शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी कौन थे ? (1703-1763)
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शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी कौन थे ?(1703-1763)

by Srijanee Mukherjee
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जब हम भारत के महापुरुषों की गाथाएँ पढ़ते या रिसर्च करते है उस समय  का भारत के प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म और समाज को दूर रख कर इन महापुरुषों के बारे में जनने की कोशिस करनी चाहिए, आज भारत में महान विचारक शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी के बारे में जानेंगे|

किसी भी देश में जहां सामान्य बुद्धि के लोग रहते हैं, वहीं कुछ बहुत बड़े अद्धिजीवी एवं योग्य व्यक्ति भी निवास करते हैं, जिनके अन्दर कुदरत की छोटे एवं बड़े देश में कुछ ऐसे चिन्तक भी निवास करते हैं

जो कि अपनी गहरी सोच, गंभीर विचार और दूरदृष्टि से उन हालात का अन्दाज़ा लगा लेते हैं जिन से देश को भविष्य में जूझने की संभावना रहती है। भारत देश में भी ऐसे चिन्तक, विचारक पूर्व से ही रहते चले आए हैं। वे विचारक देश की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को नज़र में रखते हुए देश एवं देशवासियों के भविष्य का अनुमान लगा लेते हैं।

जो कि अपनी गहरी सोच, गंभीर विचार और दूरदृष्टि से उन हालात का अन्दाज़ा लगा लेते हैं जिन से देश को भविष्य में जूझने की संभावना रहती है। भारत देश में भी ऐसे चिन्तक, विचारक पूर्व से ही रहते चले आए हैं। वे विचारक देश की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को नज़र में रखते हुए देश एवं देशवासियों के भविष्य का अनुमान लगा लेते हैं।

शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी का जन्म:-

इनको भी हिन्दुस्तान के महान विचारको में से एक मानते है शाह वलिय्युल्लाह का जन्म सन् 1703 में हुआ। उनके पिता शाह अब्दुर्रहीम बड़े धार्मिक विद्वान (आलिमे दीन) थे। शाह बलिय्युल्लाह भी अपने पिता की तरह ही एक बड़े आलिमे दीन बनना चाहते थे इस लिए इनकी प्रारंभिक शिक्षा भी उर्दू और कुरान में करायी गयी

जिस तरफ से उस जमाने के हालात को देखते है और रिसर्च से पता चलता है कि इन्हें भी अपने पिता के समान अपने देश हिन्दस्तान एवं देशवासियों की चिन्ता सताती रहती थी।

इन्होने अपने जीवन काल में शहंशाह औरंगजेब आलमगीर से लेकर बहादुरशाह अब्बल, जहांदार शाह, फ़र्रुख़ सियर, रफ़ीउद्दरजात, रफीउद्दौला, शाहजहां- II (द्वितीय), मुहम्मद शाह, अहमद शाह, आलमगीर-II (द्वितीय) और शाह आलम तक दस मुग़ल शहंशाहों का दौर देखा|

शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी के समय में शासन काल  :-

जब यह 28 वर्ष के थे उस समय औरंगज़ेब का शासन पूरे शबाब और बुलन्दियों पर था। उसका क्षेत्र कन्या कुमारी से काबुल तक और गुजरात से बंगाल तक फैला हुआ था, जो कि लगभग पन्द्रह हज़ार वर्ग मील था। सम्पूर्ण देश का प्रबंध, अवाम को सहूलतें, कानून-व्यवस्था और मूलभूत सभी सुविधाएं उपलब्ध थीं। शहंशाहियत में पूरा रोब-व दबदबा, जाहो-जलाल सब कुछ ही मौजूद था।

यह भी एक सच्चाई है कि वक़्त बदलते देर नहीं लगती और कुदरत की आंधी बड़े बड़े सूरमाओं को कुछ ही लम्हों में धरती की धूल चाटने के लिए मजबूर कर देती है। शाह बलिय्युल्लाह के देखते ही देखते इतिहास का एक सुनहरा पन्ना पलट गया। औरंगज़ेब आलमगीर शहंशाहे हिन्दुस्तान इस दुनिया से चल बसे।

ईस्ट इंडिया कम्पनी, पुर्तगालियों और फ्रान्सीसियों  का समय:-

शहंशाह के बाद दिल्ली के सिहासन के लिए मुगल शहजादों में आपसी लड़ाई शुरू हो गई। शहजादे आपसी झगड़ों और रंग-रलियों में लग गए। इन हालात के के अयोग्य साबित हुए। इस प्रकार मुगलिया शासन छिन्न-भिन्न होने लगा। अन्दरूनी बगावतें उभरने लगी। गृह युद्ध जैसा माहौल बन गया। ऐसे मौके का लाभ उठाने के लिए विदेशी शक्तियां भी सक्रिय हो गई “ईस्ट इंडिया कम्पनी, पुर्तगालियों और फ्रान्सीसियों को लूट मार का मौका मिल गया। उन बिगड़ते हुए हालात ने देश प्रेमी शाह बलिय्युल्लाह के दिल व दिमाग को हिला कर रख दिया।

