अक्सर भारत के इतिहास में मुसलमानों की बात आती है तो आज की राजनीति हमेसा हिन्दू, मुसलमान करने लगती है इसी को समझने और जानने के लिए आज टीपू सुल्तान के बारे में पढ़ते है |
जब हिन्दुस्तान के इतिहास को पढ़ते है तब टीपू सुल्तान जिक्र लजमी है इनकी असीमित वफादारियां, अटूट प्रेम, स्वतन्त्रता संघर्ष इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहां तक कि इनहोने देश की आजादी के लिए सैकड़ों फिरंगियों को मौत के घाट उतार देन और अपनी बहादुरी के साथ देश के लिए जान निछावर कर देने के कारनामे एक रोशन सूरज की तरह हैं। उन्हें न तो छुपाया जा सकता है और न ही छुपाने की कोशिशें की जा सकती है|
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टीपू सुल्तान का हिन्दुस्तान के प्रति कर्तब्य:-
यदि इतिहास की अलग-अलग किताबें में रिसर्च करेंगे तो टीपू सुल्तान की हिन्दुस्तान के प्रति की असीमित वफादारियों और स्वतन्त्रता से बेतहाँ प्रेम को भुलाया नहीं जा सकता। वैसे भी टीपू सुल्तान पर नामवर लेखकों द्वारा लिखी हुई इतिहास की मोटी- मोटी पुस्तकें, मेगजीनों, अखबारों में लेख, टी. बी. सीरियल आदि वर्तमान में भी उनके देश प्रेम की यादों को ताजा रखे हुए हैं।
टीपू सुलतान की बहादुरी का वह नाम जिसे सुनकर फिरंगियों की आत्माएं कॉपने लगती थी हिन्दस्तान की सरजमीं से वीरता की वह ललकार जिसके खौफ से ब्रिटिश शासन के शाही तख्त के मजबूत पाये थर्रा उठते थे, वह अपने आप में दिलेरी का नाम था जिसे आपस में एक-दूसरे को डराने के लिए लिया करते थे|
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टीपू सुल्तान के माता-पिता:-
इसके पिता का नाम हैदर अली और माता का नाम बेगम प्रतिमा था माता-पिता की एक कहानी जो हमेसा यद् रखी जाती है टीपू सुल्तान के पिता हैदर अली की दूसरी बेगम प्रतिमा अपने शौहर हैदर अली के साथ आरकाट के एक बड़े सूफ़ी बुजुर्ग हजरत टीपू सुल्तान औलिया के दरबार में हाज़िर हुई और वहां उन्होंने अपनी सेहत और बेटा पैदा होने की दुआ की।
अल्लाह पाक ने उनकी दुआ कुबूल की। 20 नवम्बर 1750 को जुमे के दिन फखरुन्निसा बेगम ने बहादुर खूबसूरत बेटे को जन्म दिया। शाही परिवार के दिल खुशियों से उछलने लगे।
खुशी में हर तरफ दान-पुण्य होने लगे। उन्होंने अपने बेटे का नाम उन सूफी बुजुर्ग के नाम पर टीपू सुल्तान के नाम पर था। नाम ‘फतह अली’ भी रखा गया जो कि उनके दादा फ़तह मुहम्मद के नाम पर था।
हैदर अली 1761 में रियासत मैसूर के ताजदार बने, हालाकिं पढ़े लिखे नहीं, परन्तु बहुत बहादुर, साहसी, दूर अन्देश (दूरदर्शी) और राजनैतिक एवं प्रशासनिक सूझबूझ के मालिक थे। वह अपने वतन हिन्दुस्तान से मुहब्बत करते थे। मैसूर का राज-पाट संभालने के बाद उन्हें अपने विरोधियों से बड़े-बड़े मुकाबले करने पड़े। एक ओर तो उन्हें अपने ही देश की विरोधी शक्तियों निज़ामे-दकन और मरहटों से निपटना था, दूसरी ओर बालाक फिरंगियों की मक्कारी और लालची ताकत का मुकाबला करना था। हैदर अली ने बहुत ही समझदारी से काम लेते हुए अंग्रेजों से मुकाबला किया।
टीपू सुल्तान के पिता हैदर अली की कहानी:-
