा करने के बाद नवाब साहिब को बारह लाख रुपये और उनके अमले के लिए तीन लाख रुपये बतौर वज़ीफ़ा देने के संबंध में  एक दस्तावेजी पत्र उनकी रजामंदी हेतु भेजा गया।

इधर नवाब द्वारा उस दस्तावेज़ पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया गया। कम्पनी की बुरी नीयत और साजिश के विरुद्ध अपील करने के लिए नवाब लन्दन की ओर रवाना हुए। उस दौर में इतने दूर दराज़ का सफ़र इतनी आसान बात नहीं थी। सुविधाओं के अभाव में नवाब लम्बे सफ़र की परेशानियों को बर्दाश्त नहीं कर सके।

बेगम हज़रत महल के पिता और बेटे पर फिरंगियों की चालबाजी:-

नवाब वाजिद अली शाह की रियासत जब अंग्रेजों द्वारा हड़प ली गई, तो वह कलकत्ता चले गए। उस समय कुछ बेगमें उनके साथ चली गई। बेगम हजरत महल ने लखनऊ में ही रह कर अपने बेटे ब्रिजीस कदर बहादुर को अच्छी तालीम और आवश्यक प्रशिक्षण भी दिलाये।

जोंकि लूटमार की चालों से चारों ओर बेचैनी तथा असंतोष बढ़ता जा हा था वे आजादी के मतवालों को खुले आम सताने व परेशान करने के तरीके अपनाए हुए थे। भारतवासी सब कुछ बर्दाश्त करते हुए ब्रिटिश शासन का विरोध भी कर रहे थे।

अंततः फ़िरंगियों के अन्याय, अत्याचार, ज़ुल्म व सितम के खिलाफ 1857 में बगावत का आन्दोलन फूट पड़ा। आजादी की यह तहरीक मेरठ, दिल्ली, सादाबाद को अपनी लपेट में लेती हुई अवध और लखनऊ तक पहुंच गई।

क्रांतिकारियों का यह आन्दोलन एक सैलाब का रूप लेता जा रहा था। फ़ैज़ाबाद के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अहमदल्लाह शाह को विद्रोहियों ने फिरंगी जेल से आजाद कराया। उनके नेतृत्व में भी अंग्रेजों की मार काट की गई।

इस क्षेत्र में नवाब वाजिद अली शाह के परिवार के सदस्य के नेतृत्व की ज़रूरत महसूस की जा रही श्री के आन्दोलनकारी चाहते थे कि शाही परिवार का कोई व्यक्ति अपनी सरपरस्ती में आज़ादी की तहरीक का नेतृत्व करे।

ऐसे हालात में जब कि मुल्क में चारों ओर मार-काट, लूट-खसोट हो रही हो, कोई किसी की सुनने और समझने वाला न हो, ऐसे ख़तरनाक हालात में बेगम हज़रत महल के दिल में छुपी हुई देश प्रेम की चिंगारी, शोला बन कर भड़क उठी।

उसने अपने आप को एक कमज़ोर महिला नहीं, बल्कि भारत की एक बहादुर बेटी, देश प्रेमी और स्वतंत्रता सेनानी होने का सबूत दिया। उसने शाही परिवार की ओर से अपने 13-14 वर्षीय कम उम्र बेटे ब्रिजीस क़दर बहादुर को जंगे आज़ादी में संघर्ष करने वालों का लीडर बना दिया।

बेगम हज़रत महल का क्रन्तिकारी कदम:-

बेगम हज़रत महल उस की आड़ में स्वयं ही क्रांतिकारियों का नेतृत्व करने लगीं। उन्होंने इसकी सूचना बहादुर शाह ज़फ़र को पहुंचाई तथा उनसे मन्जूरी और मदद चाही। बेगम हज़रत महल एक योग्य प्रशासक भी थीं।

उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को ही बड़े-बड़े ओहदों की ज़िम्मेदारियां सौंपीं कि कहीं कोई आपसी भेद-भाव न रहे। ऐसे नाजुक समय में बड़ी हिम्मत और समझदारी से काम लिया। वह खुद मैदाने जंग में जातीं और अपनी सेना की हिम्मत बढ़ाती वह चारों ओर का माहौल देख यह समझती थीं कि ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का यह अच्छा मौक़ा है। बेगम ने एक बहादुर नेता की तरह नेतृत्व भी किया और स्वयं भी मुकाबला किया।

इन्होंने अपने बेटे बादशाह ब्रिजीस क़दर के नाम से देशवासियों के लिए एक संदेश जारी किया जिसका संक्षिप्त अनुवाद इस तरह है-“सभी हिन्द और मुसलमान अपने अपने धर्म, जान व माल अपनी इज्ज़त व सम्मान की सुरक्षा चाहते हैं। ऐसा देखने में आ रहा है कि फ़िरंगी भारतवासियों के दीन एवं धर्म के दुश्मन बन चुके हैं।

हमारे ज़मींदारों को लालच देने लगते हैं ऐसे हालात में सभी देशवासियों को आगाह किया जाता है कि जिन्हें अपने दीन-धर्म, अपनी इज़्ज़त और आबरू, जान व माल की सुरक्षा चाहिए वे झूठे और फ़रेबी अंग्रेज़ों के धोखे में न आएं। वे अवध की फ़ौज का साथ दें। हमारी सरकार की जानिब से उनकी तरक़्क़ी और हिफ़ाज़त के लिए मज़बूत क़दम उठाये जायेंगे।

बेगम हज़रत महल ने अंग्रेज़ों को उखाड़ फेंकने में अपनी ओर से कोई कसर बाक़ी नहीं रहने दी। एक महिला का इस तरह से मैदान में नेतृत्व करना उनके देश प्रेम को दर्शाता है। उस आन्दोलन ने जन आन्दोलन का रूप ले लिया। उसमें प्रशिक्षित सैनिक एवं अप्रशिक्षित आज़ादी के मतवाले भी बड़ी संख्या में भाग ले रहे थे।

क्रांतिकारी गतबिधि:-

इस प्रकार इन्किलाबियों की भीड़ में अनुशासन का अभाव हो गया। उस आन्दोलन में जहां अंग्रेजों का जानी व माली नुकसान हो रहा या, वहीं अंग्रेज़ अपने अनुभवी एवं प्रशिक्षित सैनिकों के कारण आन्दोलनकारियों पर क़ाबू भी पा लेते थे।

बेगम हजरत महल के शरीर में भी देश प्रेम और वीरता का खून दौड़ रहा था। उन्होंने अपनी सूझ-बूझ से योजनाएं बनाई और उसने आम महिलाओं को भी इस संघर्ष में जोड़ने के प्रयास किए। उन्होंने हिम्मत वाली महिलाओं का एक फौजी संगठन बनाया। यहां तक कि महल की नौकरानियों को भी उस संगठन में शामिल किया। उन्हें लड़ाई के सभी गुर सिखाए गए। वे सभी महिलाएं बेगम की निगरानी में परेड किया करती थीं।

बेगम ने देख लिया कि फ़िरंगी सेना का रेजीडेंसी पर कब्ज़ा हो चुका है, फिर भी वह उनके मुक़ाबले के लिए जमी रहीं। हालांकि अंग्रेज़ सेना के बढ़ते हुए प्रभाव को देख कर उन्हें हार का अंदाज़ा हो रहा था। फिर भी उन्होंने जम कर अपनी सेना की हिम्मत बधाई। हजरत महल के दिल में शहादत की सोच पल रही थी। उन्होंने शेरनी की तरह ललकारते हुए • अपनी सेना को जौनपुर एवं आजमगढ़ पर हमला करने का हुक्म दिया। उन्होंने फ़ौज को अंग्रेज़ों के अलग-अलग ठिकानों पर हमला करने की सलाह दी।

बेगम हज़रत महल ने ज़ोरदार अंदाज़ में फ़ौज को हुक्म दिया कि मेरे बहादुर सिपाहियो ! दुश्मन अंग्रेज की रसद की चौकिया बर्बाद कर दो, नदियों पर अपना पहरा और चौकसी बढ़ा दो।

