आज के युवाओं और इतिहासकारों को हिंदुस्तान के बारे में और ज्यादा रिसर्च करने की जरुरत है जिस तरह से आजादी में शहीद हुए हिन्दू- मुस्लिम- सिख- ईसाई क्रांतिकारियों ने अपना बलिदान दिया, उसके बारे में बहुत कम लिखा गया है
इतिहास के पन्ने में ऐसे महापुरुषों के बारे में बारीक़ से आज़ादी की लड़ाई में मुसलमान और हिन्दू दोनों ही सम्प्रदायों की भूमिका रही है उसके बारे में बताया गया है
लेकिन यह भी देखने की बात है कि आज़ादी की लड़ाई की पहल किसने की? देश पर अंग्रेज़ों के कब्ज़े की रोक-थाम के लिए पहले किसने मुसीबतें झेली और कुर्बानियां दी इसके साथ-साथ अंग्रेज़ों को प्रथमतः किस के विरोध का सामना करना पड़ा?
इस ब्लॉग में लेखक के द्वारा और भी महान पुरुषों का इतिहास लिखा गया है जिनको आप क्लिक कर के पढ़ सकते है उनका नाम इस प्रकार है|
शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी ,शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी, टीपू सुल्तान , हाजी इमदादुल्लाह मक्की और सय्यिद अहमद शहीद
मौलाना फ़ज़ले-हक़ ख़ैराबादी का जन्म:-
इनका जन्म सन् 1797 में उत्तर प्रदेश के ज़िला सीतापुर के क़स्बे खैराबाद में हुआ था पिता का नाम मौलाना फ़ज़्ल इमाम था इनके पिता फ़ज़्ल इमाम उस दौर के धार्मिक विद्वानों में से थे। मौलाना फज़ले-हक खैराबादी ने शुरू में अपने वालिद से ही घर पर तालीम पाई। उसके बाद उस ज़माने की धार्मिक हस्तियों शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी, शाह अब्दुल कादिर मुहद्दिस देहलवी आदि से तालीम हासिल की।
यह खैराबादी सूफ़ी मिज़ाज के व्यक्ति थे। उस पर यह कि उनकी तालीम और सोहबत भी ऐसी ही हस्तियों से रही। इस कारण उनका इल्म और इबादत दोनों ही उन्हें बुलंदी पर ले गए। एक समय वह भी आया जब उनकी तालीम पूरी हो गई।
इसके बाद मौलाना फ़ज़ले-हक़ अपने इल्म से फ़ायदा पहुंचाने के लिए अन्य लोगों को पढ़ाने लग तथा अलग-अलग जगहों के मदरसों में तालीम दी। उनके इल्म, आला सूझबू इबादत, उनके अच्छे बर्ताव और वतन प्रेम की पवित्र भावनाओं के कारण वे सभी के लिए सम्मानित और हरदिल अज़ीज़ रहे।
उस दौर के उच्च स्तर के लोग उनके साथ अपने क़रीबी रिश्ते बनाए हुए थे। बहादुरशाह जफर, जौक, मोमिन, सेहवाई, आज़ुरदह और मिर्ज़ा ग़ालिब से उनका दोस्ताना था। ग़ालिब साहिब कभी अपनी शायरी में मौलाना से सुधार भी करवाया करते थे।
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मौलाना फ़ज़ले-हक खैराबादी की अंग्रेजों के प्रति सोच:-
इन्होंने अपनी दूरदृष्टि से अंग्रेज़ों के बढ़ते हुए क़दम और उसके नतीजों का अन्दाजा लगाया, वह इस बात को समझ रहे थे कि फ़िरंगिया की चालें देश एवं देशवासियों को गुलामी के जाल में फंसा रही है।
फिरंगी प्रत्येक चाल इतने लुभावने अन्दाज़ में चलते थे कि साधारण देशवासी नुक़सान को सोच भी नहीं सकता था। शिक्षा की आड़ में उन्होंने भारतवासियों को ईसाई धर्म की तालीम देनी आरंभ कर दी थी।
