शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी कौन थे? (1746-1824)
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शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी कौन थे ? (1746-1824)

by रवि पाल
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भारत देश के प्रत्येक को भारत का इतिहास पढ़ना और समझना चाहिए क्यों  कि यदि वर्तमान की परिस्थित को समझना है तो इसके अतीत को जाना अति आवश्यक है, हम इसको इस तरह भी कह सकते है कि यदि आज के बारे में जानना है तो भुतकाल का जानना बहुत महत्वपूर्ण है अपने पाठकों के लिए शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी का पाठ लेकर आये है |

इस देश में ऐसे बहुत से महापुरुष हुए है जिनके बारे में या तो बहुत कम लिखा गया है या फिर उनको इतिहास से छिपाया गया है शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी के बारे में जब किताबों ता किसी वेबसाइट पर रिसर्च करते है तो बहुत कम जानकारी हासिल होती है लेकिन यह जानकारी  अलग-अलग कितबों से ली गयी है  

शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी का इतिहास:-

इस देश में ऐसे बहुत से महापुरुष हुए है जिनके बारे में या तो बहुत कम लिखा गया है या फिर उनको इतिहास से छिपाया गया है शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी के बारे में जब किताबों ता किसी वेबसाइट पर रिसर्च करते है तो बहुत कम जानकारी हासिल होती है लेकिन यह जानकारी  अलग-अलग कितबों से ली गयी है  

कहते है जिनके दिलों में देश प्रेम की सच्ची भावनाएं होती हैं, जो देश एवं देशवासियों की सेवा को अपना जीवन उद्देश्य बना लेते हैं, उनके द्वारा स्थापित किए गए संगठन अथवा संस्थाएं एवं चलाई जाने वाली तहरीके उनके बाद भी उनके योग्य वारिसों द्वारा देश की सेवा करती रहती हैं।

शाह बलिय्युल्लाह के द्वारा अंग्रेज़ों के खिलाफ़ जारी मिशन को, उनके बाद उनके बेटे शाह अब्दुल अज़ीज़ ने संभाला। उस समय वह 17 वर्षीय आयु के एक नौजवान थे इनके पिताजी के द्वारा चलाई जा रही देश हित की गतिविधियों के संगठन का उन्हें अध्यक्ष बनाया गया। उन्हें अपने पिता की सोहबत, उनकी काबिलियत, क्रांतिकारी भावना और उनके अनुभव का लाभ मिला। शाह अब्दुल अज़ीज़ एक बड़े धार्मिक विद्वान होने के साथ ही बहुत ऊँची सूझ-बूझ के मालिक थे। दूरदृष्टि रखने वाले राजनैतिक नेता के गुण उनमें भी मौजूद थे। वह हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों के बढ़ते हुए प्रभाव से घुटन महसूस करने लगे थे। वह गुलामी को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करते थे। अंग्रेज़ों के लालच और हिन्दुस्तान में अवैध घुसपैठ के वह कट्टर विरोधी थे।

उस समय अंग्रेज़ रेज़ीडेंट दिल्ली में रहने लगा था। वह दिल्ली के बादशाह को कभी ख़ुश करके, कभी डरा-धमका कर अपनी मर्जी के अनुसार काम करता और कराता था। उस समय के मजबूर राजा-नवाब, फिरंगियों के हाथों में खेल रहे थे। फ़िरंगी यह चाहते थे कि जो मुसलमान लम्बे समय से हिन्दुस्तान पर हुकूमत करते चले आये हैं उनकी ताक़त को बिखेर दिया जाये।

हिन्दू-मुस्लिम एकता और भाई चारे को तोड़ दिया जाए यहां की संस्कृति को भुला दिया जाए और इतिहास को भी मिटा दिया जाए। वे भारतवासियों को उनके धर्मो से भटका कर गुमराह भी करना चाहते थे। उस दौर में न केवल देश की आज़ादी खतरे में पड़ गई थी, बल्कि देशवासियों का मान-सम्मान और धर्म सब कुछ ही खतरे में आ गया था। शाह अब्दुल अजीज यह समझ चुके थे कि अब कलम से लिखने और जुबान से इन्किलाब बोलने का समय पूरी तरह खत्म हो चुका है। अब बन्दूक और तलवार की खूनी क्रांति ही फिरंगियों की बढ़ती हुई ताकत पर रोक लगा सकती है।

शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी के बारे में इतिहास का अध्यन:-

इतिहास की पुस्तकों के अध्ययन से यह मालूम हुआ कि हजारों उलमा-ए-दीन ने देश की आज़ादी के लिए बड़ी बड़ी कुर्बानियां दी हैं, जो कि पढ़ने और सुनने वालों के ख़ून में देश प्रेम की गर्माहट पैदा कर देती हैं। शाह अब्दुल अज़ीज़ वैसे तो देश के सभी समुदायों में, विशेष कर मुस्लिम समुदाय में अत्यधिक सम्मान की नज़र से देखे जाते थे,

इस बात को सभी जानते थे कि वह एक आलिमे दीन होते देश प्रेमी और इन्किलाबी थे। आजादी के मतवालों के प्रयासों से स्वतंत्रता प्राप्ति की चाहत देशवासियों के दिलों में घर करती जा रही थी। यहां तक कि उलमा-ए- दीन तो आजादी हासिल करना एक मज़हबी फ़रीज़ा ही मानते थे। उनकी मान्यता और मानसिकता थी कि बगैर आज़ादी के मज़हब अधूरा है। यही कारण है कि उन्होंने आजादी की लड़ाई एक धार्मिक कर्तव्य समझ कर लड़ी।

शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी की अंग्रेजों के प्रति सोच:-

यह एक ऐसे आलिमे दीन, निडर, आजादी के मतवाले तथा अंग्रेजों की गुलामी का विरोध करने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने तो आज़ादी की प्रथम लड़ाई से बहुत पहले 1803 में ही फ़िरंगी शासन के विरुद्ध पहला फतवा जारी कर आज़ादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया था। उनकेषि जारी फतवे के अनुसार हिन्दुस्तान के जिन स्थानों पर अंग्रेज शासन काय चुका था, उन जगहों के लिए दारुल-हर्ब (शाब्दिक अर्थ-युद्ध भूमि)” का एलान कर दिया गया था। शाह अब्दुल अज़ीज़ ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ केवल फ़तवा हो जारी नहीं किया था, बल्कि उन्होंने सैनिक क्रांति की तैयारी के लिए एक बोर्ड का गठन भी किया। उस सैनिक बोर्ड का अध्यक्ष उन्होंने अपने एक शागिर्द सय्यद अहमद शहीद को, उपाध्यक्ष अपने भतीजे शाह इस्माईल और अपने दामाद शाह अब्दुल हई को बनाया।

उन्होंने उस बोर्ड में मुफ्ती सदरुद्दीन देहलवी रशीदुद्दीन देहलवी, मौलाना हसन अली लखनवी और मौलाना शाह अब्द देहलवी को भी शामिल किया। बोर्ड ने अंग्रेजों के विरुद्ध आज़ादी की लड़ाई के लिए सैनिक तैयार करने के मक़सद से पूरे देश का दौरा किया। उन्होंने दौरा करके अंग्रेज़ शासन के ख़िलाफ़ जंगे आज़ादी में भाग लेने के लिए जागरूकता पैदा की। सैनिकों की भर्ती की, उन्हें अंग्रेज़ों के खिलाफ़ जिहाद के लिए ट्रेनिंग दी। यहां तक कि आजादी के उस आन्दोलन में मदद हासिल करने के लिए विदेशों से भी सम्पर्क बनाये।” द्वारा शाह अब्दुल अजीज द्वारा सन् 1803 में आज़ादी की क्रांति का आन्दोलन ख़तरनाक समय में शुरू किया गया था। उस समय देश में कोई इस संबंध में न तो सोच सकता था और न ही अंग्रेज़ों के विरुद्ध कुछ कर पाने की हिम्मत ही जुटा सकता था। उन्होंने फिरंगियों के ख़िलाफ़ फ़तवे का साहसी क़दम ऐसे ख़तरनाक इस्लाम के अनुसार फतवा जारी होने के बाद से अंग्रेज़ों के शासनाधीन हिन्दुस्तान के उन हिस्सों में रह रहे मुसलमानों को अंग्रेजों के विरुद्ध उस समय तक लड़ाई जारी रखना ज़रूरी हो गया था, जब तक कि अंग्रेज यहां से निकाल दिए जाएं या मुसलमान ख़ुद अंग्रेजों के आधीन स्थानों से न जाएं।

शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी का का सैनिक बोर्ड के गठन में भागेदारी:

सैनिक बोर्ड के गठन के समय महत्वपूर्ण पदो की जिम्मेदारी उनके द्वारा अपने भतीजे एवं दामाद को सौंपना, न केवल स्वयं को बल्कि अपने परिवार को भी अंग्रेजी शासन की दुश्मनी का निशाना बनाना था। उनका यह कदम उनके देश प्रेम और देश की आजादी के प्रति खुद को एवं अपने परिवार को बलि चढ़ाने का प्रतीक था

शाह साहिब के समय में सम्भल के एक पठान सरदार अमीर खान ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी थी। मरहटों और दूसरे ग्रुपों ने उस लड़ाई में अमीर खां का साथ दिया। शाह साहिब को भी उस लड़ाई से बड़ी उम्मीद बनी। उन्होंने उसे अच्छा मौका जान कर अमीर खां की मदद करने की ठान ली। दोनों का पत्रों द्वारा एक दूसरे से सम्पर्क हुआ। वह सरदार अमीर खां की बहादुरी और उनके देश की आजादी के जज्बे से बहुत प्रभावित हुए।

उन्होंने अमीर खां की सहायता के लिए अपने एक क़रीबी शार्गिद सय्यिद अहमद शहीद को फ़ौज में जा कर साथ देने का हुक्म दिया। सय्यिद अहमद शहीद भी वतन की सेवा का उसे सही मौक़ा जान कर अमीर खान के साथ हो गए। उन्होंने लगभग 6 वर्षों तक अमीर ख़ान की फ़ौज में रह कर समय-समय पर अंग्रेज़ों के विरुद्ध जंगें लड़ीं। देश प्रेम के जज्बे से उन्होंने अंग्रेज़ों को बहुत जानी नुकसान पहुंचाया। वैसे सय्यिद अहमद शहीद बड़े धार्मिक विद्वान और बुलन्द दरजे के बुज़ुर्ग होने के साथ ही फिरंगियों के ख़िलाफ़ मैदाने जंग में बड़े लड़ाका (जंगजू) भी थे।

आज़ादी के चाहने वाले तो अंग्रेज़ों का हर तरह से विरोध करते जा रहे थे,
परन्तु ईस्ट इंडिया कम्पनी अपनी चालाकियों और चालबाजियों से हिंदुस्तान में अपना क़ब्ज़ा बढ़ाती जा रही थी। जैसे ही उचित मौका मिलता, देश की रियासतों पर धीरे-धीरे अपना क़ब्ज़ा जमा लेती थी। उधर ज़रूरतमंद लोगों ने फ़िरंगियों की नौकरियां करनी शुरू कर दी थीं। शाह साहिब उन हालात से बहुत चिन्तित थे। वह ईस्ट इंडिया कम्पनी को फलता-फूलता देखना नहीं चाहते थे।

शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी ने  फिरंगियों का बायकाट करने, सारे हिन्दुस्तानियों, विशेष कर मुसलमानों को अंग्रेज़ों की नोकरियां करने से रोकने के लिए फतवा जारी किया। उन्होंने फ़तवे में उल्लेख किया कि “अगर ऐसी मुलाज़िमत है जिससे कमज़ोरों पर ज़ुल्म एवं अन्याय करने में मदद हो रही है या उस नौकरी से मजहबी फ़रीज़ा अदा करने में बाधाएं आ रही हैं, या दीन में बुराइयां निकालने या उसे बदनाम करने में ऐसी नौकरी से मदद
मिल रही है या उस नौकरी से देश की बफादारी खतरे में पड़ रही है तो ऐसी नौकरी करना नाजायज और बड़ा गुनाह करार दिया गया। खिलाफ जारी गतिविधियों से अंग्रेज शाह साहिब द्वारा अंग्रेज शासन के परेशानी में पड़ जाते थे। इसी कारण अंग्रेज रेजीडेंट उनका जानी दुश्मन बन चुका था। उसने भी उनको तरह-तरह से परेशान करना शुरू कर दिया था। इतिहास की पुस्तक के अध्ययन से यह मालूम हुआ कि उनकी इन्किलाबी कार्यवाहियों । पाबन्दी लगाने के लिए साजिश के तहत उनको दो बार जहर खिलाकर मारने के पर असफल प्रयास किए गए।