एक तरफ अंग्रेज अपनी नापाक हरकतों से हिंदुस्तान पर अपनी हुकूमत को कायम करना चाहते थे वाही दूसरी तरफ नवाब हैदर अली, अंग्रेजों के हिन्दुस्तान पर कब्जे के नापाक इरादों को समझत रहे थे दूसरी तरफ अंग्रेज़ भी हैदर अली की ताक़त से घबराते थे।
वह चाहते थे कि अपने देश की धरती को फ़िरंगियों से के खून से लाल कर दें लेकिन उस समय के कुछ राजा महाराजा अंग्रेजों की चालाक हरकतों को समझ नहीं सके
अंग्रेज़, हैदर अली की बढ़ती हुई ताकत को अपनी चालबाजियों से ख़त्म करके अपने रास्ते का काट साफ़ कर देना चाहते थे। दोनों ही पक्षों के इरादों का नतीजा जंग थी। रियासत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नवाब हैदर अली ने ज़ोरदार जंग लड़ी जो कि लम्बे समय तक चलती रही।
अंग्रेजों की कूटनीति और पूरी ताकत झोंकने के बाद भी जब स्वयं को नाकाम समझते तो चालाकी के साथ समझौता कर लिया करते थे। उस मौके पर भी उन्होंने अपनी कमज़ोरी देखते हुए नवाब हैदर अली से एक सुलहनामे द्वारा समझौता कर लिया।उस दौरान फ़िरंगियों ने अपनी रणनीति तैयार करके खुद को मज़बूत किया। उन्होंने अपनी योजना और आदत के अनुसार हैदर अली से किये गए समझौते की पाबन्दी न करते हुए मराठों और निज़ाम को अपने साथ मिलाकर हैदर अली हुए जोरदार हमला बोल दिया।
उस समय भी हैदर अली ने अपने वतन की आबरू बचाने और उसे अंग्रेजों से आज़ाद कराने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी। उस हमले में नवाब हैदर अली बहुत ज्यादा जख्मी हो चुके थे। वतन की खातिर जान पर खेल जाना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी। वह वतन के लिए जीना और मरना केवल अपना फ़र्ज़ ही नहीं, बल्कि उसे अपने ईमान का हिस्सा समझते थे।
नवाब हैदर अली उस लड़ाई में अंग्रेज़ों के हाथों ज़्यादा ही जख्मी हो गये थे। हालांकि समय पर उपलब्ध सब कुछ इलाज किया गया लेकिन जख्म ठीक नहीं हो सके। जिस्म के ज़ख्मों के साथ ही उनके दिल में लगा आजादी के खतरे का ज़ख्म ज्यादा गहरा था। आखिरकार 1782 में आज़ादी का यह मतवाला देश-प्रेमी, वतन पर अपनी जान कुर्बान कर गया।
नवाब हैदर अली का ख़त्म होना अंग्रेज़ों की टूटती हुई हिम्मत बढ़ने और हिन्दुस्तान से उनके उखड़ते हुए पैर जमने का कारण बना। एक प्रकार से फ़िरंगियों के रास्ते का कांटा ही साफ़ हो गया। अर्थात् दुश्मन की दिली मुराद पूरी हो गई।
टीपू सुल्तान की शिक्षा:-
उस समय के चलन के अनुसार नवाब हैदर अली ने अपने बेटे टीपू को तालीम दिलाने के लिए योग्य उस्तादों को नियुक्त किया था उसे कुरआने-पाक, फिक्रम अरबी, फारसी, उर्दू, कन्नड़ और अंग्रेज़ी आदि की बाकायदा तालीम दी गई। टीपू को घुड़ सवारी, तीर अंदाज़ी, तलवार बाज़ी, बन्दूक बाज़ी तथा अन्य फ़ौजी ट्रेनिंग भी दी गई।
इस काम के लिए एक माहिर एवं अनुभवी उस्ताद ‘गाज़ी ख़ान’ को भी रखा गया। नवाब हैदर अली के फ़ौजी मुआयने के समय भी टीपू को साथ जाता था ताकि उनको इसका भी अनुभव हो सके।