वहीँ फिरंगी गांव-गांव मिशन स्कूल खोलकर बच्चों को ईसाई धर्म की शिक्षा दे रहे थे। ताकि वे अपने धर्म से भटक जाये और ईसाई मज़हब को स्वीकार कर लें। वह पश्चिमी संस्कृति और फिर ईसाइयत की और नौजवानों तथा बच्चों को आकर्षित किया करते थे। उस आरंभिक दौर में विशेष कर वह मुसलमानों से दुश्मनी निभा रहे थे।
फिरंगियों का फ़ज़ले-हक खैराबादी प्रति व्यवहार:-
नई पीढ़ी में उलमा से बेज़ारी पैदा करने, मदरसों को दकियानूसी संस्थाएं बता कर मज़हब से दूरी पैदा करने के प्रयास कर रहे थे। यहाँ तककि धार्मिक मामलों में वे इतना दखल देने लगे थे कि उन्होंने मुसलमानों को ख़तना कराने से रोकने और महिलाओं के पर्दे को ख़त्म करने के लिए बाकायदा साज़िश रची थी।
इसी तरह खाने का ज़रूरी सामान ख़रीद कर वे अपने ही कब्जे में कर लेते थे। ताकि लोग ज़रूरत की चीज़ें उनसे ही लिया करें और उनकी किसी भी बात का विरोध न करें। इन सभी हालात को देख कर मौलाना ख़ैराबादी बहुत चिन्तित रहते थे। भारतवासियों को ईसाई बनाने के लिए सन् 1850 में एक्ट पास किया गया। ईसाई पादरियों द्वारा किसी को भी ईसाई बनाने की खुली छूट थी। वे सभी बातें ऐसी थीं जो उस समय के धीर और धार्मिक लोगों को चौंकाने वाली थी
शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी के बारे में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे
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मौलाना फ़ज़ले-हक खैराबादी का हिंदुस्तान के प्रति मोहब्बत:-
सोने की चिड़िया रूपी हिन्दुस्तान से फिरंगी धन-दौलत तो लूट ही रहे थे, साथ ही जो हिन्दुस्तान हिन्दू धर्म की पवित्र आस्थाओं और मज़हबे इस्लाम के पाकीज़ा उसूलों को बर्बाद करने पर तुले हुए थे
जिस हिन्दुस्तान को अपनी प्राचीन संस्कृति व आला तहजीब पर गर्व था, यहां के मज़हबी माहौल को बिगाड़ने, यहां की संस्कृति पर नंगेपन की पश्चिमी संस्कृति व सभ्यता थोपने, यहां की हिन्दू-मुस्लिम एकता और भाई-चारे की परम्परा को खत्म करने के लिए फ़िरंगियों ने अपनी नापाक साजिशों की मुहिम छेड़ रखी थी। जिस में सफल होकर वे सरलता के साथ यहां के धन-दौलत को लूट सके और पूरे हिन्दुस्तान पर कब्जा जमा सकें।
मौलाना फजले हक खैराबादी इन्हीं कारणों से फिरंगियों से नफरत करते थे उनके दिल में अपने देश को आज़ादी दिलाने का जज्बा दिन- रात कानों में गूंजता रहता था यहाँ तक कि उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद झज्झर(हरियाणा मे एक जिला)के नवाब फ़ैज़ मुहम्मद ख़ां के यहाँ कुछ समय के लिए नौकरी कर ली थी।
हालाकिं वह वहां ज्यादा नहीं रहे क्यों कि उनके मन में तो आज़ादी की चिंगारी जलती रहती थी।
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मौलाना फ़ज़ले-हक खैराबादी का हिंदुस्तान के प्रति योगदान:-
