मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह (1875-1952)| Indian Freedom fighter
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मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह (1875-1952)

by रवि पाल
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इस्लाम धर्म की वेशभूषा (लिबास) में, पवित्र क़ुरआन और हदीसों के माहौल में परवरिश पाने वाले मुहम्मद किफ़ायतुल्लाह 1875 में शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश में मौलाना मुहम्मद इनायतुल्लाह के घर पैदा हुए।आर्थिक हालात कुछ ज्यादा अच्छे नहीं थे, लेकिन वह बहुत ईमानदार और मज़हबी आदमी थे।

उस समय की परम्परा के अनुसार उनकी आरंभिक शिक्षा घर में ही कराई गई। स्कूल में पढ़ाई के लिए उन्हें “मदरसा शाही” मुरादाबाद में दाख़िला दिलाया गया। उसके बाद दारुल उलूम देवबंद में शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन की सरपरस्ती में पढ़ाई शुरू की। वहां उच्च स्तर के मज़हबी बुज़ुर्ग उनके उस्ताद रहे। मदरसों में तालीम के दौरान विद्यार्थियों के खाने का इन्तिज़ाम मदरसे की ओर से रहता था।

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मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह का बचपन और तालीम (शिक्षा ):

जब कि पढ़ाई एव साबुन, तेल, कपड़ा आदि का ख़र्चा विद्यार्थियों को ख़ुद उठाना पढ़ता था। इनके वालिद अपनी आर्थिक स्थिति के कारण उनका यह थोड़ा सा खर्च भी नहीं उठा सकते थे इसके लिए इनके पिता ने क्रोशिया (crochet क्रोशे) से धागे की टोपियां बुन कर उन्हें बेचा और अपनी पढ़ाई का ख़र्च उठाया।

तालीम पूरी होने पर वह अपने घर शाहजहांपुर वापस लौट आए। उन्होंने वहीं के एक मदरसे एजाज़िया में बच्चों को पढ़ाने पर नौकरी कर ली। इस तरह उनकी ज़िन्दगी का सफ़र चल पड़ा। अब उनका अनुभव भी बढ़ने लगा और स्थान भी बदलने लगे। वह जहां भी रहते वहां के बदले हुए हालात का उन्हें सामना करना पड़ता। कुछ समय बाद उन्हें एजाज़िया से दिल्ली स्थित मदरसा अमीनिया बुला लिया गया। यहां पढ़ाने के मदरसा साथ-साथ उन्हें मदरसे की अन्य ज़िम्मेदारियां भी दी गई।

उस समय देश की आज़ादी के संघर्ष की चर्चाएं देश के कोने-कोने में फैली हुई थीं। संघर्ष और चर्चाओं से मदरसे, उनमें पढ़ाने वाले मज़हबी उलमा और बच्चे भी खाली नहीं थे। उनके दिलों में ईमानी जज़्बे के साथ साथ आज़ादी का जज़्बा भी उभारा जाता था। उस समय उलमा-ए-दीन का आज़ादी के लिए लड़ाई में हिस्सा लेना कोई अचम्भे की या कोई अनोखी बात नहीं थी। अधिकांश उलमा अपने मज़हब की हिफाजत के साथ आज़ादी की लड़ाई में भाग लेना भी ईमान का ही हिस्सा समझते थे।

मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह का आजादी में योगदान:-

देश की आज़ादी की लड़ाई में बाक़ायदा हिस्सा लेने के लिए “जमीअत-उलमा-ए-हिन्दु” की स्थापना में खुल कर भाग लिया। उन्हें एक लम्बे समय के लिए जमीअत के सदर रहने की ज़िम्मेदारी भी सौंपी गई। यहां यह कहा जाना ग़लत नहीं होगा कि मौलाना किफ़ायतुल्लाह जमीअत उलमा-ए-हिन्द के बुनियादी सदस्यों में से थे।