जब नवाब हैदर अली की मौत हुयी उस समय टीपू सुल्तान मालाबार में थे इन्होने मृत्यु से पहले अपने सेक्रेट्री को बुलाकर टीपू को एक खत लिख दिया। पत्र में लिखवाया गया कि तुम्हारे पिता का इंतकाल हो गया इसको सुनकर टीपू को अपने पिता की मौत के गम में दूब गया लेकिन दूसरी तरफ़ वह रियासत की ज़िम्मेदारियों को नहीं भुला सकता फिर भी वह शीघ्र यहां आजाए।
टीपू को हैदर अली का ख़त 11 दिसम्बर 1782 को मिला। वहां आवश्यक प्रबंध कर अगले दिन की सुबह को वह तेज़ी से रवाना हो गया। दूर दराज़ का सफ़र तय करके वह 28 दिसम्बर को उस कैम्प में पहले गया जो कि फ़ौज से लगभग दो मील की दूरी पर था।
टीपू साधारण कालीन पर ही नीचे बैठ गया। एक दिन अपने पिता के गुज़ारने के बाद दूसरे दिन उसने अपने भाई और अफ़सरों जिन्होंने हैदर अली के इन्तिकाल के बाद बड़ी सूझ-बूझ से रियासत में अमन व शांति बनाए रखी और कोई विद्रोह नहीं होने दिया।
सन् 1782 में, जबकि उसकी आयु 32 वर्ष थी. पूरी शानो शौकत के साथ शाही तख्त पर बैठकर नवाब टीप सुल्तान बहादुर का लकब अपनाया उस समय फ़ौज के द्वारा उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गई। फ्रांसीसियों ने भी उन्हें तोपों की सलामी दी। टीपू को रियासत मैसूर की बड़ी सल्तनत, फ़ौजी साजो-सामान और ख़ज़ाने सहित, विरासत में मिल गई।”
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टीपू सुल्तान ने राज्य का कार्यभार संभाला:-
इन्होने अपनी रियासत का नवाब होने के साथ ही एक अनुभवी सेनापति भी था उसके इरादों की बुलन्दी आकाश को छूती और हौसला पहाड़ों से ज्यादा मजबूत था तथा उसने राज-पाट संभालते ही रियासत के रक्षक फ़ौजियों को उनकी बकाया तनख्वाह की फ़ौरी तौर से अदायगी का हुक्म दिया।
साथ ही यह भी हुक्म जारी किया कि भविष्य में तनख्वाहें तीस दिनों के अन्दर पाबन्दी के साथ अदा की जाती रहें। उसने एक फ़्रांसीसी अनुभवी अफ़सर द्वारा अपनी फ़ौज को दोबारा ट्रेनिंग दिलाकर फ़ौज को मैदाने जंग का माहिर बना दिया। फ़ौजियों के खाने के सामान और उनकी अन्य ज़रूरत की चीजें लगातार मुहैया कराने का हुक्म भी जारी किया
इन्होने अपनी रियासत के उद्योगों, कृषि और अन्य देशी व्यवसायों को तरक्की दी तथा अपनी रियासत की खुशहाली के अनेकों काम किए। उसने राज पाट सम्भालने के बाद इंसाफ से काम लिया। जहां उसने मुसलमानों को अपनाया वहीं हिन्दुओं को भी गले लगाया।
वह साम्प्रदायिक विचारधारा का नहीं था अपने शासन काल में हिन्दुओं को उच्च स्तर के ओहदों पर रख कर उनका सम्मान बढ़ाया और अपने धार्मिक रीति-रिवाज अपनाने और पूजा-पाठ की पूरी जान थी। इतिहास की पुस्तकों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उसने मन्दियों और ब्राह्मणों को जागीरें एवं माफ़ियां दीं।
अवतारों की प्रतिमाए बनाने के लिए गि उपलब्ध कराई। यहां तक कि हिन्दू अवाम की पूजा-पाठ के लिए अपनी रियास में मन्दिर बनए जाने के भी आदेश दिए। धर्म के नाम पर उसने अवाम के साथ कोई भेद-भाव नहीं किय तथा अपने पिता नवाब हैदर अली की पालिसी पर अमल करते पुर्निया को शासन के महत्वपूर्ण ओहदे पर और कृष्णा राव को ख़ज़ाने के बा ओहदे पर नियुक्त किया।
शमय्या आयंगर को डाक एवं पुलिस महकमे काबनाया गया। उसके भाई नरसिंगाराव को श्रीरंगापटनम में कई महत्वपूर्ण ओहदी की जिम्मेदारी सौंपी गई।