गुलामी से छुटकारा पाने की आग देश के अन्य भागों की तरह हनुमान गढ़ी (अयोध्या) में भी सुलग रही थी। वहां अंग्रेज़ों के विरुद्ध मौलाना अमीर अली अमेठवी मुजाहिदों की कमान संभाले हुए थे उनको मौलाना फ़ज़ले हक़ का भी समर्थन प्राप्त था। मार-काट के बाद नवाब वाजिद अली शाह की फ़ौजें मुजाहिदों पर ग़ालिब आ गयीं।
देश के एक बड़े स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मौलाना अमीर अली अमेठवी को नवाब की तोप ने एक धमाके के साथ उड़ा दिया उनकी शहादत से मौलाना फ़ज़ले-हक़ बहुत दुखी हुए, यहाँ से उनके मन में फिरगियों के प्रति बहुत गुस्सा था
एक तरफ हिन्दुस्तान पर कम्पनी के क़ब्ज़े के कारण देश भर में लड़ाइयां चल रही थीं वहीँ दूसरी तरफ मौलाना ख़ैराबादी दुखी हो कर वहां से अलवर चले आये उधर अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह से भी अवध की रियासत छीन ली। मौलाना ने अलवर पहुंच कर भी आज़ादी का अपना मिशन जारी रखा।
उन्होंने अलवर में फिरंगियों के प्रति आन्दोलन के लिए माहौल बनाना शुरू कर दिया। अपने वतन को गुलामी से छुटकारा दिलाने के लिए मौलाना, जगह जगह भाषण देते और लोगों को जिहाद में भाग लेने के लिए तैयार करते थे।
मौलाना फ़ज़ले-हक की मज़हबी हैसियत और वतन पर मर-मिटने के सच्चे जज़्बे को देख कर लोग बहुत प्रभावित थे। उनके आह्वान पर सैकड़ों लोग जमा हो गए और उनके हुक्म पर अपनी जानें कुर्बान करने को तैयार हो गए।
कहीं अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ समय-समय पर परिस्थिति अनुसार मौलवी अपने जिहादी फ़तवों द्वारा, जंग करवा कर ख़ुद भी शहादत का मज़ा चख रहे थे, तो फिरंगियों और उनके सैनिकों को भी मौत के घाट उतार रहे थे।
मौलाना फ़ज़ले-हक खैराबादी ने राजस्थान अलवर में आन्दोलन की तैयारी:-
कहते है जब देश से मोहब्बत हो जाये तो कुछ भी किया जा सकता है इसी को जज्बे में उतार कर संघर्ष छेड़े हुए अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने की कसमें खायी थी तो कभी फिरंगियों की पकड़ में अपनी जाने हिंदुस्तान पर लुटा रहे थे। अवध पर फ़िरंगी अपना कब्जा कर वाजिद अली शाह को नजरबंद कर चुके थे। इधर उनकी बेगम हजरत महल मौलवी अहमदुल्लाह शाह, फ़िरंगियों से मुकाबला कर रहे थे।
मई 1857 में मे छावनी की सेना बगावत करके बहादुरशाह ज़फ़र के पास पहुच गई। दोनों ओर से जंग दे फजले हक खैराबादी ने भी अपने साथियों के हमराह दिल्ली पहुंच कर बादशाह मुलाक़ात की। बहादरशाह ज़फ़र और उनके बीच पहले से ही जान पहचान थी बादशाह ने उन्हें सभी प्रबन्धों की जिम्मेदारी दे दी। जनरल बख़्त खा पहले से सेना और आन्दोलनकारियों की ज़िम्मेदारी संभाले हुए शोले भड़क रहे थे।
मौलाना फ़ज़ले-हक खैराबादी, बादशाह जफ़र और बेगम हजरत से मुलाकात:-
