मौलाना हुसैन अहमद मदनी (1879-1957) | Sufinama
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मौलाना हुसैन अहमद मदनी(1879-1957) कौन थे ? Sufinama

by रवि पाल
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आज के इस दौर जिस तरह से आजाद भारत देश में राजनैतिक दल और सामाजिक संगठन एक तरफा इतिहास की बातें करते है वहीं दूसरी तरफ यह समझना और समझाना बहुत मुश्किल हो जाता है कि जो विध्यार्थी या पाठक किस तरह का इतिहास पढ़ रहे है या पढ़ना चाहते है आज के इस लेख में उस दौर के क्रांतिकारी मौलाना हुसैन अहमद मदनी के बारे में जानेंगे |

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मौलाना हुसैन अहमद मदनी का जन्म:-

इनका जन्म 16 अक्टूबर 1879 को बांगरमऊ जिला उन्नाव में हुआ था पिता का नाम सय्यिद हबीबुल्लाह था। वह एक बहुत नेक, उच्च आचरण एवं अच्छे स्वभाव के धार्मिक व्यक्ति थे रिसर्च बताते है किउनके पूर्वज अरब देश से हिन्दुस्तान में आकर बस गए थे। उनका पूरा घराना ही मज़हबी उसूलों का पाबंद वैसे उस दौर में किसी भी समाज में बुराइयों का इतना चलन नहीं था।

सच्चाई, नेकी, दूसरों की सहायता करना प्रत्येक सम्प्रदाय के अधिकांश व्यक्तियों का काम था। किसी को सताना, कष्ट देना लगभग सभी बुरा समझते थे। बच्चों को बचपन से ही मज़हबी तालीम देने का रिवाज था। हुसैन अहमद मदनों को भी पुरानी रीति के अनुसार उनके पिता ने महमूद हसन (शैखुल हिन्द) की सरपरस्ती में मज़हबी तालीम के लिए देवबंद भेज दिया था। महमूद हसन उनके लिए एक जौहरी की तरह साबित हुए। उनकी गहरी नज़र से हुसैन अहमद मदनी में जो प्रतिभाएं दिखाई दीं उनके कारण उन्होंने उन पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने हसैन अहमद मदनी को अपने संरक्षण में रख कर ऐसी तालीम और तरबियत दी जिससे कि वह एक तराशे हुए हीरे की तरह चमकदार हो गए।

मौलाना हुसैन अहमद मदनी की तालीम (शिक्षा):-

सन् 1898 में मौलाना हुसैन अहमद मदनी के पिता अपने परिवार समेत मक्का में जा कर रहने लगे। वहां से वह मदीना चले गए। हलांकि मदीने में वह कुछ समय आर्थिक तंगी में रहे। उसके बाद वहां मस्जिदे नबवी में वह मज़हबी तालीम देने लगे।

धीरे-धीरे उनके इल्म और बजुर्गी की शोहरत अरब की सीमाएं पार कर अन्य देशों तक पहुंच मदीने में वह “शेखुल हरम” के नाम से मशहूर हो गए। समय गुजरता रहा। सर हुए अपनी आत्मा की पवित्रता को बढ़ाते रहे। इसी दौरान एक दूसरे आला दरजे के आलिमे दीन मौलाना रशीद अहमद मदनी इबादत करते और तालीम देते अहमद गंगोही ने उन्हें हिन्दस्तान आकर मुलाक़ात करने के लिए कहला भेना हालांकि उस समय भी हुसैन अहमद साहिब के आर्थिक हालात ऐसे नहीं थे कि वह हिन्दुस्तान के लिए सफ़र कर सकें, फिर भी वह मौलाना के हुक्म का नहीं टाल सके।

वह किसी न किसी तरह लम्बी यात्रा करके गंगोह पहुंच गए। यहां मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने उन्हें और उनके साथ आए हुए उनके भाई को भी मज़हब इस्लाम की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां सौंप दीं। वह दोनों भाई अपने पीर व मुर्शिद द्वारा सौंपी गई ज़िम्मेदारियों को अच्छी तरह निभाते रहे।

मौलाना हुसैन अहमद मदनी की क्रांतिकारी भावना तथा जेल:-

वैसे तो हसैन अहमद मदनी, शैख़ल हिन्द की सोहबत में रह कर उनसे तालीम व तरबियत हासिल कर चुके थे, क्योंकि शैख़ल हिन्द ख़ुद ही एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने अपने शिष्य के दिल में भी अपने दीन व देश की अहमियत व मुहब्बत बिठा दी। इसी कारण मौलाना हसैन अहमद ने एक आलिमे-दीन होते हुए अपने देश भारत की आज़ादी के संर्घष में जीवन भर भाग लिया। जब ‍ शैखुल हिन्द की रेशमी रूमाल योजना का भेद खुला तो मौलाना महमूद हसन को 1915 में गिरफ़्तार करके मालटा में क़ैद कर दिया गया। उस समय हुसैन अहमद मदनी को भी उनके साथ गिरफ़्तार कर लिया गया।

