मौलाना मुहम्मद अली 'जौहर' का इतिहास | Sufi Nama
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मौलाना मुहम्मद अली ‘जौहर’ का इतिहास | Sufi Nama

by रवि पाल
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हिंदुस्तान का इतिहास अपने आप में देश और दुनिया के लिए एक क्रांति का सबक है यदि आजादी का मतलब पता करना है तो भारत जैसे महान देश के क्रांतिकारियों के बारे में जानना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है यह एक मात्र ऐसा देश है जिसने आपनी आजादी के लाखों कुर्बानियां दी है जिसमें  से एक कुर्बानी  मौलाना मुहम्मद अली ‘जौहर’ की भी है |

भारत देश का एक ऐसा परिवार जिसने वतन की आज़ादी को अपने जीवन का मकसद बना रखा था, चाहे ज़ईफ़ मां हो या कि जवान बेटे, उन सब का एक ही उद्देश्य था “अपने वतन को फ़िरंगी तानाशाही, लूट-मार, जुल्म व अत्याचार से छुटकारा दिलाना।”

इस लेख में यदि दोनों बेटो मुहम्मद अली एवं शौकत अली (अली ब्रादरान) द्वारा देश की आज़ादी के संघर्ष का उल्लेख किया जाता है तो उनकी माँ “बी-अम्मा के संबंध में भी लिखा जाना ज़रूरी हो जाता है। यदि केवल बी-अम्मा के देश प्रेम पर रोशनी डाली जाती है तो दोनों बेटों के बग़ैर कहानी अधूरी रह जाती है।

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मौलाना मुहम्मद अली ‘जौहर’ का जन्म और बचपन:-

इस देश की पवित्र धरती ने ऐसे बच्चों को भी जन्म दिया है जो कि विदेशों में अंग्रेजी पढ़ाई की बड़ी डिग्रियां हासिल करने के बाद भी अपने उच्च आचरण, अच्छे चाल-चलन और धार्मिक कामों के कारण मौलाना कहलाए। टीपू सुल्तान के बारे में यहाँ क्लिक करें

आज़ादी का मतवाला, फ़िरंगियों का दुश्मन, महात्मा गांधी का नज़दीकी साथी, खिलाफ़त मूव्मेंट का संस्थापक, मौलाना अब्दुल अली एवं आबादी बानो बेगम (बी-अम्मा) का चहेता बेटा, भारत का वीर सपूत मुहम्मद अली जौहर रामपुर में 10 सितम्बर 1878 को पैदा हुआ।

इन्होने अरबी और फ़ारसी की तालीम घर पर ही पूरी करने के बाद बरेली स्कूल में दाखिला लिया। आगे की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ गए। मुहम्मद अली जौहर ने वहां से प्रथम श्रेणी में बी.ए. की डिग्री हासिल की। उनके वालिद मौलाना अब्दल अली उन्हें दो साल की कम उम्र में ही छोड़ कर इस दुनिया से चल बसे थे।

मौलाना मुहम्मद अली ‘जौहर’ की तालीम ( शिक्षा):-

इनकी मां बी-अम्मा पर ही बच्चों की तालीम लेकिन सफल एवं अन्य जरूरतों की परी ज़िम्मेदारी आ गई थी। मुहम्मद अली द्वारा यहां की तालीम परी करने के बाद उनके बड़े भाई शौकत अली ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए इंग्लिस्तान भेज दिया।

वहां वह I.C.S. के इम्तिहान में शामिल हुए नहीं हो सके। बी अम्मा ने उन्हें वापस बुला कर उनकी शादी अमजदी बेगम से कर दी। वह शादी के कुछ समय बाद दोबारा इंग्लिस्तान चले गए और आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से बी.ए. आनर्स की डिग्री से कर अपने वतन हिन्दुस्तान आए यहाँ आकर उन्होंने रामपुर में चीफ एजूकेशन आफिसर के ओहदे पर कर ली।

उसके बाद रियासत बड़ौदा में भी बड़े पद पर अपनी सेवाएं दीं। वह अपने स्वभाव के कारण नौकरी की शर्तों की पाबंदियां पूरी नहीं कर पाते थे। वह एक आज़ाद खयाल, बेबाक, स्पष्ट वक्ता (साफ़-गो) इन्सान थे। वैसे उनका मकसद केवल अपना और अपने परिवार का ही पेट पालना नहीं था, इसी कारण 1910 में उन्होंने रियासत बड़ौदा की नौकरी छोड़ दी।