मौलाना खैराबादी उस लड़ाई में पूरी ताक़त से अंग्रेज़ों से बौखलाहट और घबराहट बहुत बढ़ी हुई थी। उनका भी बहुत ज्यादा जानी हो रहा था। मौलाना खैराबादी ने मौक़ा सही देख कर जनरल बख्त ख़ां के मशवरे से मुसलमानों के बीच फिर से जिहाद का फ़तवा जारी कर दिया। उस फ़तवे को बहुत से उलमा-ए-दीन का समर्थन प्राप्त था। फिर क्या था, इधर मुसलमान तो जीने और मरने दोनों में ही अपनी कामयाबी मान कर लड़ाई में कूद पड़े।
उधर हिन्दू भी वतन पर अपनी जाने लुटाने के लिए फ़िरंगियों से लड़ रहे थे। मार-काट चीख पुकार मची हुई थी, चारा और खून ही खून था। फिरंगियों के पै उखड़ चुके थे। बड़ी संख्या में अंग्रेज घबराए हुए चारा और भाग रहे थे।
यह नजर अपने आप में बहुत प्रभावसाली था जब फिरंगियों के मुह से भाग भागो, बचाओ बचाओ की आवाज़ों का शोर मचा हुआ था। उसी बीच कुछ फ़िरंगी जासूसी करने और ग़द्दारों के माध्यम से साज़िशें करने में भी लगे अंग्रेज़ों की साज़िश फिर रंग लाई।
इतनी मारकाट, ख़ून-खराबे का नतीजा असफलता ही रही। यहां तक कि अंग्रेज़ों का दिल्ली पर दोबारा क़ब्ज़ा हो गया। हुए थे। अंग्रेज़ों ने बदले की भावना के साथ स्वतंत्रता सेनानियों को कुचलने के लिए दरिन्दगी व हैवानियत का नंगा नाच आरंभ कर दिया। चारों ओर सम्मानित और शरीफ व्यक्तियों को चुन-चुन कर कत्ल करना और सूलियों पर लटकाया जाने लगा। हिन्दुओं और मुसलमानों को बहुत बेदर्दी से कत्ल किया गया, भिन्न भिन प्रकार की सजाएं भी दी गई।
इतिहास के पन्ने :-
मौलाना फजले हक ने उस समय के तमाम हालात का अन्दाज़ा लगाते अपने परिवार के सदस्यों को खैराबाद रवाना कर दिया। वह स्वयं अवध के लश्कर हुए के साथ मिल कर अंग्रेज़ के विरुद्ध फिर से लड़ाई में व्यस्त हो गए। उन्हें हार और जीत से कोई सरोकार नहीं था। उनका उद्देश्य तो उस समय तक उपने देश के लिए। लड़ना था जब तक कि देश आजाद न हो जाये अथवा अपनी जान न चली जाये। यहाँ भी हुआ वहीं जो कि उस समय भाग्य में लिखा था।
मौलवी अहमद शाह महल हालात की खराबी और अंग्रेज की जीत देख, नेपाल की ओर निकल गई। मौलाना फजले हक भी अंग्रेजों की न से गायब हो गए। अंग्रेज़ी सेना ने उन्हें सजा देने के लिए चारों ओर तलाशी कर दी। आखिरकार वह स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी मौका देख कर खुद ही अंग्रेज़ अधिकारियों के सामने आ गए। अंग्रेजों को तो उनका दुश्मन मिल गया। भारत के उस देश प्रेमी को गिरफ्तार करके लखनऊ भेज दिया गया। उन पर बगावत का मुकद्दमा कायम किया गया। मुक़द्दमे की कार्यवाही चली।
इनके अन्दर हिम्मत और साहस इतना ज्यादा था कि उन जालिम फिरंगियों की अदालत में उन्होंने अपनी पैरवी के लिए कोई भी वकील नहीं किया। वह सरकारी वकील से खुद ही बह करते थे। उन्हें फिरंगियों के खिलाफ़ अपने किए हुए का न तो कोई गम था न डरा वह अपने आप में पूरी तरह से संतुष्ट थे।
