“शैखुल-हिन्द" मौलाना महमूद हसन का इतिहास | Indian History
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“शैखुल-हिन्द” मौलाना महमूद हसन का इतिहास | Indian History

by रवि पाल
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कहते है हिंदुस्तान वह देश है जिसको फिरंगियों से आजादी लेने में वर्षों लग गये थे  इसके साथ- साथ लाखों क्रांतिकारियों को अपना बलिदान देना पड़ा लेकिन जब वर्तमान की राजनीति को देखते है तो ऐसा प्रतीत होता है कि एक समाज दूसरे समाज को नीचा दिखाता है इसीलिए आज एक ऐसे महान क्रांतिकारी के बारे में लिख रहे है जिनके बारे में हर हिन्दुस्तानी को जानना और समझना चाहिए , जिनका नाम  “शैखुल-हिन्द” मौलाना महमूद हसन है |

इस देश की आज़ादी की लड़ाई में वैसे तो लाखों देशवासियों ने अपनी जानों को निछावर कर दिया, अनगिनत सुहागनों के सुहाग कुर्बान हो गए, हजारों माताओं  के लालों को अंग्रेज़ों की फांसी के फन्दे चूमने पड़े। उन्हीं आज़ादी के मतवाली में कुछ ऐसी महान हस्तियां भी हुई हैं जिनके योगदान, मार्गदर्शन और नेतृत्व में देशवासियों ने आपसी सहयोग एवं एकता के साथ आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया।

जब हम स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वाले सेनानियों को याद करते हैं, तो हिन्दुस्तान के उस बहादुर सिपाही को भी याद करना ज़रूरी होता है जिन्होंने  मदरसों में तालीम हासिल की और जो इस्लाम और उसके बुनियादी उसूलों का पालन करने वाला था। जिस व्यक्ति को ऐसे बजुर्गो और धार्मिक विद्वानों का संरक्षण प्राप्त था जो कि मज़हबे इस्लाम के मज़बूती से मानने वालों में से थे।

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“शैखुल-हिन्द” मौलाना महमूद हसन का जन्म और बचपन:-

देश को आज़ाद हुए और उस महान हस्ती को इस दुनिया से अलविदा कहे हुए वर्षों बीत जाने के बाद भी उनकी पवित्र भावनाएं आज भी आज़ादी की रक्षा पर मर-मिटने का संदेश देती हैं। इसी के साथ यह भी सिद्ध करती हैं कि मज़हब अपने देश से वफ़ादारी, देश की रक्षा तथा देशवासियों की सुरक्षा की सीख देता है।

आज़ादी के मतवाले कठोर संघर्ष करके और फिरंगियों की यातनाएं सहन करके इस देश को उनके के ज़ालिम पंजों से छुड़ाने में कामयाब हुए। इस संघर्ष में मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों में मौलाना महमूद हसन का भी नाम रौशन सूरज की तरह है। उन्होंने गुलामी की अंधेरियों को चाक करने के लिए अपने तन-मन को जलाकर आज़ादी की शमा को रोशन किया।

उन्हें देश को गुलामी से आज़ाद कराने की उनकी विभिन्न प्रकार की कोशिशों के कारण ही “शेखुल हिन्द” कहा जाता है। मौलाना महमूद हसन ने सन् 1851 में बरेली की धरती पर मौलाना जुल्फिकार अली के घर जन्म लिया। वह जब छः साल की उम्र को पहुंचे उस समय उनकी तालीम पवित्र कुरआन, अरबी और फ़ारसी से शुरू कराई गई।

“शैखुल-हिन्द” मौलाना महमूद हसन की शिक्षा और माता- पिता:-

जब दारुल- उलूम देवबंद मदरसे के रूप में आरंभ किया गया तो उसके पहले उस्ताद मुल्ला महमूद और पहले विद्यार्थी का नाम भी महमूद (महमूद हसन) था। मौलाना महमूद हसन ने दारुल उलूम में कई क़ाबिल हस्तियों से तालीम हासिल करते हुए मौलाना कासिम नानोतवी से तालीम पूरी की। इसके बाद देवबंद के उसी दारुल उलूम में उन्हें तालीम देने की ज़िम्मेदारी भी सौंपी गई। वह धीरे-धीरे तरक़्क़ी पाते उलूम के संरक्षक तक बन गए।