मौलाना मुहम्मद अली ‘जौहर’ क्रांतिकारी भावना:-

उस समय देश के हालात के खराब होने के कारण उन्होंने पत्रकारिता (सहाफत) शुरू कर दी। टाइम्स आफ इंडिया के एडिटर के ने पर उन्होंने उसमें लेख लिखना शुरू कर दिये। उसमें उन्होंने “Thoughts on present discontent” (वर्तमान असंतोष पर विचार लेख कई किस्तों में लिखा।

गुलामी की बेड़ियों की खनक, देश के लिए बहुत कुछ करने को उन्हें बार-बार आवाज दे रही थी। उनके मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के खयाल आते। वह अंग्रे शासन के विरुद्ध नई-नई योजनाएं बनाते।यहां तक कि उन्होंने फिरंगियों के अन्याय, चालबाज़ियों और लालच के विरुद्ध अपने जज़्बात से देशवासियों को आगाह करने के लिए 14 जनवरी 1911 को कलकत्ता से “कामरेड नामक साप्ताहिक अख़बार निकालना शुरू किया। वह अंग्रेज़ी एवं उर्दू भाषा के माहिर थे। दोनों भाषाओं में लेखों, शायरी और उनकी तकरीरों ने यूरोप में तहलका मचा रखा था।

14 जनवरी 1911 को कलकत्ता से “कामरेड” नामक साप्ताहिक अख़बार का उदय और राजनैतिक सफ़र:-

इन्होने जिस तरह से अखबार निकाना उस समय यह सोचा नहीं था कि इस अख़बार से शोहरत मिलेगी और  लोगों को बहुत पसंद आयेगा? फिरंगी हों या हिन्दुस्तानी, सरकारी अफसर हों या आम व्यक्ति, सब को ही कामरेड का बेचैनी से इन्तिजार रहता था।

वह अखबार मुहम्मद अली जौहर की राजनीति में प्रवेश की एक सीढ़ी थी। उनके द्वारा उर्दू भाषा में पहले नकीब हमदर्दी बाद में “हमदर्द” नाम से एक उच्च स्तरीय अखबार निकाला गया। इन में भी देश सेवा व राष्ट्र प्रेम के लेख, आज़ादी के संघर्ष में अवाम के द्वारा सहयोग और अंग्रेज़ों की चालबाज़ियों पर रोशनी डाली जाती थी। वह अख़बार भी उर्दू जानने वालों में बहुत मशहूर और पसंद किया गया।

दोनों अखबारों द्वारा उनका सियासी क्षेत्र में नाम हुआ और पहचान भी बनी। उन्होंने ऐसे समय में कौम की सेवा का काम शुरू किया जब कि मुसलमानों के सियासी, समाजी और मजहबी हालात अच्छे नहीं अनमा-ए-दीन को मुस्लिम में मजहबी उसूलों को बाक़ी रखने के लिए विक्रम और प्रयासरत थे।

महत्वपूर्ण शव्द :-

इस सिलसिले में देवबंद और लखनऊ की बड़ी संस्थाओं के जरिये मुसलमानों में दीन व ईमान की रोशनी बाक़ी रखने की ओशिश जारी था।

हालांकि उन मदरसों से ज्यादातर लाभ मध्यम वर्ग या ग़रीब दर्ज के लोग ही उठाते थे। मुसलमानों का अधिकांश धनवान वर्ग तो पश्चिमी संस्कृति से ही प्रभावित था। मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी था जो कि अंग्रेज़ी तालीम हासिल करना नहीं चाहता था। मुहम्मद अली जौहर ने ऐसे हालात में अपने अखबार द्वारा अपनी क़ौम को पस्ती से निकालने के प्रयास किए। इसके अतिरिक्त सभी देशवासियों को हिन्दू-मुस्लिम एकता तथा अंग्रेज शासन से छुटकारा दिलाने के लिए जागरूक किया।

मौलाना मुहम्मद अली ‘जौहर’ और Choice of the trucks:-

फिरंगियों को उनके अखबार के ऐसे संदेश बिल्कुल भी नहीं भाते थे। वे ऐसी सभी आवाज़ों पर पाबंदी लगाने के बहाने गड़ते रहते थे, प्रथम विश्व युद्ध के मौके पर तुर्की द्वारा जर्मन का साथ देना ब्रिटेन को पसंद नहीं आया। इसकी प्रतिक्रिया में लन्दन टाइम्स अखबार ने Choice of the trucks के नाम से एडिटोरियल लिखा। मुहम्मद अली जौहर जो कि एक निडर, बेबाक नेता और जर्नलिस्ट थे, उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध Choice of the trass का जवाबी लेख अपने अखबार ‘कामरेड में छापा।