वहां उन्होंने पांच वर्षों तक जेल के कठोर कारावास के कष्ट उठाए। वहां के क़ैदियों को बहुत तकलीफ़ में रखा जाता था. ताकि उन सज़ाओं से घबरा कर वे देश की आज़ादी का नारा लगाना छोड़ दें। वे देश प्रेमी सभी तरह की सज़ाएं झेलते, परन्तु आज़ादी का संर्घष नहीं छोड़ते थे। उसी बीच हुसैन अहमद मदनी के वालिद मौलाना सय्यिद हबीबुल्लाह का इन्तिक़ाल हो गया। उन्हें इसका बहुत ज़्यादा दुख हुआ।

मौलाना हुसैन अहमद मदनी की 1915 में गिरफ़्तारी के बाद की जिन्दगी:-

 वह 1920 में जेल से रिहाई के बाद हुसैन अहमद मदनी, शैखुल हिन्द के साथ हिन्दुस्तान ही आ गए। यहां आ कर उन्होंने अपनी लेखनी (तहरीरों) एवं तक़रीरों से देशवासियों में आज़ादी का और ज़्यादा जोश भरना शुरू कर दिया। उनके उस्ताद शैखुल हिन्द उन्हें कलकत्ता भेजना चाहते थे। वहां मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे थे। उसी दरमियान शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन साहिब का 30 नवम्बर 1920 को इन्तिक़ाल हो गया।

मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना महमूद हसन की मंशा के अनुसार कलकत्ता पहुंच गए। वहां पूर्व से जारी ख़िलाफ़त मूवमेंट में भाग लेकर उन्होंने शहरों और देहातों के दौरे किए। जगह-जगह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जोशीली तक़रीरें करके देशवासियों के जज़्बात एवं भावनाओं को जगाया।

उनकी तक़रीरों के कारण आजादी के आन्दोलनों में बहुत तेज़ी आई। फ़िरंगी शासन उनकी गतिविधियों से बोला उठा। हुसैन अहमद मदनी ने अपने जीवन का मिशन, एक ख़ुदा की इबादत करते हुए अपने मुल्क को अंग्रेजों के खूनी पंजों से छुटकारा दिलाना था। उनके ईमानी जज्बे के साथ देश की आज़ादी का जज्बा उनकी हिम्मत और हौसले को हमेशा ताज़ा रखता था।

इतिहास के पन्ने:-

यही कारण था कि न तो वह कभी फ़िरंगी अदालत से डरे और न फ़िरंगी जेलों की तकलीफ़ों से घाबराए। एक समय उन्होंने अपने ही वी के बड़े जलसे में अंग्रेज़ी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए ज़ोरदार भाषण दिया। ख़ास एवं आम लोगों को इस बात का एहसास दिलाया कि तुम देश में विदेशियों के गुलाम बने हुए हो। मुट्ठी भर विदेशी अंग्रेज़, भारत के करोड़ों वीर सपूतों पर अपने आदेश चला रहे हैं। वे अपनी मन मानी से भारतवासियों के धर्म में भी दखल दे रहे हैं। अंग्रेज़ सरकार उनकी बाग़ियाना (विद्रोह पूर्ण) तक़रीर को बर्दाश्त नहीं कर सकी, उसने हुसैन अहमद मदनी और अली ब्रादरान को गिरफ्तार करके उन पर मुक़द्दमा कायम कर दिया।

यहां तक कि उन्हें जेल भेज दिया गया। वहाँ उन पर फ़िरंगियों द्वारा जितनी भी हो सकीं सख्ती की गई। वह जेल की सख्तियां सहते हुए सज़ा पूरी करके जेल से रिहा हो गए। वे देश प्रेमी जेल से रिहाई पाकर दोबारा देश की आज़ादी के मिशन को पूरा करने में लग जाया करते थे।