वह एक बड़े धार्मिक विद्वान होने के साथ ही देश एवं देशवासियों से विशेष लगाव रखते थे। उन्हें चारों ओर खोफनाक अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देने लगा। देशवासियों का भविष्य संकट में देख उनकी रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया। वह देख रहे थे कि हिन्दस्तान रूपी गुलशन जो कि मुगलिया शान व-शौकत, जाह व जलाल से चमक रहा था, जिस चमन में पुरफ़िज़ा हवाएं, खुशनुमा फ़िजाएं और खूबसूरत परिन्दे चहक रहे थे, जो बाग़ कुछ समय पहले तक फूलों की सुगंध और लजीज फलों की खुशबू से महक रहा था,

वह एकदम बेरोनक उजड़े हुए वीराने का रूप लेता जा रहा है। यहां की बेनूर रोशनी, खामोशी का सन्नाटा किसी बड़े तूफ़ान के आने की खबर दे रहा था। इन सब बातों का शाह बलिय्युल्लाह के दिल पर गहरा असर हुआ। उनके एक दर्द भरे शेर से उनके दुख का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। शेर का अनुवाद इस प्रकार है-“घनघोर अंधेरियों में जो सितारे चमक रहे हैं। मुझे ऐसा लगता है कि वह जहरीले नागों की आँखें या बिच्छू के सर हैं।

वह जानते थे कि ब्रिटिश शासन दबे पावं हिन्दुस्तान में अपने पैर फैला रहा है। यहां के आपसी झगड़ों का लाभ उठा कर फिरंगी अपनी ताक़त और पकड़ मजबूत करते जा रहे थे। यहां तक कि फ़िरंगी, शासन के कामों में भी हस्तक्षेप करने के कोशिश करने लगे थे शाहिब की नक्रों अंग्रेजों की बढ़ती हुई गतिविधियो जमी हुई थीं। अपने मुल्क हिन्दुस्तान को विदेशी क़ब्ज़े के खतरे से बचाने के लिए वह बेचैन थे। वह किसी भी तरह हिन्दुस्तान की बिखरती हुई ताक़त इकट्ठा करके शक्तिशाली शासन क़ायम रखना चाहते थे, जिससे अंग्रेज़ों का देश में हस्तक्षेप खत्म हो जाये और वह अपने नापाक इरादों में कामयाब न हो सकें। इसी दौरान शाह साहिब हज यात्रा पर रवाना हो गए।

शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी की हज यात्रा:-

हज यत्रा से लौटने के बाद भी उन्हें हालात अच्छे नज़र नहीं आये। उन्हो अख़लाक़ी, समाजी और मज़हबी पतन का अन्दाज़ा लगा कर पवित्र कुरआन फारसी भाषा में अनुवाद किया, जो उस जमाने में हर कोई पढ़ता, लिखता

जो उस जमाने में पूरे देश में सरकारी काम-काज की भाषा थी। शासन में बैठे वज़ीरों, बड़े ओहदेदारों और आम जनता तक कुरआन की तालीम पहुंचाई, ताकि ऊपर से नीचे तक समाज में फैली हुई बुराइया खत्म हो सकें। आचरण में सुधार आए। मजहब और देश की सुरक्षा के लिए जागृति पैदा हो। उन्होंने अपने मिशन को बाकायदा तरीके से बढ़ाने के लिए “जमाअत मरकज़िया के नाम से एक संगठन बनाया। उसका मुख्य उद्देश्य देश में राजनैतिक क्रांति लाना था। उस संगठन की शाखाएं नजीबाबाद का मदरसा, रायबरेली का दायरा (तकिया), शाह इलमुल्लाह और सिंघ में मुहम्मद मुईन का मदरसा आदि थे। वह अपने संदेशों से सभी को जागरूक करना चाहते थे। उनकी कार्यवाहियां उस समय के शासन को उचित नहीं लगीं। मगर शाह साहिब किसी की परवाह किए बगैर देश के लिए हितकारी गतिविधियों में लगे रहे। “

इतिहास की पुस्तकों के अध्ययन से यह मालूम होता है कि दिल्ली के एक शासक ने उनके द्वारा जागरूकता के लेख लिखने एवं अन्य गतिविधियों के कारण शाह साहिब के कलाई (का जोड़) उतरवा दिये थे, ताकि वह शासन के विरुद्ध अपना क़लम न चला सकें। जब कोई भी क्रांतिकारी, शासन के विरुद्ध कदम उठाता है तो उसे कई प्रकार की कठिनाइयों का मुक़ाबला करना पड़ता है। शाह साहिब को भी उस समय के मुसलमान शासक नजफ़ अली ने परेशानियों में डाल रखा था।