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यहां तक कि अंग्रेज़ जज भी मौलाना की हैसियत, उनकी सच्चाई, उनकी अपने वतन से वफ़ादारी से बहुत प्रभावित था। वह भी यही चाहता था कि मौलाना सजा से बचा दिये जायें। टीपू सुल्तान के बारे में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे
मुकदमे की कार्यवाही में एक ऐसा पंच आ गया था जिसके कारण मौलाना का बरी होना कोई मुश्किल बात नहीं थी। क्योंकि मौलाना के खिलाफ़ जो रिपोर्ट अदालत में पेश हुई थी, उसमें किसी दूसरे फजले हक़ की बात भी शामिल हो गई थी। इस कारण वह रिपोर्ट ही शक के दायरे में आ गई थी, जो कि मौलाना के बरी होने की स्पष्ट बुनियाद थी
टीपू सुल्तान के बारे में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे
इतिहास हमेसा याद रखेगा :-
मौलाना ने यह बात मुनासिब नहीं समझी कि किसी भी झूठ या ग़लत बात की आड़ ली जाये। मौलाना ने बहस के तीसरे दिन भरी अदालत में इस बात को साफ़ तौर से कह दिया कि “मेरे खिलाफ गवाह की लिखवाई हुई रिपोर्ट सच है। मैं इस बात को स्वीकार करता हूं कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जिहाद करने का फ़तवा मेरे द्वारा ही लिखा हुआ है।
मेरे ही मशवरे से अन्य उलमा ने उस पर दस्तखत किए थे। मुझे ख़ुदा को मुहं दिखाना है, मज़हब के मामले में गलत बात नहीं बोल सकता। मैं, दिल से अंग्रेजों का दश्मन है। जिन्होंने हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने की कोशिश की है। मैं गुलामी की ज़िन्दगी से आज़ादी की मौत को अच्छा समझता हूं।
मौलाना फ़ज़ले-हक खैराबादी को जेल में यातनाएं:-
इस महान क्रन्तिकारी को हिंदुस्तान से इनती मोहब्बत थी कि इनके ऊपर लगाया गया इल्ज़ाम फिरंगी अदालत में बुलंद आवाज से कुबूल कर लिया और अदालत में मौजूद सभी लोग मौलाना का बेबाक और सच्चा बयान सुन कर हैरत में पड़ गए।
मौलाना को सजा से बचाने की कोशिश करने वाले भी उनके इकबाले जुर्म के बाद खामोश हो गए। उस समय मौलाना फजले हक खैराबादी के चेहरे पर मुल्क से वफादारी की मुस्कान खेल रही थी। हालांकि वह इस इकवाले जुर्म के पीछे छुपी हुई सज़ा-ए-मौत अथवा बेइन्तिहा परेशानियों, असहनीय तकलीफ़ों और अनगिनत दिक्कतों को अच्छी तरह से जानते थे।
फिर भी उन्होंने अपने वतन के साथ वफादारी और सच्ची मुहब्बत निभाने का सुबूत दे कर रहती दुनिया के लिए एक मिसाल कायम कर दी। मौलाना के अदालत में साफ़-सुथरे बयान के तक बाद जब द्वारा उन्हें काले पानी की सजा सुना कर अंडमान भेजे जाने के आदेश दे. दिए गए जिसे मौलाना फजले हक खैराबादी द्वारा मंजूर कर लिया गया।
रिसर्च यहाँ तक बताते है कि मौलाना के लिए पीने का पानी तक नहीं दिया गया और न उनको लोटा दिया गया न कोई प्याला। खाने में उन्हें वहां कोई उबली हुई दाल और पीने के लिए गर्म पानी दिया जाता था।
तमाम तकलीफें देने के बाद मौलाना फ़ज़ले-हक़ ख़ैराबादी को उनकी सज़ा पूरी करने की असल जगह अंडमान पहुंचा दिया गया। जंगे आज़ादी के मुजाहिदीन को दी जाने बाली इन सज़ाओं के मुक़ाबले में सियासी क़ैदियों को दी जाने वाली जेलों की सुविधाओं और सहूलतों का जाहिर है कोई मेल मालूम नहीं होता।