हसैन अहमद मदनी का हिन्दू मुश्लिम एकता मिषन में योगदान:-

मदनी 1923 में अपने मिशन को अंजाम देने के लिए असाम चले गए। उन्होंने बंगाल और असाम में आज़ादी के संघर्ष को अपने प्रयासों से गर्माया। वहा प्रत्येक छोटे, बड़े गांव में पढ़े लिखे व्यक्ति एवं अनपढ़ अवाम को आज़ादी का पाठ पढ़ाया। उनमें जागरूकता पैदा की और स्वतंत्रता के आन्दोलनों में शामिल होने के लिए उन्हें समझाया। इस प्रकार देश का प्रत्येक भाग हुसैन अहमद मदनी के लिए आज़ादी का कार्य क्षेत्र बना हुआ था। वह जगह-जगह घूमते हिन्दू- मुस्लिम एकता पर जोर देते, अंग्रेज़ों की फूट डालो और राज करो की योजना का विरोध करते हुए अपने मिशन को जारी रखे हुए थे। आज़ादी के संघर्ष को उन्होंने अपनी सेहत के दिनों में भी जारी रखा और अस्वस्थता के समय में भी वह थक कर नहीं बैठे।

1933 में समय उनके पैरों में छाले और फोड़े निकले हुए थे। सही तरह से वह चल भी नहीं पा रहे थे। उस समय उन्हें दिल्ली जाने से रोका गया, परन्तु उस बहादुर स्वतंत्रता सेनानी ने किसी की भी न मानी और अपना संघर्ष चालू रखा। आज़ादी की गतिविधियों के कारण उनको अनेक बार जेल जाना पड़ा। वहां की सख्त सजाएं सहन करनी पड़ीं। इस कारण उनके स्वास्थ्य पर भी इसका विपरीत असर हुआ।

हसैन अहमद मदनी को अप्रैल 1942 के बाद फिर से 18 माह की जेल:-

भारत देश के मुसलमानों की जिस सबसे बड़ी जमाअत (जमीअत उलमा-ए. हिन्द) ने कांग्रेस के साथ रह कर देश को आजाद कराने में बेमिसाल कुनियादी मौलाना हसैन अहमद मदनी उस जमीअत उलमा के 1940 से जीवन भर अध्यक्ष उनका अधिकांश समय आजादी के विभिन्न आन्दोलनों, जलसों और जुलूसो पद पर रहे। में ही गुज़रा। जमीअत उलमा-ए-हिन्द ने अप्रैल 1942 में कस्बा बछराव में एक कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया।

मौलाना हसैन अहमद मदनी ने भी उसमें शिरकत करके अंग्रेज़ शासन के विरुद्ध ऐसी तकरीर की कि शासन तिलमिला उठा। शासन ने अपने दमन चक्र की नीति के अनुसार उनके विरुद्ध कार्यवाही कर उन्हें फिर 18 माह के लिए जेल और रू.500 की सजा सुना दी। वैसे तो मौलाना मदनी की आज़ादी की गतिविधियों के कारण जेल जाने और सज़ाएं काटने की और भी कई घटनाएं हैं, विस्तार की दृष्टि से यहां सभी का उल्लेख किया जाना संभव नहीं है। उनके क़ैद एवं रिहा किए जाने का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

हसैन अहमद मदनी को कितनी बार जेल जाना पड़ा:-

  • 1915 से 1920 तक मालटा में क़ैद रहे।
  • 1921 में कराची मुक़दमे में दो वर्ष की क़ैद हुई।
  • 1930 और 1932 के आन्दोलनों के कारण सज़ा हुई। 1940 में गिरफ़्तार कर लिए गए।
  • 1942 से 1945 तक हिन्दुस्तान छोड़ो आन्दोलन के कारण नज़रबंद रहे।

देश के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदानों और कुर्बानियों के फलस्वरूप जब आज़ादी मिलने का समय आया तो बंटवारे का एक दर्दनाक झगड़ा खड़ा हो गया। मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने बंटवारे का कड़ा विरोध किया। पहले उन्होंने आज़ादी के लिए मुल्क के दौरे किए, आज़ादी के समय देश को बंटवारे से बचाने के लिए फिर से उन्हें दौरे करने पड़े। उन्होंने जमीअत उलमा के माध्यम से देश के बंटवारे की सख्त मुखालफ़त की, लेकिन उनके प्रयास असफल रहे।

भारत- पाकिस्तान बटवारे के समय हसैन अहमद मदनी का दुःख- दर्द तथा जिन्दगी की आखिरी साँस:-

बंटवारे के समय जो देशवासियों में शर्मनाक ख़ूनी टकराव हुआ, उसकी रोक-थाम में भी मौलाना मदनी के प्रयास सराहनीय रहे। उन्होंने बड़ी संख्या में मुसलमानों को भारत देश में ही रहने के लिए समझाने की कोशिश की। देश की आज़ादी, आपसी एकता और क़ौम को हिम्मत दिलाते रहने के सभी प्रयास करते हुए वह अगस्त 1957 में इस संसार को अलविदा कह गए। उन्हें देवबंद में ही दफ़नाया गया।

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