दारुल शेखुल हिन्द ने जहां दारुल उलूम देवबन्द की सरपरस्ती की, वहीं अपनी इबादत, रियाज़त के साथ ही समाज की अन्धविश्वासी रीतियों में फंसे लोगों की निकालने के लिए उनका मार्गदर्शन भी किया। इसी के साथ अपने मुल्क हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने के लिए उनके जज़्बे ने यह सिद्ध कर दिया कि वह न केवल एक धार्मिक विद्वान थे, बल्कि देश प्रेमी और आज़ादी के मतवाले भी थे। उनके अन्दा नेतृत्व की क्षमता बहुत थी।

आज़ादी के आन्दोलन के श्रेष्ठ कांग्रेसी नेता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, हकीम अजमल ख़ा, डा. मुख्तार अहमद अंसारी और मौलाना मुहम्मद अली जौहर जैसे पाये (उच्च कोटी) के नेता शैखुल हिन्द तथा उनकी गतिविधियों में विश्वास रखते थे।

“शैखुल-हिन्द” मौलाना महमूद हसन की क्रांतिकारी विचारधारा:-

मौलाना महमूद हसन ने फ़िरंगियों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के कठिन समय और संघर्ष भरे दौर में होश संभाला, जब कि अंग्रेज़ धन-दौलत के लालच में भारतवासियों को अपने ज़ुल्म का निशाना बनाए हुए थे। उन्होंने भारत देश को गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ और देशवासियों को पकड़ रखा था। इस  हालात में भारत के उस सपूत ने 15 वर्ष की उम्र में तालीम हासिल करने के लिए दारुल उलूम देवबंद में दाखिला लिया।

उस मदरसे की स्थापना मौलाना मुहम्मद कासिम नानोतवी के द्वारा सन् 1866 में की गई थी। उसका मक़सद पवित्र कुरआन और हदीस की तालीम देना था। साथ ही क़ुरआन की तालीम के अनुसार अपने देश में वफ़ादारी, देशवासियों के बीच प्रेम, भाई-चारा तथा एकता बनाये रखना है।

मदरसा देवबंद की स्थापना और 1857 का आन्दोलन:-

मौलाना महमूद के अनुसार मदरसा देवबंद की स्थापना का मक़सद 1857 के आन्दोलन में देश और देशवासियों को जो नुक़सान हुआ उसके बदले की तैयारी । करना भी था। देश को आज़ाद कराने की योजनाएं बनाना और आज़ादी के ऐसे मतवाले तैयार करना था जो देश को अंग्रेज़ों की दासता से आज़ादी दिला सकें। दारुल उलूम के प्रगतिशील रुझान रखने वाले विद्यार्थी यह मानते थे

कि प्रत्येक स्वाभिमानी मुसलमान का पहला फर्ज़ अंग्रेज़ों की गुलामी से देश को आजादी दिलाना है। वे इस बारे में सोच-विचार करते तथा समय-समय पर आज़ादी के आन्दोलनों में सहयोग भी करते थे। उस वक़्त आज़ादी की लड़ाई का ऐसा माहौल मौलाना अबुल कलाम क़ासिमी शम्सी, तहरीके-आज़ादी में उलमाए किराम का हिस्सा बन गया था

अधिकांश जवान, बूढ़े मर्द और औरतें क्रांतिकारियों की टोली को सहयोग देने के लिए तत्पर रहते थे। जब मौलाना महमूद हसन ने मदरसा देवबंद में दाखिला लिया तो वहां मौलाना क़ासिम नानोतवी तथा मौलाना रशीद अहमद गंगोही जैसे उस्तादों का उन्हें संरक्षण प्राप्त हुआ। वह दोनों ही अपने मुल्क से गो के काले साये को हटाने के लिए तत्पर थे।

तालीम पाकर उन्होंने देश पर छाई हुई गुलामी की आफ़त से निपटने के लिए 1905 में देवबंद को मुख्य केन्द्र बना कर नए जोश और जज्बे के साथ आजादी का आन्दोलन शुरू किया उसकी शाखाए दिल्ली, दीनाजपुर, अमरोट, करन्जी, खेड़ा और चकवाल में थी

इतिहास के पन्ने:-

मोहम्मद साहिब के नेतृत्व में लड़ी जाने वाली आज़ादी की लड़ाई बाकायदा स विद्रोह के रूप में लड़ी गई उसका नेतृत्व हाजी तुरंग को सौंपा गया।