श्रीनिवासराव और अण्णाजीराम को खास विश्वासपात्र लोगों में रखा था। मूलचंद और स्वजानराम, मुगल दरबार में टीपू के पहले वकील थे। नायक राव और नायक संगमा भी टीपू के विश्वास पात्र एवं बहुत ही नजदीकी थे। टीपू का विशेष पेशकार सुब्या राव भी हिन्दू था। टीपू का मुंशी नरसय्या भी हिन्दू ही था।’ टीपू ने एक अकेले ब्राह्मण को मालाबार के जंगल काटने का ठेका देकर मालामाल कर दिया था। एक अन्य ब्राह्मण को कोयम्बटूर का आसिफ (बढ़ा ओहदेदार) नियुक्त किया गया था। उसे यही ओहदा पालघाट में भी दिया गया।
इसके अतिरिक्त टीपू सुल्तान ने बहुत से माल अधिकारी हिन्दू ही रखे थे। यहां तक कि बगैर धर्म के भेद-भाव के सेना में भी हिन्दुओं को महत्वपूर्ण पद दिये गए।’ हरिसिंह को अनियमित घुड़सवार सेना” का रिसालदार बनाया गया। इसके अलावा भी ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि नवाब हैदर अली एवं नवाब टीपू सुल्तान साम्प्रदायिक विचारधारा एवं संकुचित सोच के नहीं थे।
जब आप ” हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान” नामक पुस्तक को पढेंगे तो उसमें उच्चतम स्तर की रिसर्च मिलेगा उपर्युक्त संबंध में कई घटनाओं का उल्लेख किया गया है।
टीपू सुल्तान ने मन्दिर के पुजारी को पत्र लिखे:-
यह एक घटना इस प्रकार है- रियासत मैसूर के पुरातत्व संग्रहालय विभाग के एक डायरेक्टर रावबहादुर नरसिम्हाचार को सन् 1916 में पत्रों का एक बंडल” सरनगीरी के एक मन्दिर सेमिला। उसमें वे तमाम पत्र थे जो कि नवाब टीपू सुल्तान ने उस मन्दिर के पुजारी को लिखे थे। उसमें से एक पत्र से यह विदित हुआ कि 1791 में रघुनाथ पटवर्धन मराठा सवारों ने सरनगीरी पर हमला कर दिया था। हुए और मन्दिरका माल लूट लिया। वहां रखी शारदा देवी की मूर्तिको कारण ब्राह्मण सहित कुछ लोग कल भी स्थान से हटा दिया था।
उस उत्पात के कारण मन्दिर का स्वामी यहां से और सुरक्षित जगह जाकर रहने लगा। मन्दिर का स्वामी उस घटना से बहुत उसने टीपू सुल्तान को उस घटना की खबर दी और मन्दिर की पवित्रताको बहाल करने का निवेदन भी किया। उस घटना को सुनकर टीपू बहुत गुस्से में आ टीपू ने स्वामी को लिखा कि जो लोग ऐसे पवित्र स्थान की क़दर नहीं करते उन्हें कलयुग में भी अपने पापों की सजा मिलती है। गुरुओं के साथ गद्दारी करने के कारण ऐसे इंसानों की नस्ल ही ख़त्म कर दी जाती है। इसके साथ ही र सुल्तान ने बदनर के आसिफ़ बड़े ओहदेदार) को हुक्म पहुंचाया
शारदा देवी के मन्दिर के निर्माण के लिए दो सौ सुल्तानी अशर्फ़ि और दो सौ अशर्फियों का अनाज तथा दूसरा सामान जिसकी भी ज़रूरत हो शीघ्र उपलब्ध कराया जाए मन्दिर के स्वामी को इसकी सूचना देते हुए टीपू ने उस से कहलवाया कि देवी के मन्दिर-निर्माण और ब्राह्मणों को खाना खिलाने के बाद हमारी ख़ुशहाली और दुश्मन अंग्रेज़ की तबाही के लिए दुआ कीजिए।