इतिहास के कुछ पन्ने :-

कहा जाता है कि एक बार उनके शरीर पर छिपकली का जहरीला उबटन मलवा दिया गया, जिस के कारण वह गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो गए थे। किन्तु कुछ इतिहासकार इस घटना को सही नहीं मानते। उन्हें आर्थिक और मानसिक रूप से परेशान करने के लिए फिरंगियों

उनकी विरासत में मिली हुई जागीर और हवेली भी जब्त कर ली गई थी। उस आज़ादी के मतवाले को हर प्रकार की परेशानियों का सामना करना और तकलीफे उठाना स्वीकार था, परन्तु फिरंगियों की गुलामी मंजूर नहीं थी। अंग्रेज़ी द्वारा उन पर जितनी सख़्तियां बढ़ाई जाती थीं, उनके द्वारा अंग्रेज़ों के विरुद्ध गतिविधियां भी बढ़ा दी जाती थीं।

अंग्रेज़ ने परेशान होकर उन्हें परिवार समेत एक बार उनके शहर बदर करने के आदेश जारी कर दिये। इसी के साथ यह पाबंदी भी लगा दी गई कि वह दिल्ली के बाहर एक निर्धारित सीमा तक सवारी का उपयोग नहीं कर सकते। उस देश प्रेमी को दिल्ली से पैदल यात्रा की कठिनाइयां झेलना पड़ीं। पैदल सफर की थकान के कारण रास्ते में उनका स्वास्थ्य ख़राब हो गया। इस तरह उन्हें नई-नई द्वारा तरह की और विभिन्न प्रकार की परेशानियों में इसलिए डाला जाता था कि वह परेशान हो कर अपने मिशन से हट जायें। समय गुज़रता रहा। आज़ादी के वह मतवाले शहर बदर की अवधि पूरी कर देश सेवा में व्यस्त रहते हुए

वह महान आलिमे दीन, देश प्रेमी, शाह अब्दुल
भारत के उस बहादुर सिपाही ने अपने छोटे से जीवन में देश की ख़ातिर बहन
कष्ट झेले, अपना धन-दौलत लुटाया, खुद की एवं परिवार की जानें जोखिम है


दिल्ली वापस लौट आए और आजादी की कार्यवाहियों में दोबारा व्यस्त हो गए अज़ीज़ देश के प्रति अपने त्याग, बलिदान और कुर्बानियों की छाप छोड़ कर 5 जून 1824 को इस संसार से चल बसे।

इतिहास हमेसा याद रखेगा :-

शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी का ने यहां तक कि शहर बदर भी किया गया, परन्तु किसी भी हालत में उन्होंने आजादी का नारा लगाना नहीं छोड़ा। वह जब तक जीवित रहे आजादी की लड़ाई लड़ते रहे। जब उनका आखिरी वक़्त करीब आया, उस समय भी उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा, खादी का कफन दिए जाने की जाहिर की। उनकी एक-एक सांस ख़ुदा की याद, अपने देश से वफादारी और देश की आजादी पर मर मिटने का देशवासियों को संदेश देती रही।

ऐसे महान व्यक्तियों की अमर कहानियों को वर्तमान एवं आनेवाली पीढ़ियों के
सामने लाया जाना भी देश प्रेम का ही एक मिशन है। शाह अब्दल अजीज जैसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की अमर गाथा भले ही वर्तमान इतिहास के पन्नों से निकाल दी गई हो, लेकिन वह महान भारत के विशाल सीने पर सदैव मोटे अक्षरों में लिखी रहेगी।

FAQ
 शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी की मृत्यु कब हुयी थी ?

5 जून 1824

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