उस विद्रोह में मौलाना सय्यिद अहमद शहीद, शराफ़त अली और मौलवी इनायत ने भी भरपूर सहयोग दिया। मौलाना महमूद हसन अपने आप में आजादी के मतवालों के लिए एक सहारा और रोशनी का मार्ग दर्शक मीनारा बन चुके थे।

क्रांतिकारी उनके पास आते, उनके साथ फ़िरंगियों के खिलाफ खुफिया योजनाएं बनाई जाती, फिर उन योजनाओं के अनुसार आज़ादी के संघर्ष को आगे बढ़ाया जाता था। इन्किलाबी मेहमानों के ठहरने के लिए शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन के मकान के क़रीब ही एक और कमरा किराये पर ले लिया गया था।

उसमें आज़ादी के मतवाले मेहमानों को ठहराया जाता था। यहां वे शेखुल हिन्द से सलाह मशवरे किया करते थे। उनमें सिख और हिन्दू बंगाली मेहमान भी हुआ करते थे जो कि बंगाल के बंटवारे के ख़िलाफ़ आन्दोलन चला रहे थे।

मौलाना महमूद हसन का दिन व रात का अधिकांश समय मजहबी पाबंदियों को पूरा करते हुए मुल्क की आज़ादी की लड़ाई के लिए साथियों को मार्गदर्शन देने, फ़िरंगियों की ओर से खड़ी की जाने वाली नई-नई मुश्किलों का कन्धे से कन्धा मिलाकर मुकाबला करने में ही गुजरता था।

आपसी समझ क्रांतिकारी विचारधारा:-

उनका कहना था कि इस लड़ाई को हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग रह कर नहीं जीत सकते। अंग्रेज की दासता से छुटकारा पाने का सब से बड़ा राज हिन्दू-मुस्लिम एकता में छुपा हुआ है। आपसी सहयोग और एकता पर उन्होंने सदैव जोर दिया। उनके समय में देश को आजाद कराने के लिए जब भी और जैसी भी जरूरत पेश आई उसके अनुसार अलग-अलग नामों से कमेटियां बनाई गई। अंग्रेज़ों को नए-नए तरीक़ों से घेरने के लिए उनके द्वारा कई तहरीकें चलाई गई।

जैसे “समरतुल तरबियत” [चरित्र, स्वभाव प्रशिक्षण, कभी “जमीअतुल अंसार” (सहायक दल तो कभी आरिफ़ शिक्षा और कभी रेशमी रुमाल आदि की तहरीका रेशमी पत्र

आजादी का आन्दोलन:-

आंदोलन (1913-1920) देवबंदी नेताओं द्वारा आयोजित एक ऐसा दो  जिसका उद्देश्य भारत को तुर्क, तुर्की, इंपीरियल जर्मनी और अफगानिस्तान के साथ सहयोग करके ब्रिटिश शासन से मुक्त करना था। पत्र रेशम के कपड़े में लिए गए थे, इसलिए इस आंदोलन का नाम रेशमी पत्र आंदोलन या रेशमी आंदोलन पड़ गया। जनवरी 2013 में स्वतंत्रता आंदोलन के लिए ऐसे समूहों के बलिदानों को स्वीकार करने और उनकी सराहना करने के लिए रेशम पत्र पर एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया।

इनके कारण ब्रिटिश शासन में खलबली पैदा हो जाती थी। इन सभी तहरीको का मकसद मुसलमानों को उनकी मजहबी तालीम से परिचित कराना, मज तालीम की रोशनी में देशवासियों के बीच मुहब्बत और भाई चारे का माहौल पैद करना था।

साथ ही आपसी भेद भाव भुला कर एक जुटता बनाना तथा अपने मुल्क से सच्ची व भरपूर वफ़ादारी का प्रदर्शन करना, विशेष कर फिरंगियों के गुलामी से अपने देश हिन्दुसतान को आजाद करवा के धर्मनिरपेक्ष शासन कार करना था।

महत्वपूर्ण तिथि:-

1867-88 में मौलाना महमूद हसन (शैखुल हिन्द) को दारुल उलूम देवबंद के सरपरस्त बनने का मौक़ा मिला। इसी के साथ उन्होंने शुरू से ही अपने जीवन का उद्देश्य अपने देश हिन्दुस्तान को फिरंगियों के नाजायज कब्जे से आज़ाद करान बनाए रखा था। इन्ही प्रयासों में वह पूरी जिन्दगी लगे रहे। 1905 में उन्होंने योजना के तहत ब्रिटिश शासन के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया।