छुपे और खुले हुए स्थानों पर अंग्रेजों से आमने सामने डट कर मुकाबला करो। इस तरह बेगम अपने सैनिकों द्वारा फिरंगियों से मुक़ाबला कराती रहीं। लखनऊ में अंग्रेज़ों और इन्किलाबियों के बीच घमासान की लड़ाई होती रही। भारत की वह बहादुर बेटी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, यह चाहती थी कि दुश्मन को किसी भी तरह चैन से न बैठने दिया जाये।

बेगम हजरत महल इसी बीच महान मुजाहिदे आज़ादी नाना साहिब (1824-1859) से भी सम्पर्क साधती रहीं। वह स्वतंत्रता सेनानी अहमदुल्लाह शाह को भी समय- समय पर मदद पहुंचाती रहीं।

मुशावरती कमेटी का गठन :-

बेगम ने आन्दोलन के सही संचालन के लिए अच्छी सूझ-बूझ के हिन्दुओं और मुसलमानों की बराबर संख्या में एक परामर्श समिति (मुशावरती कमेटी) भी बना दी थी। जिस में सभी मिल जुल कर महत्वपूर्ण फ़ैसले लिया करते थे। बेगम की इस समझदारी के कारण आपसी एकता भी बनी रही और संघर्ष में भी मज़बूती रही। हजरत महल के दिल में अंग्रेज़ों से बदले की आग सुलगती रहती थी। वह नहीं चाहती थीं कि अंग्रेज़ और ज्यादा वक़्त यहां टिके रहें।

वह कभी हाथ में तलवार बामती और भावुक लहजे में इन्किलाबियों में जोशीले अन्दाज में कही कि अंग्रेज़ों के शासन को उखाड़ फेंको या देश को आजाद कराने के लिए मर मिटो।

फ़िरंगियों के दबाव से प्रभावित हो कर एक समय आन्दोलन के दौरान बेगम ने अपने सैनिक ओहदेदारों की मीटिंग को सम्बोधित करते हुए कहा था-“दिल्ली की ताकतवर हुकूमत से हमारी बहुत उम्मीदें बंधी हुई थीं। वहां से आने वाली खबरों से हमारे बदन में खुशी और कामयाबी की लहरे दौड़ती रहती थी है कि अंग्रेज ने हमारे ही कुछ लोगों को पैसे के बल पर खरीद लिया,

फिर ब्रिटिश शासन की वफ़ादार सेना ने विजय पाकर बादशाह का तख्ता पलट दिया। जिस के कारण आवागमन के साधन भी टूट गए। यहां तक कि नाना साहिब भी हार गए हैं। अब हम फ़िरंगियों से घिर चुके हैं। लखनऊ पूरी तरह से खतरे में आ चुका है। हमारी पूरी सेना लखनऊ में मौजूद है। चारों ओर से फ़िरंगी दबाव को देख कर सेना की हिम्मत टूट रही है।


बेगम ने सैनिक अधिकारियों को झंझोड़ते हुए बुलन्द आवाज़ में कहा किसेना को आलम बाग़ पर हमला करने में क्या परेशानी है। हमारी फौज किस इन्तिज़ार में हाथ बांधे बैठी है? क्या हमारी सेना अंग्रेज़ों को मजबूत करने और लखनऊ को ख़तरे में डालने का इन्तिज़ार कर रही है?

बेगम हज़रत महल ने हर समय हर मोर्चे पर अपनी सेना के जवानों को नया हौसला और हिम्मत दी। कभी उसने जोशीली तक़रीरे कीं, कभी मैदाने जंग में सिपाहियों को थपथपाया और कभी ख़ुद भी मैदान में तलवार लहराई। एक समय फिर फ़िरंगी सेना और नेपाल के शासक राना जंग बहादर की गोरखा मित्र सेना ने संयुक्त रूप से मूसा बाग़ के मोर्चे पर आज़ादी के मतवालों से घमासान की लड़ाई की। हर तरफ मार काट, चीख व पुकार की आवाज़ें गूंज रही थीं। कत्ल और गारतगरी के कारण लाशों के ढेर लग रहे थे। चारों ओर खतू ही खून फैल रहा था।