नजफ़ अली ने शाह साहिब के दो बेटों शाह अब्दल अजीज और शाह रफीउद्दीन को शहर बदर कर दिया, ताकि वह अपने पिता के मिशन में कोई सहायता न कर सकें। उसका मक़सद शाह बलिय्युल्लाह को मानसिक रूप से परेशान रखना था। जो सच्चे देश प्रेमी होते हैं वे अपने मिशन और अपने देश की खातिर हर तरह की तकलीफें झेलने को तैयार रहते हैं। इसी प्रकार शाह साहिब भी तमाम कठिनाइयों को ख़ामोशी से झेलते रहे, परन्तु वह अपने मिशन से पीछे नहीं हटे।

शाह बलिय्युल्लाह ने जो आन्दोलन छेड़ा था, वह औरंगज़ेब से शाह आलम- II (द्वितीय) तक मुगलिया शहंशाहों के पक्ष में या उनके बचाव के लिए नहीं था, बल्कि उसका मूल उद्देश्य हिंदुस्तान देश को फ़िरंगी कब्ज़े से बचाना था।

वह चाहते थे कि ऐसे हालात पैदा न हों कि हिन्दुस्तान पर बाहरी शक्तियां काबिज हो सकें। उन हालात में उन्हें शहिनशाहियत से इतना लगाव नहीं था जितना कि अपने मुल्क हिन्दुस्तान के आज़ाद रहने से था।

इतिहासकार रतनलाल बंसल फ़िरोज़ाबादी ने शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी के बारे में लिखा:-

1949 में इनके द्वारा लिखी गयी किताब लिखा गयी जिसमें लिखा है कि-विदेशी क़ौम के बढ़ते हुए ख़ौफ़नाक पंजों से हिन्दुस्तान को बचाने के लिए शाह वलिय्युल्लाह जीवन भर लड़ते रहे। वह अपने वारिसों, बेटों, नातियों और अपने हजारों शिष्यों के दिलों में ऐसी चिंगारी जला गए थे

शाह वलिय्युल्लाह की मौत के बाद भी देश के लिए उनका मिशन बन्द नहीं हुआ और इन्होने मर जाना पसन्द किया, मगर अपने देश हिन्दुस्तान की गुलामी को खामोशी से बर्दाश्त नहीं किया। इस प्रकार वह अपने जन्म से मृत्यु तक देश की प्रभुसत्ता और देशवासियों के अच्छे आचरण बनाने, सामाजिक एवं राजनैतिक बराइयों को दूर करने के लिए अपना संघर्ष चलाते रहे। उनका पूरा जीवन ही देश एवं देशवासियों की चिन्ता में बीत गया।

शाह वलिप्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी की मृत्यु:-

सन् 1763 में इस संसार से विदा हो, गए परन्तु उनका संगठन जमाअत मरकज़िया जीवित रहा। बाद में उसका नाम बदल कर जमीअत उलमा-ए-हिन्द” रखा गया।

इस संगठन ने कांग्रेस के साथ हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई में देश को आज़ाद कराने तक हिस्सा लिया और फिरंगियों के कब्ज़े में जाने से बचाने के लिए शाह वलिय्युल्लाह उस समय के शासन के खिलाफ प्रथमतः आन्दोलन शुरू किया। उनका देश हित में वह प्रथम आन्दोलन देश की आज़ादी के अन्य आन्दोलनों को जन्म देने के लिए मील का पत्थर साबित हुआ।

इनके आन्दोलन से अंग्रेज़ों के विरुद्ध अवाम मे जागरूकता पैदा हुई तथा आन्दोलन से प्रेरित होकर देश प्रेमी समय-समय पर अपने संघर्ष चलाते रहे। कुछ मौके ऐसे भी आये कि उन आन्दोलनों ने जन आन्दोलन का रूप धारण किया। इस प्रकार पूर्व से जारी स्वतंत्रता संग्राम के संघर्षों का सिलसिला 1857 के स्वतन्त्रता के लिए दीर्घ कालीन संघर्ष को पार करता हुआ देश की आजाद कराने तक जारी रहा।

1857 अथवा उसके बाद ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जो आन्दोलन हुए हैं वे देश को फ़िरंगियों की गुलामी से आज़ाद कराने लिए किए गए हैं। जब कि शाह वलिय्युल्लाह के दौर में (1703 के बाद से 1763 तक) उनके अथवा उन जैसे ही विद्वानों द्वारा चलाए गए आन्दोलन हिन्दुस्तान को फिरंगियों आदि के नाजायज़ मजे से सुरक्षित रखने के लिए किए गए |

FAQ
शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी का जन्म कब हुआ था ?

सन् 1703 में

शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी के पिता का क्या नाम था ?

उनके पिता का नाम शाह अब्दुर्रहीम था और ये बड़े धार्मिक विद्वान (आलिमे दीन) थे।

शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी की मृत्यु  कब हुयी ?

1763

शाह वलिय्युल्लाह मुहद्दिस देहलवी कब से कब तक माना जाता है ?

1703 के बाद से 1763 तक, इनका दौर माना जाता है

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