उन्होंने को देश के अन्दर और बाहर दोनों ओर से घेरने और उनके ख़िलाफ़ सश बग़ावत करके देश से मार भगाने की योजना बनाई। इसका मुख्य केन्द्र देववर रखा । उसकी शाखाएं मुल्क की कई जगहों दिल्ली, दीनाजपुर, अमरोट, करी खेड़ा और चकवाल में कायम की गई। सरहदी क्षेत्र में स्थित रियासत वारि को आज़ादी की लड़ाई का केन्द्र बनाया गया।

वहां पहले से ही मौलाना स अहमद शहीद, मौलवी इनायतुल्लाह और मौलवी शराफ़त अली के शि अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद जारी रखे हुए थे।

पंजाब से सिख और बंगाल से इन्किलाबी पार्टी के सदस्यों को भी शामिल होने के लिए किया:-

1911 बड़ा इन्किलाबी वर्ष रहा। हिन्दुस्तान की राजधानी कलकता के बजाय दिल्ली कर दी गई। बंगाल का विभाजन समाप्त कर दिया गया। ईसाई प्रान्तों ने उस्मानी राज-वंश (Ottoman Dynasty, खिलाफ़ते-उस्मानिया Outoman Empire 1299-1923, अब तुर्की) के विरुद्ध जंग छेड़ दी। इसके तुरन्त बाद प्रथम विश्व युद्ध का बिगुल बज गया। मौलाना महमूद हसन भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र कार्यवाही को तैयार हो गये|

उस समय सरहदी इलाक़े में मौलाना सय्यिद अहमद शहीद की तहरीके जिहाद भी चल रही थी। क्रांति के लिए पहले उस क्षेत्र को ही चुना गया के में भी आज़ादी की तहरीक का जज्बा भरा हुआ था। ऐसे नाजुक समय में मौलाना हमान को दिल्ली से, मौलाना फल्ले- रब्बी और मौलाना फजल महमूद को पेशावर से भेजा गया। उसी क्षेत्र के मौलाना मुहम्मद अकबर को भी उसमें शामिल होने के लिए तैयार किया गया। उधर शैखुल हिन्द ने हाजी तुरंग जई को भी यागिस्तान भेजा।

उनके अलावा उनके बहुत सारे और शागिर्द भी वहां मौजूद थे। गिस्तान में फिरंगियों के खिलाफ सशस्त्र जिहाद शुरू कर दिया गया। जिहाद में आजादी के मतवालों ने बहुत हिम्मत के साथ बेमिसाल कुर्बानियां दी। उसमें अंग्रेजों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उसने अपने जासूसों की सहायता से मुजाहिदीन को बहुत नुकसान पहुंचाया।

जिहाद के मोर्चे पर मौलाना महमूद हसन के पहुंचने का बहुत इन्तिज़ार था। उन्होंने भी मुजाहिदीन की हिम्मत बढ़ाने के लिए वहां जाने का इरादा कर लिया था। इसी बीच ऐसी ख़बरें सुनने को मिलीं कि मुजाहिदीन के पास जरूरत का सामान और खाने की चीजें भी खत्म हो रही है। लड़ाई के लिए मैगज़ीन भी ख़त्म हो रहा है।

इन खबरों से मौलाना महमूद की चिन्ता बढ़ गई। वहां जाने के बजाय उन्होंने सामान का प्रबंध ज़रूरी समझा। उन्होंने सोचा कि इस मामले में देशवासियों की मदद, जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती। उसकी पूर्ति के लिए किसी अन्य देश से मदद की उन्होंने आवश्यकता महसूस की। ऐसे हालात में यागिस्तान जाने के बजाय उन्होंने हिजाज (वर्तमान के सऊदी अरब का पश्चिमी क्षेत्र, जिस में मक्का व मदीना आता है) जाने का इरादा किया ताकि तुर्की से भी सम्पर्क कर सकें।

उधर अंग्रेज शासन, जिहाद की कार्यवाही को कमजोर करने के लिए ल महमूद को गिरफ्तार करना चाहता था। डा. मुख्तार अहमद अंसारी को इस साजिश की सूचना मिल चुकी थी। इसलिए वह चाहते थे कि खुल हिन्द जितनी जल्दी हो सके ब्रिटिश शासन की पकड़ से बाहर निकल जायें। शेख ने उस सम के हालात के हिसाब से मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी को अफ़ग़ानिस्तान भेजा ताकि यह सरहदी क्षेत्र में काम कर सकें।