उनका जवाबी लेख सुबूतों और दलीलों पर आधारित था। उनके लेख ने फ़िरंगी शासन का पारा ऊंचा बढ़ा दिया। शासन द्वारा उनके खिलाफ़ कार्यवाही कर प्रेस एक्ट के तहत उनका अखबार बंद कर दिया गया। साथ ही मुहम्मद अली और उनके भाई शौकत अली दोनों को ही पहले नज़रबंद फिर दोनों को क़ैद कर दिया गया। उन्हें कई जेलों में बदल-बदल कर रखा गया। इस प्रकार लगभग पांच वर्षों तक उन्हें क़ैद की सज़ा दी गई।

मौलाना मुहम्मद अली ‘जौहर’ को पाच वर्ष की सजा:-

हालांकि उनकी गिरफ्तारी पर देशवासियों की ओर से शासन को कड़ा विरोध झेलना पड़ा, परन्तु शासन ने उस विरोध की परवाह नहीं की।1914 के प्रथम विश्व युद्ध में बरतानिया (ब्रिटेन) ने जर्मन के ख़िलाफ़ एलाने जंग कर दिया। जर्मन का साथ देने के लिए तुर्की ब्रिटेन के ख़िलाफ़ जंग में उतर आया। उधर कुछ समय बाद अमेरिका ने भी ब्रिटेन की मदद के लिए मैदाने जंग गर्मी दिया। दोनों ओर से घमासान लड़ाई हुई। बहुत ज़्यादा जानी व माली नुक़सान हुआ।

अंततः ब्रिटेन की जीत हो गई। ब्रिटेन को तुर्की द्वारा जर्मन का साथ देना बिल्कुल भी नहीं भाया। उसने तुर्की से इसका बदला लेने के लिए तुर्की के टुकड़े कर दिये।उस पर जुल्म और अत्याचार आरंभ कर दिये। अंत में सुलहनामा गया। सुलहनामे की अन्य शर्तों के साथ मुसलमानों के पवित्र स्थानों की सुरक्षा की शर्त भी शामिल की गई थी। जंग बंदी के बाद ब्रिटेन ने सुलहनामे की शर्तों पर अमल नहीं किया और अपनी ताक़त के नशे में मनमानी शुरू कर दी।

खिलाफ़त कमेटी का गठन:-

धार्मिक भावनाओं से प्रभावित हो कर ब्रिटेन से सुलहनामे की शर्तों को मनवाने के लिए 1919 में मम्बई में खिलाफ़त कमेटी का गठन किया गया। जिस के द्वारा शर्तों का पालन कराने की मांगों को ज़ोरदार तरीके से उठाया जा सके। उस कमेटी के नेता मौलाना मुहम्मद अली जौहर रहे। गांधी जी भी खिलाफ़त कमेटी के पक्ष में साथ रहे।

ख़िलाफ़त मूमेंट द्वारा हिन्दू मुसलमान एकता की भी आवाज़ लगाई गई। उस समय इस आवाज़ पर हिन्दस्तान की दोनों ताक़तें मिल कर एक हो गई। एकता के साथ की गई आज़ादी की कोशिशें ब्रिटिश शासन के पैर उखाड़ने का कारण बनी समय की नज़ाकत के मद्देनज़र गांधी जी भी ख़िलाफ़त मूव्मेंट की जरूरत को अच्छी तरह समझ रहे थे। एक मौक़े पर गांधी जी ने कहा कि “यदि आज़ादी के संघर्ष में ख़िलाफ़त मूव्मेंट का सहयोग न मिलता तो हिन्दुस्तान अभी आजाद न हुआ होता।

इतिहास के पन्ने और 13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला बाग़:-

देशवासियों पर जैसे-जैसे फ़िरंगियों के अत्याचार बढ़ रहे थे, आज़ादी के मतवालों की बेचैनी और घुटन भी बढ़ती जा रही थी। “रोलट बिल” के मार्च 1919 मे क़ानूनी रूप लेने के बाद 13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला बाग़ में इन्सानियत को शर्मसार कर देने वाली घटना ने हिन्दू-मुसलमान, सिख आदि सभी देशवासियों को एकता के सूत्र में बांध दिया।