मन्दिर में देवी की मूर्ति की स्थापना के बाद स्वामी ने टीपू सुल्तान के लिए प्रसाद और शाल भेजा। उसके जवाब में टीपू सुल्तान ने भी शारदा देवी के लिए कपड़े और स्वामी के लिए एक जोड़ा तथा शाल भेजा। टीपू ने सरनगीरी के मन्दिर तक ही अपनी दानशीलता को सीमित नहीं रखा। उसने अपनी रियासत के अन्य मन्दिरों के साथ भी अच्छा बर्ताव किया। टीपू की धर्मनिरपेक्षता की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती. है कि श्रीरंगानाथ का मन्दिर श्रीरंगापटनम् किले की सीमा में ही स्थापित था। इसी प्रकार क़िले में ही महल के क़रीब नरसिम्हा और गंगाधर यसूरा के दो मन्दिर और भी थे। उन मन्दिरों में पूजा-पाठ पर कोई पाबन्दी नहीं थी, बल्कि ब्राह्मणों की उनकी धार्मिक रस्मों को अदा करने के लिए अधिकांश राशि भी प्रदान की जाती थी।
टीपू सुल्तान और अंग्रेजों के बीच युद्ध:-
फिरंगी पहले तो हैदर अली को ही अपने रास्ते का कांटा समझते थे, परन्तु टीपू उनके लिए और बड़ा सर दर्द नज़र आने लगा था। वह टीपू सुल्तान की बहादुरी, हिम्मत, बुद्धिमत्ता, उसके राज्य-प्रबंध और जंगी महारत को देखते हुए अधिक डरे रथे। वे यह समझ चुके थे कि टीपू सुल्तान के जीते जी हिन्दुस्तान पर पूरी तरह से हुए कब्जा जमाना असंभव है। उस समय अंग्रेज़ टीपू से इतने ज्यादा भयभीत थे कि वे एक-दूसरे को डराने के लिए टीपू का नाम लिया करते थे। उनका यह डर हिन्दुस्तान की सरहदों को पार कर इंग्लैंड तक फैला हुआ था। यहां तक कि अंग्रेज़ महिलाएं अपने बच्चों को टीपू का नाम लेकर डराया करती थीं।
टीपू सुल्तान से अंग्रेज़ों के डर की वह हालत थी कि वे अकेले टीपू से लड़ने की हिम्मत नहीं रखते थे। उन्होंने अपनी चालबाज़ियों से मरहटों और निज़ाम को अपना साथी बना लिया था, ताकि मिलकर टीपू जैसे बहादुर दुश्मन का सफाया किया जा सके। अंग्रेज़ ने मक्कारी व चालबाज़ी का ऐसा कोई भी रास्ता नहीं छोड़ा था जिससे कि टीपू की ताकत का ख़ातिमा न हो जाए। हुआ यही कि आपसी फूट के कारण अंग्रेज़ अपनी चालबाज़ी में सफल हो गया।
टीपू सुल्तान और अंग्रेजों के बीच आखिरी युद्ध:-
सन् 1792 में उसने निज़ाम के बड़े फ़ौज-फाटे के साथ तथा मरहटों की मदद से टीपू सुल्तान पर चढ़ाई कर दी। घमासान की जंग छिड़ी। जंग में टीपू और उसकी जाँबाज़ सेना ने उस बड़े हमले का डटकर मुकाबला किया। टीपू के मैदाने जंग के प्रबंध, स्वयं उस के बहादुरी से लड़ने एवं फ़ौज को हौसले के साथ लड़ाने का तरीक़ा देख फ़िरंगी हैरत में पड़ गए। क्योंकि दुश्मन की फ़ौज अपने सहयोगियों के साथ बड़ी संख्या में थी, इस कारण टीपू को उस समय हार का मुहं देखना पड़ा।
टीपू की रियासत के बड़े भाग पर अंग्रेज़ एवं सहयोगी सेना का क़ब्ज़ा हो गया। उस जंग में अंग्रेज़ों ने टीपू पर तावान (जुर्माना भी लगाया। उस हार का टीपू को बहुत ज्यादा दुख रहा।
लेकिन हिम्मत नहीं हारी। उसने अपनी सेना की कमजोरियों को दूर किया तथा अपनी ताक़त बढ़ाई। उसे तो हर जंग के बदले में अंग्रेज़ का हिन्दुस्तान से सफ़ाया करना था। उसके मन में यह बात घर कर गई थी कि युद्ध की हार या जीत असल नहीं है। असल मक़सद तो किसी भी तरह अंग्रेज़ों को हिन्दुस्तान से मार भगाना है।
टीपू ने अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए बाहरी मुल्कों से भी मदद मांगी, परन्तु उसे विदेशी सहायता नहीं मिल सकी। इसी के साथ उसने निज़ाम और मरहटों से भी बात की। उन्हें समझाया कि वे विदेशी शक्ति के हाथों न खेलें। क्योंकि जो देश का दुश्मन है वह कभी हमारा दोस्त नहीं हो सकता।