मौलाना सिन्धी का क्रन्तिकारी कदम :-

हिन्द ने अंग्रेजों के खिलाफ रेशमी रूमाल की एक तहरीक भी चल थी, जिसमें रेशमी कपड़े पर खुफिया पत्र कोड वर्ड में लिख कर खास लोगों जाते थे कि इसकी शिनाख्त न कर सके। इसी के तहत मौलान सिन्धी ने कोई विशेष संदेश रेशमी रूमाल पर लिख कर शेखुल हिन्द के प काखातं उनकी गतिविधियों पर बहुत बारीकी से नजर रख था।

मौलाना सिन्धी का वह रेशमी रूमाली ख़त बीच में ही अंग्रेजों द्वारा पकड़ इससे अंग्रेजों को उनके खिलाफ़ चलाई जा रही तहरीक और सक्रिय बातों का पता चल गया। अब तो फ़िरंगियों के लिए शैखुल हिन्द को गिरफ्ता करना और भी आवश्यक हो गया था। हालात की गंभीरता को देखते हुए शख हिजाज के लिए रवाना हो गए।

अंग्रेज़ों से आंख मिचोली करते हुए बड़ी मुश्किल से अपना सफ़र तय कर वहां पहुंच गए। वहां हिजाज़ के गवर्नर ग़ालिब पाशा को अपनी संघर्ष भरी कहानी सुनाई। गालिब पाशा चूंकि उन्हें पहले से नहीं जानते है इसलिए शैख के बारे में पूरी जानकारी हासिल करने के बाद उनकी शैख से दस मुलाक़ात हुई। ग़ालिब पाशा, शैख़ की बुज़ुर्गी, उनके तक़वे, अपने मुल्क से उनकी मुहब्बत उसे आजाद कराने की योजनाओं से बहुत प्रभावित हुए।

उन्होंने हिन्दुस्तान की आज़ादी की मुहिम में तुर्की हुकूमत की ओर से मदद देने का भरोस दिलाया। साथ ही मदीना और इस्तांबुल (Istanbul), के गवर्नर को भी शैल हिन्द पर भरोसा, उनकी तारीफ़ उनके स्वागत करने और आज़ादी के मिशन में सहायता करने के लिए खत लिखा

मौलाना सिन्धी का ख़त :-

मौलाना महमूद हसन ने अंग्रेज़ों से लड़ाई के लिए देश के अन्दर सशस्त्र युद्ध एवं देश के बाहर से इन्किलाबियों की मदद के लिए माहौल बनाने के एक साथ मोर्चे खोले। दोनों मोर्चे नदी के दो सिरों की तरह अलग-अलग थे। दोनों मोचा पर एक साथ काम करना बहुत मुश्किल बात थी। चूंकि उन्होंने अपनी जिन्दगी का मक़सद ख़ुदा को याद रखते हुए अपने देश को आज़ाद कराना बनाया था |

इस तरह कि शैख साहिब जब हज करके मदीना पहुंचे तो अनवर पाशा और जमाल पाशा अपने सरकारी प्रोग्राम के अनुसार मदीना शरीफ़ ही आ गए। शेख ने उनसे वहीं मुलाक़ात कर उन्हें संदेश दे दिए। तुर्की के अनवर पाशा ने उन्हें यह सलाह दी कि मुजाहिदीन का हौसला बढ़ाने के लिए पहले उनके कबीलों तक संदेश भेज दिया जाए। जिससे अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद में शामिल की हिम्मतों में कोई कमी न आए। इस पर उन्होंने गवर्नर हिजाज़ से प्राप्त संदेश को सन्दूक की दोहरी तली में छुपा कर हिन्दुस्तान पहुंचा दिया।

उन्हें भारत की सीमा तक भेजने का प्रबन्ध करने को कहा। जमाल पाशा ने अपनी मजबूरी जाहिर करते हुए उन्हें हिन्दुस्तान के रास्ते वारिस्तान जाने की सलाह दी।। ने उसे उचित नहीं समझा। इसी बीच मक्के के शरीफ ने से बाज करके तुकी शासन के खिलाफ बगावत कर दी। इस कारण हिन्दुस्तान में बहुत बेचैनी का माहौल पैदा हो गया। इसी के साथ ब्रिटिश शासन ने एक शातिराना बाल भी चली, उसने अपने वफ़ादार शरीफ़ हुसैन के पास खान बहादुर मुबारक अली को मक्का भेजा।