इसी के साथ देशवासियों की अली ब्रादरान को जेल से रिहा करने की मांग भी जोर पकड़ गई। आखिरकार शासन द्वारा 28 दिसम्बर 1919 को उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। आज़ादी के बहादुर सिपाही मुहम्मद अली जौहर वर्षों बाद जेल से रिहा हो कर पहले अपने घर, अपने परिवार के पास नहीं गये, बल्कि वह देश की आज़ादी के लिए कांग्रेस, मुस्लिम लीग और ख़िलाफ़त कान्फ्रेंस के होने वाले सयुंक्त सम्मेलन में सीधे अमृतसर पहुंच गए।

उनके जलसे में पहुंचते ही वहां जमा छोटे-बड़े नेताओं और जनता में नया जोश पैदा हो गया। मौलाना जौहर का स्वागत किया गया। इस आपसी एकता को देख कर मुसलमान बड़ी संख्या में कांग्रेस में शामिल हो गए।

हिन्दू मुश्लिम एकता और बी- आमा का योगदान :-

उनके जलसे में पहुंचते ही वहां जमा छोटे-बड़े नेताओं और जनता में नया जोश पैदा हो गया। मौलाना जौहर का स्वागत किया गया। इस आपसी एकता को देख कर मुसलमान बड़ी संख्या में कांग्रेस में शामिल हो गए। चारों ओर हिन्दू-मुस्लिम एकता के नारों से माहौल ही बदल गया। इस प्रकार एक बड़ी ताकत इकट्ठा होकर रंगी शासन के मुकाबले में खड़ी हो गई। 4 खिलाफत तहरीक को बढ़ावा देने और अपने बेटों, मुहम्मद अली, शौकत अली को हिम्मत एवं हौसला देने में उनकी माँ बी-अम्मा का बड़ा हाथ था।

वह उसे इतना ज्यादा जरूरी समझती थीं कि उनका अपने दोनों बेटों से यह कहना था-

बोली अम्मा मुहम्मद अली की जान बेटा ख़िलाफ़त पे दे दो

इस प्रकार मुहम्मद अली खिलाफ़त मूव्मेंट द्वारा ब्रिटिश शासन पर हिन्दस्तान को आजाद करने का दबाव बनाए हुए थे। उन्होंने ख़िलाफ़त तहरीक के ज़रिये लन्दन पहुच कर तुर्की का मामला भी सुलझाने का प्रयास किया।

मुहम्मद अली जौहर, गांधी जी में बहुत विश्वास रखते और उन्हें पसन्द करते. थे। वह अपने सियासी कामों में भी गांधी जी को महत्व देते थे। गांधी जी और मुहम्मद अली दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि सियासत को मज़हब से अलग नहीं किया जा सकता।

विचारधारा:-

इस प्रकार दोनों ही नेताओं की विचारधारा आपस में ह बेल खाती थी। यही कारण था कि गांधी जी भी ख़िलाफ़त मूव्मेंट में सक्रिय रहे। गांधी जी ने अंग्रेज़ों की संकुचित सोच और स्तरहीन राजनीति का अन्दाज़ा लगा कर आर-पार की लड़ाई का फ़ैसला लिया। उन्होंने अफ्रीका से बैरिस्टर की डिग्री हासिल कर, हिन्दुस्तान लौटने पर आज़ादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया। महम्मद अली ने गांधी जी से प्रभावित हो कर उन्हें महात्मा का नाम दिया।

साथ गाँधी जी को हिन्दू-मुसलमानों का एक धर्मनिरपेक्ष नेता बनाने में भी अहम भूमिका निभाई। मुहम्मद अली ने अपनी बेबाक, निडर लेखनी, साहस भरी तक़रीरों और ईमानदारी के प्रयासों से आज़ादी के आन्दोलनों में बहुत सहयोग दिया। उनकी सक्रिय भूमिका के कारण ही उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष भी बनाया गया।

उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के जनरल सेक्रेट्री थे। गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन का नारा दिया। उसका प्रभाव लगभग पूरे देश पर ही पड़ा। मुहम्मद अली यह नहीं चाहते थे कि ब्रिटिश शासन की आर्थिक सहायता से हमारे स्कूल और कालेज चलाए जायें, क्योंकि शासन से सहायता लेने का मकसद गुलामी से प्रभावित शिक्षा दिया जाना है।