यदि देशी ताकते एक जुट होकर अंग्रेज़ पर हमला करने और उसे अपने देश से भगाने के लिए एक हो जायें लेकिन टीपू के वे प्रस्ताव विफल रहे। न तो उसे विदेशों से सहायता मिल सकी और न ही देश में एकता बन सकी।
उधर अंग्रेज़ों के दिलों में भावनाओं और जज़्बात के लिए कोई जगह नहीं थी। वे तो जैसे भी हो लूट-मार करना चाहते थे। वे जैसा भी मौक़ा हो अपना मतलब हल करने के लिए देश के ही लोगों को धन-दौलत और बड़े ओहदों का लालच देकर उनका उपयोग किया करते थे। जब अंग्रेज़ों को यह अन्दाज़ा हो गया कि वे टीपू को हराने में पूरी तरह से सक्षम हो गए हैं
उन्होंने लड़ाई छेड़ने के मकसद से टीपू पर झूठे इल्ज़ामों का हिंदोरा पीटना और शोर मचाना शुरू कर दिया। कभी शोर किया गया कि टीपू अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए फ्रांस से मदद ले रहा है। कभी अन्य झूठे इल्ज़ाम लगाए गए। इसी के साथ ब्रिटिश सेना का जमाव मद्रास में किया जाने लगा। जब ब्रिटिश सेना की पूरी तैयारी हो गई तो उन्होंने 9 जनवरी 1799 को टीपू से उसके कब्जे के समुद्री तट और बन्दरगाहें ब्रिटिश सेना को सौंपने को कहा। टीपू सुल्तान अंग्रेज की इस मक्कारी को पहले से ही समझ रहा था। फिरंगियों की इस धमकी से उसके सम्मान को ठेस लगी।
टीपू विदेशी सहायता और देशी एक जुटता से ना उम्मीद हो चुका था, फिर भी वह अपनी हिम्मत बांधे और अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाते हुए समय के इन्तिज़ार में था। वह यह समझता था कि एक न एक दिन मौत तो आनी ही है। उसका यह कहना था कि “शेर की एक दिन की ज़िन्दगी गीदड़ की हजार दिनों की ज़िन्दगी से ज़्यादा अच्छी है।”
अंग्रेज़ की चाल बाज़ियों के कारण टीपू की आस्तीनों में ऐसे कई सांप पल रहे थे जो कि किसी समय भी उस से ग़ददारी कर उस के ऊपर उलटवार कर सकते थे। फिरंगियों ने दौलत और ओहदों के लालच देकर इतने ग़द्दारों का जाल बिछा दिया था जो कि टीपू की सेना को लकड़ी के घुन की तरह खोखला किए हुए थे। अंग्रेजों ने ऐसी रणनीति अपनाई थी कि टीप पर एक के बाद एक इतने हमले किए जाएं कि उसके लिए उनका मुकाबला करना कठिन हो जाए। अंग्रेज़ जहां सेना की ताक़त पर लड़ रहे थे, उस से कहीं ज़्यादा बाग़ियों की साहयता फिरंगियों को सफलता दिलाने में मददगार हो रही थी।
उधर अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान की ताक़त को कुचलने के लिए अपने सहयोगियों के साथ जंग का बिगुल फूंक दिया। फ़िरंगियों का बड़ा लाव-लश्कर अपने दिलों में लालच और लूटमार की भावनाएं लिए हुए था।
जबकि टीपू सुल्तान और उसके सैनिक अपने दिलों में वतन की मुहब्बत, मुल्क के लिए सरफ़रोशी की तमन्ना और देश प्रेम के जज्बे के साथ ब्रिटेन की फ़ौज का मुक़ाबला करने के लिए मैदाने जंग कूद पड़े थे। टीपू की सेना ने जोरदार हमला किया जिस के कारण फिरंगी फौजें बौखला उठीं। अंग्रेज़ हमले को बर्दाश्त नहीं कर सके और उनके पैर उखड़ने लगे। उस समय ( टीपू ने अपने वफादार समझे जाने वाले सेनापति को हुक्म दिया