फिरंगियों की छल :-

इस चाल का मक़सद ऐसा फतवा जारी कराना था जिससे खिलाफत उस्मानिया गैर इस्लामी, और शरीफ़ हुसैन की तुर्की के खिलाफ बगावत सही साबित हो सके। उस फ़तवे की असल शैखुल हिन्द को दस्तखत के लिए पैश की गई। उन्होंने उस पर दस्तखत करने से सख्ती के साथ इनकार कर दिया। फतवे पर दस्तखत के लिए उनके सामने दोबारा पेश किया गया। उन्होंने दूसरी बार भी उसे सख्ती से रद कर दिया।

शरीफ़ हुसैन के पक्ष में जिन मौलवियों ने फ़तवे पर पहले ही तसदीक कर दी थी, शैख ने उनके बारे में बहुत बुरा-भला कहा। उन्होंने वहां जमा लोगों के सामने फ़तवा उठा कर फेंक दिया। उनके इनकार करने की वजह से अन्य उलमा ने भी दस्तखत करने से मना कर दिया।

शरीफ़ हुसैन को इससे बड़ा झटका लगा। उसने ब्रिटिश शासन के इशारे पर शेखुल हिन्द, मौलाना हुसैन अहमद मदनी और उनके दो अन्य साथियों को गिरफ्तार कर 1917 में माल्टा जेल भेज दिया। माल्टा एक ऐसा राजनैतिक बेलखाना था जिसमें अंग्रेज शासन के सख्त बागियों को सज़ा के लिए भेजा जाता था। वहां मौलाना महमूद हसन शैखुल हिन्द अपने साथियों के हमराह लगातार तीन साल तक जेल की सजाएं सहते रहे।

जिन्दगी का आखिरी सफ़र :-

कुछ समय बाद जब अनवर पाशा और जमाल पाशा मक्का पहुचता ह मौलाना की उन दोनों से मुलाक़ात हुई। मौलाना ने भारत की सीमा तक उन्हें पहुंचाने का प्रबंध करने को कहा। इसके अलावा कुस्तुनतुनिया (Constantinople, अब इसका नाम इस्ताबुल है) जाने का भी प्रस्ताव रखा। वहां एकदम हालात ने पलटा खाया, जिससे मौलाना के लिए मुश्किल कुछ बढ़ती नजर आने लगीं। मक्का के शरीफ़ हुसैन ने ब्रिटेन के कहने और उकसाने के कारण।

उसमानी खिलाफत के विरुद्ध सख्त कार्यवाही कर दी। शैख़ल हिन्द, हुसेन अहमद मदनी एवं उनके अन्य दो साथियों सहित उन्हें दश्मन ब्रिटेन को ही सौंप दिया गया |

ब्रिटिश शासन की तो मंशा यही थी कि स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर ऐसी सजाएं दी जाएं ताकि उनके कारण अन्य क्रांतिकारी डर जाये। आज़ादी का आन्दोलन कमज़ोर पड़ जाये।

इसलिए ब्रिटिश शासन ने देश के उन सेनानियों को माल्टा में बंदी बना लिया।

शैखल हिन्द मौलाना महमूद हसन और उनके साथी अपने देश हिन्दुस्तान की आज़ादी की खातिर तीन वर्ष सात महीने माल्टा जेल की सख़्तियां झेल कर 8 जन 1920 को मुम्बई पहुंचा कर रिहा कर दिए गए। वह उस समय तक बूढ़े हो चुके घी एक लम्बे समय तक जेल की यातनाएं झेलने के कारण उन्हें बहुत सारी बीमारियों ने घेर लिया था।

बदन भी बहुत कमज़ोर हो चुका था। इतनी तकलीफें सहन करने के बाद भी उस बीमार बूढ़े आज़ादी के मतवाले ने अपने रिहाई के सफ़र में ही यह इरादा कर लिया था कि वह रिहा होने के बाद घर जा कर आराम से नहीं बैठेंगे। वह अपने वतन पहुंचने के बाद पूरे मुल्क का दौरा करेंगे। अपने जीवन की आखिरी सांस तक देश सेवा और आज़ादी के संघर्ष को जारी रखेंगे।