इतिहास हमेसा याद रखेगा :-

वह चाहते थे कि हमारे स्कूल-कालेज ब्रिटिश शासन की ग्रांट का बहिष्कार करें। इसी संदर्भ में वह गांधी जी को लेकर अलीगढ़ गए। वहां कालेज के प्रबंधकों के सामने मांग रखी कि वह फ़िरंगी शासन की ग्रांट लेना बन्द कर दें। प्रबंधकों ने इस सलाह को नहीं  हालात को देखते हुए मुसलमान विद्यार्थियों के लिए ब्रिटिश शासन के अ आज़ाद जामिया मिल्लया इस्लामिया की बुनियाद रखी गई। और बहुत ही उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे। उन्होंने किसी भी दीनी मदरसे में मजहबी तालीम मुहब्बत पाई, परन्तु वह और उनके भाई धार्मिक थे। वह अपनी वेश-भूषा और गतिविधियों के कारण ही मौलाना कहलाए।

वतन से आज़ादी पर अपने आप को कुर्बान कर देने का जच्चा उनके दिल में भी था उन्होंने अपने जीवन के आख़िरी लम्हों तक देश को आजाद कराने की ल की। यही कारण था कि गांधीजी, पंडित नेहरू और अन्य नेता भी देश के उनकी सच्ची भावनाओं को पहचान कर उन्हें महान नेता मानते थे। देश के लिए कड़ी मेहनत, क़ौम की परेशानियों को हल करने के प्रयासों ने उन्हें का साथ ही डायबिटीज जैसी खतरनाक बीमारी ने उनके शरीर को खाकर था।

जिंदगी का आखिरी सफ़र:-

भारत का वह वीर सिपाही अपनी किसी भी बीमारी या मजबूरी के कार सेवा से कभी पीछे नहीं हटा। यहां तक कि दिसम्बर 1930 में लन्दन में हुई गोल मेज़ कान्फ्रेंस में बुलावे पर उन्होंने उसी बीमारी की हालत में शिरकत की उस समय उनका एक पर सुन ही चुका था। यहां तक कि उनके स्वास्थ्य के कारण उन्हें अस्पताल में दाखिल करना पड़ा। उस हालत में भी ह अपने देश की आज़ादी के लिए कान्फ्रेंस में जाना अपना फ़र्ज़ समझते थे। उन्होंने अपनी नाजुक हालत का अन्दाज़ा लगा कर अपनी बेगम को भी साथ रख  था।

गोलमेज़ कान्फ्रेंस में फ़िरंगियों के बीच भारत के उस बहादुर सपूत, आबादी के मतवाले ने साफ़ तौर से यह कहा था-

आज जिस मक़सद के लिए मैं आया हूं, वह यह है कि मैं अपने मुल्क ऐसी हालत में जाऊंगा जबकि आज़ादी का परवाना मेरे हाथ में हो।

मैं एक गुलाम मुल्क वापस नहीं जाऊंगा। मैं, एक गैर मुल्क में जब तक वह आज़ाद है, मरने को प्राथमिकता दूंगा। अगर आप हिन्दुस्तान को आज़ादी नहीं देंगे तो फिर मुझे क़ब्र के लिए यहीं जगह देनी पड़ेगी।

फ़िरंगियों की ज़िद और हठ-धर्मी के कारण कान्फ्रेंस फ़ेल हो गई। वतन की आज़ादी के लिए जोशीली और जज़्बाती तक़रीर के बाद मुहम्मद अली जौहर की तबियत बिगड़ गई। आज़ादी का वह सच्चा मतवाला गोलमेज़ कान्फ्रेंस में आखिरी सांस तक अपने देश हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने की जी-जान से वकालत करता रहा।

मृत्यु:-

अंग्रेजों ने उनकी मांग पूरी नहीं की। वह मुजाहिदे आज़ादी, स्वता संग्राम सेनानी लन्दन की धरती से ही 4 जनवरी 1931 को अपनी जिन्दगी के आखिरी सफ़र पर निकल गए। चारों ओर मातम ही मातम छा गया। उन्हें नहलाने के बाद लेडिंगटन हाल में नमाज़े-जनाज़ा अदा की गई। जनाज़े में गोलमेज कान्फ्रेंस के सभी सदस्य और अन्य कई महान हस्तियां शामिल हुई। आपसी सलाह-मशवरे के बाद हिन्दस्तान के उस महान सपूत मुहम्मद अली जौहर की मध्यित को फ़िलिस्तीन ले जाया गया।


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