कि दुश्मन की फ़ौज पर टूट पड़ी। ऐसे समय में अंग्रेजों के हाथों बिके हुए उस गद्दार सैनापति ने उलटा टीपू की सेना पर पलटवार कर दिया। ऐसे हालात में किस पर भरोसा किया जाए, किस पर नहीं? यह सोचा भी नहीं जा सकता। टीपू सुल्तान यह सोच भी नहीं सकता था कि उस अन्दरूनी गद्दारी के कारण उसे जीती हुई बाज़ी हारनी पड़ेगी।
अंग्रेजों की मैसूर पर चढ़ाई:-
योजना के “अनुसार अंग्रेज़ी सेना मैसूर पर चढ़ाई के लिए रवाना हुई। टीपू सुल्तान को ख़ुफ़िया तौर से जैसे ही यह ख़बर मिली तो वह भी अपने फ़ौजियों को लेकर रवाना हो गया। ताकि दुश्मन की फ़ौज को मैसूर पहुँचने से पहले ही रास्ते में रोक लिया जाए। टीप ने अपने जांबाज़ फ़ौजियों के साथ अंग्रेज सेना पर ऐसा ज़ोरदार हमला बोला कि वे सब बिखर गए। उस हमले में बहुत से अंग्रेज़ सैनिक मारे गए। बचे हुए सिपाही और अफ़सर अपनी जानें बचाने को जंगलों में छिपते फिर रहे थे। उस समय टीपू अंग्रेज़ी सेना पर यमदूत बन कर झपट रहा था।
समय टीपू अंग्रेज़ी सेना पर यमदूत बन कर झपट रहा था।
ऐसे कठिन और भयानक समय में 4 मई 1799 को बादशाह के कुछ सलाहकारों ने उसे अपनी जान बचाकर भाग जाने की सलाह दी, ताकि बाहर रह कर अंग्रेज से समझौता हो सके। बहादुर टीपू सुल्तान को यह सलाह बिल्कुल भी पसंद नहीं आई। टीपू ने पूरे भरोसे के साथ कहा कि “यह मुल्क ख़ुदा-दाद, हमारी रिआया की मिलकियत है।
हमने अपने बतने अजीज की हिफाजत के लिए लगातार कोशिशें की हैं। मैं जानता हैं कि मेरे ग़द्दार वज़ीर और अफ़सरान इसकी तबाही में लगे रहे। अब वह अपनी ग़द्दारी का मज़ा भी चखेंगे। जहां तक मेरा सवाल है, तो मैं अपनी जान-माल और औलाद को अपने दीन पर कुर्बान कर चुका है।
इंसान को सिर्फ एक बार मौत आती है डरना बेकार है। टीपू सुल्तान की इस बात का अन्दाज़ा हो चुका था कि अब वह दुश्मनों के घेरे में आ चुका है। उस के ही टुकड़ों पर पलने वाले ग़द्दारों औ साज़िशें सफल हो चुकी हैं। इतना होने पर भी वह अपने वतन हिन्दुस्तान मुहब्बत, उस से वफ़ादारी और उसकी आज़ादी के लिए अपने मज़बूत ईमान अपनी चमकदार तलवार के सहारे जी रहा था। उसका मानना था कि जब जीना है|
श्रीरंगापटनम् किले की सुरक्षा फ़ौजियों को लगाया जाता था। इसी प्रकार उस समय भी किले के उस खासमा की हिफ़ाज़त की जिम्मेदारी एक वफ़ादार और बहादर फ़ौजी अफसर संविद गफ्फार को सौंपी गई थी। वह ऐसा महत्वपूर्ण मोर्चा था कि अगर उसे कब्जे में लिया जाए तो पूरा क़िला ही कब्ज़े में आ जाए। क़िले के अन्दर अंग्रेज़ के खुफिया एजेंट इन तमाम बातों को समझ चुके थे। वे सुलतान के सामने भी बहुत अदब क साथ हाथ बांध कर सर झुकाए खड़े होते थे।
उन्होंने अपनी बनावटी हरकतों से सुलतान को कभी शक नहीं होने दिया। मगर ख़ामोशी से अन्दर की ख़बरें बाहर अंग्रेज़ों को भेजते रहते थे। सुलतान के वफादार सय्यिद गफ्फार को, जिसे क़िले के ख़ास मोर्चे की सुरक्षा पर तैनात किया गया था, गद्दार वज़ीर मीर- सादिक़ ने डियूटी से हटा कर क़त्ल करवा दिया। फिर क्या था, फिरंगियों के हाथों बिके हुए गद्दारों द्वारा क़िले के उस महत्वपूर्ण मोर्चे का दरवाज़ा दुश्मन की फ़ौज के लिए खोल दिया। गया। टीपू को भी उस गद्दारी की ख़बर मिल गई। वह समझ गया कि अब ज़िन्दगी या मौत, जीत या हार के फ़ैसले का वक़्त आ चुका है। भारत के उस वीर सपूत के खून में वतन की मुहब्बत और फिरंगियों की नफ़रत जोश मारने लगी।