इन्होने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई में ख़ुद भी हिस्सा लिया और आम मुसलमानों को उसमें शामिल करने के लिए समय-समय पर बयान, अपीलें और फ़तवे भी जारी किए। इस तरह मदरसों में ज़िन्दगी गुज़ारने वाले बुजुगों ने अपने मुल्क को आज़ाद कराने के लिए अंग्रेज़ी शासन का खुले-आम डट कर विरोध किया।

मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह की गिरफ़्तारी तथा 6 महीने की जेल:-

अपने प्रभाव से देशवासियों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उठ खड़े होने के लिए उनकी भावनाओं को उभारा। आन्दोलनों, जलसों और जुलूसों में हिस्सा लेने के लिए अवाम को तैयार किया। मुफ़्ती साहिब को प्रशासन के खिलाफ़ गतिविधियों और तक़रीरें करने के जुर्म में 1930 में गिरफ़्तार कर छः माह के लिए जेल भेज दिया गया। पहले उन्हें दिल्ली जेल में रखा गया, बाद में गुजरात जिल भेज दिया गया।

अन्य स्वतन्त्रता सेनानी ख़ान अब्दुल गफ्फार खान, डा. अंसारी, मौलाना हबीबुर रहमान, बैरिस्टर आसिफ़ अली पहले से ही जेल में बन्द थे, वहीं मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह को भी भेज दिया गया।

मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह की जिन्दगी के इतिहास के पन्ने:-

मजहबी पाबन्दियों के साथ अपना जीवन गुजारते हुए देश की आजादी के लिए संघर्ष करते रहना उन्होंने अपना धर्म समझा। आज़ादी के पर सख्ती करना, उन्हें जेल की सलाखों के पीछे ढकेलना, ब्रिटिश शासन का काम था। जब कि आज़ादी के चाहने वाले अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए करते रहना अपना फर्ज समझते थे।

1932 में फ़िरंगी शासन द्वारा कांग्रेस पार्टी को गैरकानूनी करार दे दिया गया, इसके विरोध में जब मुफ़्ती साहिब ने क़दम उठा तो उन्हें 11 मार्च 1932 को दोबारा बन्द कर दिया गया। इस बार उन्हें डेढ़ के सश्रम कारावास (कैदे-बामशक्कत) की सजा सुनाई गई। उस स्वतन्त्रता सेनानी ने देश की खातिर उन सभी तकलीफ़ों को सहन किया।

देशवासी बगैर किसी धार्मिक भेद-भाव के आज़ादी की लड़ाई में सभी एक साथ थे। जब मुफ़्ती विपतुल्लाह को डेढ़ वर्ष के सश्रम कारावास की सज़ा के लिए जेल भेजा गया हो उनके साथ एक हिन्दू स्वतन्त्रता सेनानी लाला देश बन्धु गुप्ता को भी जेल की दी गई|

मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह की गिरफ़्तारी के बारे में मिले सबूत:-

पुस्तक मुक्ती आजम की याद में मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह की गिरफ़्तारी के में उल्लेख किया गया है कि ब्रिटिश शासन द्वारा लागू की गई धारा-144 के विरुद्ध शुक्रवार (जुमा) के दिन जामा मस्जिद शाहजहांनी से जुलूस निकाले जाने के लिए लोगों को सूचित किया गया। जुमे की नमाज़ अदा करने के बाद वह बुल्स शांतिपूर्वक तरीक़े से आगे बढ़ा। उस जुलूस में लगभग एक लाख व्यावासियों की भीड़ थी। जुलूस का नेतृत्व मुफ़्ती साहिब द्वारा किया गया।

वतन प्रेम का बच्चा लिए हुए जुलूस आजाद पार्क, टाउन हाल के पीछे एक बड़े जलसे में बदल गया। दमन चक्र की नीयत से शासन द्वारा वहां भारी संख्या में पुलिस तैनात की गई थी। जुलूस में जैसे ही मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह तक़रीर करने के लिए बड़े हुए प्रशासन ने उनकी तक़रीर से पहले ही जलसे पर लाठियां बरसानी शुरू कर दी पुलिस की दरिन्दगी के कारण भीड़ इधर-उधर छटने लगी।