स्वतंत्रता सेनानी मौलाना महमूद हसन, जिसने बचपन से बुढ़ापे तक पूरी उम्र देश सेवा की, जब अपने साथियों के हमराह माल्टा जेल से मुम्बई पहुंचे तो उनका भव्य स्वागत किया गया। मुल्क के बड़े-बड़े उलमा-ए-दीन के साथ ही मौलाना शौकत अली, अब्दुल बारी और गांधी जी भी उनके स्वागत के लिए मुम्बई पहुंचे।

जिन्दगी के दुखद पल :-

शेखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन (18517520)  खिलाफ़त कमेटी और कांग्रेस द्वारा बनाए गए प्रोग्राम पर भी सहमति व्यक्त तरह की। इसी बीच मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़ के विद्यार्थियों में भी असंतोष फैल गया।

उन्होंने यूनिवर्सिटी का बायकाट कर “मुस्लिम नेशनल यूनिवर्सिटी कायम करनी चाही। इसके लिए 29 अक्टूबर 1920 को अलीगढ़ में एक जलसे का आयोजन किया गया। जलसे की अध्यक्षता के लिए मौलाना महमूद हसन को दावत दी गई। उनकी जईफ़ी (बुढ़ापा) और बीमारियों के कारण उनके साथियों ने उन्हें जलसे में अलीगढ़ जाने से रोकना चाहा, परन्तु वह किसी भी तरह मानने को तैयार नहीं हुए।

मैं अपनी एक खोई हुई क्रीमती दौलत आपके पास पाने की उम्मीद करता है। बहुत से नेक बन्दे ऐसे हैं जिनके चेहरे नमाज के दूर और जिक्रे-इलाही की रोशनी से चमक रहे हैं, लेकिन जब उनसे कहा जाता है कि ख़ुदा के लिए उठो और उम्मते मरहूमा को अंग्रेज़ों के पंजों से बचाओ तो उनके दिलों पर ख़ौफ़ और हिरास तारी हो जाता है। ख़ुदा का नहीं, बल्कि चंद नापाक हस्तियों का

ऐ मेरे वतन के बच्चो! और नौजवानो! जब मैंने देखा कि मेरे इस दर्द को, जिसमें मेरी हड्डियां पिघली जा रही हैं, बांटने वाले मदरसों और खानकाहों में कम है और स्कूल कालिजों में ज़्यादा हैं तो मैंने और मेरे कुछ दोस्तों ने एक कदम अलीगढ़ की तरफ बढ़ाया।

1920 में 19-21 अक्टूबर दिल्ली में “जमीअत उलमा” का आयोजन:-

ऐसी तालीम पाना एक मुसलमान के लिए मुनासिब नहीं है। इन बातों को देखते हुए ऐसी आज़ाद यूनिवर्सिटी क़ायम की जायगी जिसे सरकारी मदद हासिल न हो। जिसके चलाने का तरीक़ा ग़ैर इस्लामी न हो।

इसी सिलसिले में मौलाना ने आज़ाद यूनिवर्सिटी की बुनियाद रखी जिसे आगे चल कर जामिया मिल्लिया इस्लामिया का नाम दिया गया और बाद में अलीगढ़ से दिल्ली लाया गया और जिसके लिए हजरत शैखुल हिन्द मौलाना ने दूसरों के असर व दबाव से पाक रख कर इस्लामी होते हुए दुनियावी तालीम का भी मिला जुला केन्द्र बनाने का ख्वाब देखा था।

1920 में 19-21 अक्टूबर को दिल्ली में “जमीअत उलमा” का तीन दिवसीय जलसा आयोजित किया गया। उस की भी मौलाना महमूद हसन ने ही सदारत की। थी उनके सदारती खुतबे में अंग्रेज़ों से नफ़रत, और उन्हें किसी तरह से सहयोग न देने का एलान किया गया।

जिन्दगी का आखिरी सफ़र:-

मौलाना महमूद हसन साहिब की तकरीर न केवल उस समय के लोगों तक के लिए सीमित थी, बल्कि इस देश की वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों तक के लिए भी एक ऐसा संदेश है जिस पर चल कर सफल और सशक्त होने की संभावना है। मौलाना महमूद हसन, शैखुल हिन्द आजादी के बहादुर सिपाही अपनी पूरी जिन्दगी देश सेवा और देश की आज़ादी को समर्पित करते हुए 30 नवम्बर 1920 को अपने प्यारे वतन हिन्दुस्तान और आज़ादी के मतवालों को हौसला देते हुए अलविदा कह गए।









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