हिन्दुस्तान की जंगे आजादी में शामिल किसी साधारण से व्यक्ति का भी किरदार छोटा नहीं था। आजादी के किस मतवाले द्वारा ब्रिटिश शासन के खिलाफ कितना बड़ा कारनामा कर दिखाया गया, यह इतिहास के अध्ययन से ही पता लगाया जा सकता है। इतिहास में ऐसे बहुत से क्रांतिकारी हुए जिनके बारे में इतिहासकारों ने लिखना उचित नही समझा, इसीलिए वर्तमान की राजनीति से प्रेरित राजनैतिक दलों से नागरिकों को इतिहास के बारे में ज्यादा पता नहीं है आज का लेख ऐसे ही क्रांतिकारी पर लिखा जा रहा है उनका नाम वली खान था|
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वलीखान का जन्म तथा शिक्षा :-
शहीद वली खान का पूरा नाम वली दाद खां था। उन्होंने कस्बा कोट जिला फ़तेहपुर में रहीम खां के घर जन्म लिया था। पहले तो वह फिरंगी फौज के देशी रेजीमेंट न. 11, मेरठ के बड़े अफ़सरों में से थे। उस समय फिरंगी हिन्दुस्तान पर तो अपना कब्जा जमाए हुए ही थे। इसके अलावा भी शासन के नशे में कुछ ऐसी हरकतें करते रहते थे जो कि देशवासियों के लिए तकलीफ़ का कारण हुआ करती थीं। कभी उनकी रस्म व रिवाज से छेड़छाड़, कभी मज़हबी मामलों को नज़र अन्दाज़ कर उनकी भावनाओं को भड़काया जाता था।
एक समय कारतूसा में सुअर और गाय की चर्बी का क़िस्सा तूल पकड़ गया। जब वली खान को अंग्रेज़ की इस साज़िश का पता चला तो उन्होंने संबंधित अंग्रेज़ अफ़सर को ऐसे कारतूस उपयोग में न लेने तथा स्टोर में जमा करने के लिए मजबूर किया। ताक़त के नशे में चूर अफ़सर ने उनकी कोई बात नहीं सुनी और उनको बुरा-भला कहा। ये बातें सुन कर वली ख़ान जोश में आ गए। क्योंकि सुअर की चर्बी वाले कारतूस को मुहं से खोलने के लिए उनका मज़हब इजाज़त नहीं देता।
उन्होंने अकेले ही उस अंग्रेज़ अफ़सर पर फायर कर उसे मौत के घाट उतार दिया। इसके कारण ब्रिटिश शासन में खलबली मच गई। अन्य कारणों के साथ ही 1857 के स्वतन्त्रता संघर्ष का यह भी एक कारण बना।
वलीखान का क्रांतिकारी इतिहास :-
कुदरत का यह एक करिश्मा था कि वली ख़ान की शक्ल-सूरत बादशाह, बहादुरशाह ज़फ़र से बहुत ज्यादा मिलती हुई थी। वह अपने शरीर और सूरत से दूसरे बहादुरशाह ज़फ़र नज़र आते थे। उन्हें यह ख़बर मिली कि फ़िरंगियों ने दिल्ली पर हमला कर दिया है। क्योंकि वह खुद ही देसी रेजीमेंट के अफ़सर थे, इस कारण वह अंग्रेज़ों से मुकाबले के लिए अपनी रेजीमेंट ले कर दिल्ली पहुंच गए। वहां उन्होंने बादशाह के हमशक्ल होने का फ़ायदा इन्किलाबियों को पहुंचाया।
वह शाही लिबास हासिल करके फ़ौज के साथ मैदान में कूद पड़े। सेना ने उन्हें बादशाह ज़फ़र समझा। इस कारण विद्रोही सेना का जोश और भी बढ़ गया। वली खान की सेना ने फ़िरंगियों पर ज़ोरदार हमला कर उसे खदेड़ डाला। दूसरे दिन भी इसी तरह अंग्रेज़ सेना को मार भगाया।
वलीखान का तीसरा दिन जिसके बारे में इतिहास में ज्यादा लिखा नहीं है :-
तीसरे दिन जब वली ख़ान की सेना का अंग्रेज़ सेना से मुकाबला हुआ तो उन्होंने अपने साथी इकराम ख़ान को कुछ हिदायते दीं। वली खान ने कहा कि आज देश की आज़ादी के लिए मेरी शहादत का दिन है। जब मैं फ़िरंगी सेना से मुक़ाबला करने लगूं तो तुम मेरे साथ रहना। मेरे ज़ख़्मी हो जाने पर मेरी सवारी पर ही बैठ जाना और मुझे क़िले के अन्दर ले जाकर वहीं दफ़न कर देना। हुआ भी कुछ इसी तरह से। उसके बाद वह शाही सामान और लिबास, जो वली खान के उपयोग में था, वापस कर दिया गया।
जिंदगी का आखिरी सफ़र :
शहीद वली ख़ान की बहादुरी और सूझबूझ से स्वतन्त्रता में दुश्मनों का बहुत नुक़सान हुआ और हौसले भी पस्त हुए। इधर बादशाह की सेना के यह समझने से कि बादशाह सलामत इस बुढ़ापे की हालत में भी उनके साथ लड़ाई के मैदान में मौजूद हैं, उनका बहुत हौसला बढ़ा। इस प्रकार वली ख़ान देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करते हुए 17 मई 1857 को शहीद हो गए। उनके कुछ रिश्तेदार भी इस संघर्ष में शहीद हुए।
गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों की इस तरह की अनगिनत घटनाएं हैं, जो इतिहास के पन्नों से भी दूर हैं। क्योंकि आज़ादी के आन्दोलन ने जन आन्दोलन का रूप ले लिया था, संभवतः इस वजह से विशाल भारत देश के प्रत्येक शहर, तहसील, क़स्बे और गांवों में बसने वाले लाखों भारतवासी अपने-अपने क्षेत्रों में भी इस संघर्ष में सक्रिय थे। इस तरह हिन्दू और मुसलमान शहीदों की ऐसी बहुत बड़ी संख्या है जो कि बग़ैर गिनती के रह गए।
देश पर मर मिटने वाले हिन्दू या मुसलमान कोई भी शहीद, जो कि गिनती में आए हों या किसी भी कारणवश गिनती के बाहर रह गए हों, वे देश की आज़ादी के वफ़ादार सिपाही थे। उनका देश की आज़ादी पर बलिदान सराहनीय एवं सम्मानीय है। देशवासी उन सभी शहीदों की आत्माओं को सलाम करते हैं। शहीद वली ख़ान के साथ ही अन्य शहीदों की यादें अमर और अमिट रहेंगी।
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