बेगम हज़रत महल की जिन्दगी के आखिरी पल:-

लखनऊ में लड़ाई तो हार गई, मगर उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं हारी वह यह नहीं चाहती थीं कि इस हार के बाद वह अंग्रेजों की नापाक नज़रों के सामने रहे।कुछ समय बाद वह अपने फौजी दस्ते के साथ लखनऊ से बाहर निकल गई रास्ते में उनके दिल में फिर से बदले की आग सुलगने लगी। उनको अब अपनी जिन्दगी से भी कोई मोह नहीं रहा था।

उस देश प्रेमी आज़ादी की मतवाली बेगम की बस एक ही तमन्ना थी, या तो फिरंगियों के नापाक पंजों से देश सदैव के लिए आज़ाद हो जाये अथवा बेगम के पवित्र जिस्म रूपी पिंजरे से उनकी आत्मा (रूह) हमेशा के लिए आज़ाद हो जाए। इसी सोच को लेकर रास्ते में “बॉडी” नामक स्थान पर दोबारा लड़ाई की तैयारी करके वह फिर फिरंगी सेना से जा भिड़ीं।

दोनों ओर से मुक़ाबला और मार-काट हुई लेकिन दुश्मन की फ़ौज फिर भारी पड़ गई। देश की उस बहादुर बेटी को गिरफ़्तार करने के लिए फिरंगियों ने चारों ओर से घेर लिया। इसी बीच स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अहमदुल्लाह शाह ने अपनी फ़ौजी टुकड़ी के साथ बीच में कूद कर अंग्रेज़ सेना का रास्ता रोक लिया। बेगम मौका पाते ही अपने बेटे ब्रिजीस कदर बहादुर के साथ नेपाल की ओर निकल गई।

बेगम हज़रत महल और नेपाल:

नेपाल के राजा रानी जंग बहादुर लड़ाई के समय अवध की सेना के खिलाफ के साथ थे, लेकिन उन्होंने बेगम हजरत महल को नेपाल में राजनैतिक शरण दे दी  इसके बाद उनके गुज़ारे के लिए कुछ वजीफ़ा भी मंजूर कर दिया।

बाद में ब्रिटिश शासन ने भी उन्हें पेंशन देने और कलकत्ता या लखनऊ में आकर रहने के लिए बुलावा भेजा। भारत की उस स्वाभिमानी बेटी ने अंग्रेजों की बात पर भरोसा नहीं किया। उसने अपने गुलाम देश में जीने के बजाय आबाद गैर मुल्क में मरना पसंद किया  तथा वहां गुर्खेत में सीधी सादी जिन्दगी गुज़ारी। चौक काठमांडु में बेगम द्वारा एक मस्जिद भी बनवाई गई जोकि आज भी देखी जाती है

बेगम हज़रत महल ने अपने देश की आज़ादी की ख़ातिर देश से बाहर की परेशानियां और मुश्किलें झेलते हुए अपना शेष जीवन नेपाल में ही गुज़ार दिया।

हिंदुस्तान की उस बहादुर बेटी ने मजबूरी में नेपाल की मिट्टी से दोस्ती कर ली और 17 अप्रैल 1879 को वह अपनी उस सहेली की गोद में ही सदा के लिए सो गई, उस स्वाभिमानी बेटी की मज़ार काठमांडु में उसके द्वारा बनवाई हुई मस्जिद में अब भी मौजूद है।

वह मुस्लिम महिला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जब तक अपने देश में रही, देश की आज़ादी, आबरू और इज़्ज़त के लिए संघर्ष करती रही।

FAQ
बेगम हज़रत महल का जन्म कब हुआ था ?

1830 में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में हुआ था।

बेगम हज़रत महल के बेटे का क्या नाम था ?

बादशाह ब्रिजीस क़दर

बेगम हज़रत महल पिता का क्या नाम था ?

नवाब अमजद अली शाह

बेगम हज़रत महल की मृत्यु कब हुयी थी ?

 7 अप्रैल 1879, काठमांडू नेपाल  











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