टीपू सुल्तान की जिन्दगी का आखिरी समय( मृत्यू):-
युद्ध के दौरान टीपू सुल्तान लड़ते हुए बहुत अहम हो चुका था और थक भी चुका था। जख्मों की शदीद तकलीफ़, लड़ाई की थकान और अधिक प्यास लगने के कारण टीपू ने अपने किले में कुछ समय के लिए वापस दाखिल होना चाहा। उधर टीपू के गद्दार वज़ीर मीर-सादिक़ ने जान-बूझ कर किले का वह दरवाजा ही बन्द करवा दिया था जिससे कि टीपू बाहर गया था।
देश के उस वीर स्वतंत्रता सेनानी ने उस जाड़मी हालत में भी दुश्मन पर दोबारा हमले शुरू कर दिये। यह उसकी जिन्दगी के वे आखिरी लम्हे थे जिन को वह इस हालत में भी देश सेवा में लगाए हुए था। अचानक एक मनहूस घड़ी वह भी आई जब दुश्मन की ओर से बन्दूक की सनसनाती हुई एक गोली शेर दिल टीपू के सीने को चीर गई। वह समझ गया कि अब उसकी ज़िन्दगी खत्म होने वाली है।
टीपू ने इस बात को सच कर दिखाया कि शेर सीने पर गोली खा कर नहीं मरता। उस हालत में भी उस वीर ने तलवार चला कर आज़ादी के अंग्रेजों को मौत के घाट उतारा। अंत में दुश्मन की ओर से एक और तेज़ रफ़्तार गोली टीपू की कनपटी को छेदती हुई बाहर निकल गई। आजादी का वह चाहने दुश्मन, कई वाला, जख्मी हालत में अपने देश की धरती पर जा गिरा। फिर क्या था, फिरंगियों ने जमीन पर तड़पते हुए शेर दिल इन्सान के जिस्म को अपनी बन्दूकों की नापाक गोलियों से छलनी कर दिया।
यह, वह दुख भरी घड़ी थी जब कि ढलती हुई धूप देश के उस बहादुर सिपाही को आखिरी सलामी दे रही थी।
जब कि फ़िज़ाओं में मातम करती हुई हवाए जख्मी टीपू के बदन से बहते हुए खून और पसीने पर पंखे झल रही थीं। जब कि मैदाने जंग की उड़ती हुई गर्द व-गुबार फ़र्श से अर्श तक चीख़ो-पुकार मचाए हुए था।
जब कि मैसूर क़िले के वे मज़बूत दरो-दीवार अपने आक़ा की दर्द भरी जुदाई पर बिलख-बिलख कर आंसू बहा रहे थे। जब कि भारत देश की धरती बाहें पसारे हुए अपने लाडले सपूत को गले लगाने के लिए बेताबो बेकरार थी शहीदे वतन नवाब टीपू सुल्तान बहादुर की ज़ख्मी, प्यासी लाश 4 मई 1799 को अपनी मातृभूमि (मादरे वतन) की गोद में सदैव के लिए सो गई।
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FAQ
टीपू सुल्तान का जन्म कब हुआ था ?
कहते है इनके पिता हैदर आली और माता बेगम प्रतिमा किसी औलिया के दरबार गये थे और दुआ मांगी थी कि हमे बेटा पैदा हो, अल्लाह पाक ने उनकी दुआ कुबूल की , 20 नवम्बर 1750 को जुमे के दिन फखरुन्निसा बेगम ने टीपू सुलतान को जन्म दिया |
4 मई 1799
टीपू सुल्तान के चार भरोसेमंद हिन्दू दरवारी कौन थे ?
श्रीनिवासराव और अण्णाजीराम को खास विश्वासपात्र लोगों में रखा था और मूलचंद और स्वजानराम, मुगल दरबार में टीपू के पहले वकील थे, ये सब हिन्दू थे
शेरे-मैसूर टीपू सुल्तान इनका पूरा नाम है
हैदर अली
‘गाज़ी ख़ान, इन्होने टीपू को घुड़ सवारी, तीर अंदाज़ी, तलवार बाज़ी, बन्दूक बाज़ी तथा अन्य फ़ौ जी ट्रेनिंग दी थी|