भीड़ को छंटता ॐ पुलिस द्वारा जल्दी से मुफ्ती किफ़ायतुल्लाह को गिरफ़्तार कर लिया गया। उसके बाद उन्हें डेढ़ वर्ष का सश्रम कारावास की सज़ा काटने के लिए न्यू सेंट्रल सुलतान भेज दिया गया। समय के साथ-साथ मुफ़्ती साहिब के क़दम जंगे आबादी के मैदान में जमते गए। उन्हें दिल्ली में हकीम अजमल खां, मौलाना सिन्धी जैसे स्वतन्त्रता सेनानियों का साथ मिल गया।

मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह की गिरफ्तारी के बाद का जीवन :-

केवल हिन्द ने हिन्दुस्तान से ब्रिटिश शासन का कब्जा हटाने के लिए अशानिस्तान और अन्य मुस्लिम मुल्कों से सहायता लेने की योजना बनाई।

किन्तु उनकी उस योजना का राज खुल गया। वह हिन्दुस्तान से हिजाब वहा पहुंच कर भी प्रयास शुरू कर दिये, परन्तु वहां भी उनकी मुखबिरी यहां तक कि उनके साथियों सहित उनकी गिरफ़्तारी हो गई। उन्हें माल्टा डाल दिया गया। इधर अली ब्रादरान और मौलाना अबुल कलाम आजाद को जेल में बन्द कर दिया गया। ऐसे ख़तरनाक समय में मुफ्ती किफायतुल्लाह ने में बन्द अपने साथी स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की रिहाई के लिए अ  इआनते नजरबन्दाने इस्लाम” के नाम से एक समिति का गठन किया। इस सि के माध्यम से उन्होंने खामोशी से जगह-जगह मीटिंग की। अंग्रेज सरकार ख़िलाफ़ साहित्य बांट कर माहौल बनाया।

ऐसे समय में जब कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध गतिविधियों के मुजाहिदीने आज़ादी जेलों में बन्द किए जा रहे थे, मुफ़्ती किफायतुल्लाह शासन के विरुद्ध संघर्ष जारी रखना बड़ी हिम्मत की बात थी। उन्होंने मुहम्मद जौहर की ख़िलाफ़त पार्टी में भाग ले कर बहुत मेहनत से काम किया।

मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह, ख़िलाफ़त पार्टी तथा महात्मा गांधी जी  :-

देश के लिए उनके आज़ादी के प्रयासों से गांधी जी भी बहुत प्रभावित थे। वह भी खिला मूवमेंट में उनके साथ रहे। इस प्रकार से हिन्दुओं और मुसलमानों के आपसी मेल के साथ आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई। जब भी एकता के साथ ब्रिटिश का मुक़ाबला हुआ, वहां फिरंगी शासन को बहुत नुकसान उठाना पड़ा इसी अंग्रेज़ शासन ने हिन्दू-मुस्लिम एकता में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को अपनाये रखा।

मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह पर दोहरी जिम्मदारी थी। प्रथमतः ईसाई मिशनरियों के मुस्लिम क़ौम को जागरूक करते रहना। दूसरे, देश की आज़ादी की लड़ाई में सम समय पर रणनीति के अनुसार संघर्ष करते रहना। इन्हीं कामों में वह सुबह से रात तक व्यस्त रहा करते थे।

उन्होंने देश को आज़ाद कराने के लिए कांग्रेस पार्टी के साथ अधिकांश आन्दोलनों में हिस्सा लिया। चाहे वह गांधी जी का सत्याग्रह हो या भारत छोड़ो आन्दोलन। चाहे प्रिंस आफ़ वेल्स के भारत आने का विरोध हो दा साइमन कमीशन का बायकाट या सिविल नाफ़रमानी की तहरीका आज़ादी के सभी आन्दोलनों में मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह ने हिस्सा ले कर यह साबित कर दिखाया कि साधारण हिन्दू-मुसलमान ही नहीं, बल्कि मुस्लिम उलमा-ए-दीन, मौलानाओं, मौलवियों और मुफ़्तियों के भी इस धरती पर खून के धब्बे उनकी वतन प्रेम और वफ़ादारियो की दास्ता कह रहे है|

मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह और अंग्रेज तथा उनकी शासन व्यवस्था:-

हर तरह की रणनीति अपनाए रखी थी, जहां मौक़ा हुआ वहां दमन चक्र चलाया, जहां आवश्यक हुआ वहां आपसी टकराव करवाया, जहां लोभ-लालच की गुंजाइश वहां अपने मकसद की पूर्ति के लिए लालच दे कर अपना काम निकाला। जब अंग्रेजों ने यह महसूस किया कि मौलाना किफ़ायतुल्लाह की गतिविधियां उनके लिए परेशानी और कठिनाइयां पैदा कर रही हैं, तो उन्होंने उस ईमानदार वतन प्रेमीको लालच के जाल में फांसना चाहा।

ब्रिटिश शासन ने यह समझा कि मुफ़्ती साहिब मूलतः एक धार्मिक व्यक्ति हैं, उन्हें अपनी और अपनी क़ौम के दीन व ईरान की चिन्ता बहुत बेचैन किये रहती है, इसलिए उनका रुझान आज़ादी के संघर्ष से हटा कर केवल अपने धर्म के प्रचार-प्रसार तक ही सीमित कर दिया जाए। इस संबंध में उन्होंने सोच-विचार के बाद वाइसराय कौंसिल के एक सदस्य मियां कर फजल हुसैन के माध्यम से मुफ़्ती साहिब के पास एक ख़ुफ़िया पत्र भेजा। जिस में ब्रिटिश शासन की ओर से यह उल्लेख किया गया था कि आप अपनी राजनैतिक गतिविधियों से दूरी बना लें।

मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह की जिन्दगी का आखिरी सफ़र:-

हम आपसे ब्रिटिश शासन के पक्ष में कोई प्रोपेगंडा कराना नहीं चाहते। बस आज़ादी के संघर्ष में आप ख़ामोशी इख़्तियार कर लो इसके बदले में ब्रिटिश शासन द्वारा मदरसा सफ़दर जंग की आलीशान शाही इमारत और उसके आस-पास का लम्बा चौड़ा मैदान आपके ज़ाती उपयोग के लिए बतौर गिफ़्ट आप के नाम कर दिया जायेगा।

मुल्क के उस वफ़ादार, ईमानदार आज़ादी के मतवाले मुफ़्ती ने शासन की उस लालच भरी दरखास्त को ठुकरा दिया। उन्होंने अपने वतन की मुहब्बत और उसकी आज़ादी को सर्वोपरि रखते हुए फिरंगी शासन को जवाब दिया, कि मैं अपने वतन को आज़ाद कराने की लड़ाई अपने खुद के किसी फ़ायदे के लिए नहीं लड़ रहा हूं, यह मेरी अंतर आत्मा की आवाज़ है जिसे कोई भी लोभ या लालच दबा नहीं सकता।

मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह का दुनियां से अलविदा और सन्देश:-

इस तरह मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह ने अपने देश का सर गर्व से ऊंचा रखते हुए अपना पूरा जीवन बग़ैर किसी लोभ-लालच के देश सेवा में गुज़ार दिया।

क़ुदरत का यह उसूल रहा है कि जो भी इस संसार में आया है उसे वापस जाना ही है। मुफ्ती साहिब के साथ भी वही हुआ जो कि इस संसार में होता चला आया है। वह अपने संघर्ष पूर्ण जीवन के लगभग 77 वर्ष पूरे करने के बाद 31 दिसम्बर 1952 को इस दुनिया के सारे झमेलों को यहीं छोड़ कर अपने रब से जा मिले।

उनको दिल्ली स्थित महरौली में हज़रत बख़्तियार काकी के अहाते में दफ़न किया गया। मौलाना मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह की अपने वतन हिन्दुस्तान के लिए आजादी की लड़ाई में दी गई कुर्बानियाँ सदा अमर रहेंगी।

यदि आप अच्छे रीडर है और इस तरह का इतिहास पढ़ना चाहते है तो इस ब्लॉग पर आकर पढ़ सकते है | अपनी  राय भी दे सकते है |

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