मौलाना फजले हक खैराबादी अन्डमान तकलीफ़ों का हाल अपनी पुस्तक अससोरतुल हिन्दिया” (हिन्दुस्तान का इंक़िलाब) में उनकी ही ज़बानी बयान किया गया है, जिसका संक्षिप्त अनुवाद इस प्रकार है
मुझे अंडमान में एक ऐसे ख़ौफ़नाक ऊंचे पहाड़ पर पहुंचा दिया गया जहां का मौसम, आबो हवा किसी भी तरह से किसी भी इन्सान को स्वस्थ रहने नहीं देती थी। जहां सूरज हमेशा सर पर ही रहता था। वहां ऐसे कठिन रास्ते और ऊंची- नीची पाटिया थीं, जिन्हें कभी भी दरिया की लहरें अपनी लपेटे में ले लिया करती थीं। वहां सुबह की हवा बहुत तेज़ और चुभने वाली हुआ करती थी।
वहां की हर नेमत और ग़िज़ा [भोजन] बहुत ज़्यादा कड़वी, वहां का पानी सांपों के जहर से भी ज्यादा नुक़सान पहुंचाने वाला है। उसका आसमान और उस पर छाये हुए कभी डरावने बादल, कभी ख़ौफ़नाक घनघोर काली घटाएं, तन्हाई और सन्नाटे में अफसोस, बलाओं एवं परेशानियों को बरसाने वाले हैं।
जिन की छतें मेरी आँखों की तरह टपकती रहती थीं। वहां की हवा बदबूदार और बीमारियों का अम्बार लिए हुए थी। बीमारियां बेशुमार फैली हुई थीं। खुजली, खाल फटने और छिलने की बीमारी आम बात थी। बुखार मौत का पैग़ाम हुआ करता था। बीमारियां बहुत सस्ती और इलाज बहुत महंगा था। बीमारियों के इलाज में सेहत की कोई उम्मीद नहीं थी। ईसाई डाक्टर बीमारी पहचाने बगैर दवा पिला कर मौत के क़रीब पहुंचा देता था।
मौलाना फ़ज़ले-हक खैराबादी की जिन्दगी के अंडमान जेल में अंतिम दिन:-
अंडमान जेल की उन तमाम तकलीफ़ों को सहते हुए मौलाना बहुत बीमार रहने लगे थे और कमज़ोर भी हो गए थे। जेल अधिकारियों द्वारा उस महान धार्मिक विद्वान आज़ादी के मतवाले की डियूटी कैदियों की बैरकों के कूड़े-करकट की सफ़ाई करने पर लगाई गई थी। उस वतन प्रेमी, देश प्रेमी मौलाना फज़ले-हक़ ने उसी को अपना मुक़द्दर समझ लिया था।
उधर मौलाना फ़ज़ले-हक़ ख़ैराबादी के बेटे मौलवी शम्सुल हक्क अपने बुज़ुर्ग बाप की जेल से रिहाई के लिए बहुत परेशान थे। उन्होंने क़ानूनी सलाह ले कर उनकी रिहाई के लिए विलायत में अपील दायर कर दी थी। इसके अलावा दुसरे असरदार लागों से भी उनके लिए सिफ़ारिशें करवाई। अदालती मामला और अन्य कोशिशें सभी अपनी गति से चल रही थीं।
उस जेल का अंग्रेज़ अधीक्षक भी ज्ञान एवं साहित्य में बहुत शौक रखता था। वह पढ़े-लिखों की कद्र भी करता था। अपेक्ष अधीक्षक ने फ़ारसी भाषा में एक पुस्तक भी लिखी थी। उसने एक और मौलवी कैदी को वह पुस्तक सुधार करने के लिए दी। वह मौलवी साहिब उसमें कुछ भी सुधार नहीं कर सके। उन मौलवी साहिब को यह मालूम हो चुका था कि मौलाना खैराबादी एक उच्च स्तर के आलिम हैं।
आलिमों, अदीबों, फ़नकारों उनका बड़ा मकाम है। वह भी अन्डमान की इसी जेल में बंद है। वह मौलवी साहिब जेल अधीक्षक की फ़ारसी वाली पुस्तक ले कर मौलाना खैराबादी के पास पहुँच गए। उन्होंने किताब में सुधार करने का निवेदन किया। मौलाना फजले हक ने एक सप्ताह के अन्दर उस किताब में आवश्यक सुधार कर तथा उसमें सन्दर्भ आदि डाल कर पुस्तक वापस कर दी।
मौलाना फ़ज़ले-हक़ ख़ैराबादी जेल की कहानियाँ”
मौलवी साहिब ने वह पुस्तक जेल अधीक्षक को लौटा दी। जेल अधीक्षक किए गए सुधारों को देख कर अचम्भे में पड़ गया। वह बहुत ख़ुश हुआ। मौलवी साहिब ने उसे बताया कि पुस्तक में सुधार मेरे द्वारा नहीं किए गए, बल्कि मौलाना फ़जले-हक़ ख़ैराबादी द्वारा जो कि फ़िरंगी शासन के विरुद्ध जिहाद का फ़तवा दिये जाने के जुर्म में यहां सज़ा काट रहे हैं, किए गए हैं।
उसने स्वयं मौलाना से मिलने की इच्छा व्यक्त की। मौलवी साहिब और जेल अधीक्षक दोनों ही मौलाना फजले- हक़ से मिलने उनके पास गए। वह उस समय वहां नहीं थे। उन दोनों ने वहीं उनका इन्तिज़ार किया।
थोड़ी देर बाद देखा कि एक ख़ूबसूरत साफ़-सुथरा बूढ़ा व कमज़ोर सा आदमी, जिसके जिस्म से दिल व दिमाग़ को ताज़गी देने वाली मंद-मंद ख़ुशबू फैल रही थी, नूरानी दाढ़ी वाला चेहरा। चेहरे पर फैला हुआ सुकून, होठों पर सब्र की हल्की सी मुस्कुराहट, हाथ में कचरा फेंकने की एक बड़ी सी टोकरी लिए हुए चला आ रहा है।
मौलवी साहिब ने अंग्रेज़ जेल अधीक्षक से कहा कि यह वही बुज़ुर्ग व्यक्ति है जिन्होंने आपकी किताब में सुधार किये हैं। यह बुलन्द दरजे के बुज़ुर्ग और बड़े आलिमे दीन हैं। उनको देखते ही जेल अधीक्षक पर उनका गहरा असर पड़ा। वह उनसे बहुत ही आदर से मिला। उस महान हस्ती के हाथों में कचरे की टोकरी देख कर फ़िरंगी अधीक्षक की आंखों में आंसू भर आये। उसने मौलाना खैराबादी की डियूटी तुरन्त बदल कर उन्हें अपने पास ही रख लिया।
इसी दौरान मौलाना फजले हक के बेटे अपनी कोशिशों में कामयाब हो गए। उन्हें विलायत से मौलाना की रिहाई का आदेश मिल गया। फिर क्या था, वे फूल नहीं समा रहे थे। मौलाना के शागिर्दों, मुरीदों, साथियों जिसने भी उनकी रिहाई की खबर सुनी सभी खुश हो गए। सभी के बीच ख़ुशी की लहर दौड़ गई। प्रत्येक व्यक्ति उनके दीदार के लिए बेचैन और बेकरार था।
अपने बेटे शम्सुल हक़ की लम्बे असे बाद अपने बाप से मुलाक़ात के लिए हर पल व हर लम्हा बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वह अपने वालिद, मौलाना फजले हक को लेने के लिए जहाज से रवाना हो गए। जहाज जैसे जैसे अन्डमान टापू के करीब होता जा रहा था, बेटे शम्सुल हक़ की, खुशी के कारण दिल की धड़कने बढ़ती जा रही थी।
जिस टापू का नाम सुन कर लोगों की आत्मा कांप उठती थी, अपने वालिद की रिहाई का हुक्म नामा उस खौफ़नाक टापू पर ले जाने के लिए बेटा खुशी से बेचैन था।
यहां तक कि उनका जहाज़ अन्डमान टापू पर जा लगा। अब तो इन्तिजार की तमाम घड़िया ही पूरी हो चुकी थीं। वहां उतर कर दिल में अपने वालिद से मुलाक़ात के हजारों अरमान संजोए हुए पहुंच गए।
वहां पहुंचते ही शम्सूल हक को अचानक एक जनाजा नजर आया। उस जनाजे में बड़े-बड़े सरकारी अधिकारियों के साथ ही बड़ी संख्या में लोग कांधा देने की कोशिश में जनाज़े के आगे पीछे दौड़ रहे थे। शम्सुल हक ने सोचा कि पहले जनाजे में शिरकत करली जाये, फिर बुजुर्ग वालिद की जियारत और मुलाकात कर ली जायेगी। वह भी लोगों की भीड़ में जनाज़े में पहुंच गए। उन्होंने वहां किसी से पूछा कि यह किस का जनाज़ा है
उसने जवाब दिया कि एक बड़े आलिमे-दीन, बहुत इबादत गुजार, मुजाहिदे आज़ादी, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी मौलाना फजले- हक्क खैराबादी का जनाज़ा है। वह दुख भरे संसार की बड़ी बड़ी परेशानियां झेलते हुए बगैर किसी शिकवे और शिकायत के कूच कर गए। यह सुनते ही शम्सुल हक के दिल व दिमाग़ पर मानो आसमान की सारी बिजलियां इकट्ठा ही पल भर में गिर गई।
शम्सुल हक को यह नहीं मालूम था कि उनके वालिद के लिए विलायती अदालत से रिहाई का हुक्म पहुँचने के पहले ही, ख़ुदाई अदालत से 20 अगस्त 1861 को दुनिया से ही रिहाई का फरमान जारी हो चुका था। शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी के बारे में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे
हिन्दुस्तान के इतिहास में ऐसे प्रेमी कम ही होंगे जिन्हें आज़ादी की चिन्ता न केवल अपने जीवन में, बल्कि इस संसार से जाने के बाद भी रही हो। मौलाना फ़ज़ले हक़ ख़ैराबादी ने अपने जीवन के आखिरी समय में यह वसीयत की थी कि जब फिरंगी हिन्दुस्तान की धरती से टल जायें तो मेरी कब्र पर उसकी खबर कर दी जाये।
सबसे महत्वपूर्ण सवाल:-
अंग्रेज़ों के जुल्म व सितम का पहले कौन निशाना बना? कौन पहले अंग्रेज़ों की साज़िशों का शिकार हुआ? अंग्रेज़ों की गोलियों, उनकी सूलियों और उनके जेलों की काल कोठरियों को पहले किसने आबाद किया?
यह सर्वविदित है कि उस समय हिन्दुस्तान पर मुग़लों का राज था। वे इस महान हिन्दुस्तान के शासक भी थे और रक्षक भी। किसी भी मुल्क पर विदेशी हमलों या साज़िशों को कुचलने अथवा रोक थाम करने की पहली ज़िम्मेदारी उस मुल्क के शासकों पर, वहां के विद्वानों और जागरूक जनता पर होती है।
भारत देश पर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अवैध क़ब्ज़े की रोक थाम अथवा क़ब्ज़े के बाद आज़ादी के संघर्ष की पहल करना भी उस समय के शासकों या जागरूक विद्वानों का कर्तव्य बनता था, , जिसके लिए उनके द्वारा भरपूर प्रयास किए गए।
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FAQ
सन् 1797 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के खैराबाद क़स्बे हुआ था
मौलाना फ़ज़्ल इमाम
मौलाना फजले हक खैराबादी अन्डमान तकलीफ़ों का हाल अपनी पुस्तक अससोरतुल हिन्दिया” (हिन्दुस्तान का इंक़िलाब) में उनकी ही ज़बानी बयान किया गया है
शम्सुल हक
20 अगस्त 1861