अज़ीज़न बाई (Azizan Bai) कौन थी ?
Home » अज़ीज़न बाई कौन थी ?

अज़ीज़न बाई कौन थी ?

by रवि पाल
0 comment

हिंदुस्तान का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने अपनी तरफ से पूरी कोशिस की, जो भी आज जान और समझ रहे है वो सब उन्ही इतिहासकारों की देंन है आज का विषय एक क्रांतिकारी के बारे में बात करेंगे जिसने नृत्य के साथ क्रांति भी की , इनका नाम अज़ीज़न बाई है

हिंदुस्तान में रहने वाले प्रत्येक समाज के लिए यह बड़े गर्व की बात है कि इस देश की धरती ने अपनी रक्षा के लिए हजारों वीर पुरुषों को पैदा किया, इसमें पुरुषों ने तो जन्म लिया ही उसके साथ- साथ ऐसी महिलाओं ने भी जन्म लिया है। जिन्होंने अपनी अन्य ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हुए देश की आज़ादी पर स्वयं को कर्बान कर दिया।

व्यवसाय कुछ भी रहा हो, योग्यताएं जो कुछ भी हो, आस्थाएं जिस पर भी हॉ, उनमें से कोई भी बात मन की भावनाओं को नहीं रोक पाती। देश की आबरू की रक्षा के लिए समाज में हैसियत न रखने वाले भी अपने मन की पवित्र भावनाओं के सहारे सच्चे देश सेवक, देश प्रेमी और देश के वफादार साबित हुए हैं।

अज़ीज़न बाई का जन्म और कानपुर:-

मुसलमान समुदाय के स्वतंत्रता सेनानियों की जब हम बात करते हैं, तो पुरुषों के साथ ही समाज की महिलाओं के योगदान को भी याद करना हमारे लिए ज़रूरी हो जाता है। मुस्लिम समाज की “अज़ीज़न बाई” का नाम भी देश की महिला स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में सनहरे शब्दों में लिखा जाना अवाश्यक है।

इसका जन्म 1833 में शहर कानपुर की एक नर्तकी हस्न बानो गौहर के घर जन्म हुआ था, हुस्न बानो गौहर उस समय की जानी मानी नर्तकी थी कहते है कि उसका फ़ुर्तीला नाच, मनमोहक आवाज़ उस समय के धनवान लोगों को उसके घर की चौखट पर खड़े रहने के लिए मजबूर कर देती थी।

हुस्न बानो ने जिस सुन्दर लड़की अज़ीज़न को जन्म दिया वह कुदरती हुस्न व नज़ाकत और मुहब्बत का अनमोल नमूना थी। उसको माहिर उस्तादों द्वारा नाच और गाने का प्रशिक्षण दिलवाया गया तथा इसके साथ ही उसे अच्छी शिक्षा भी दिलवाई गई।

अज़ीज़न बाई की जिन्दगी के कुछ पन्ने:-

कुदरत ने जहां इनको  हस्न और सौंदर्य का एक खुदा बनाया था, वहीं उसके दिलकश गाने और जादूई नाच देखने से पहले ही प्रशंसक खुद ही गुनगुनाने और थिरकने लगते थे। उस क्षेत्र के धनवानों के दिल अजीजन के हुस्न व शबाब की बिखरती हुई बिजलियों से पायल हो चुके थे।

आस पास के सभी हैसियतदार, अजीन को पाने के लिए अपना धन-दौलत सभी कुछ दांव पर लगाने को तैयार बैठे थे। उसके चाहने वालों में देश के ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े घराने के राजा-महाराजा और अंग्रेज भी उसकी महफिलों के दीवाने थे। वे उसका हुस्न और कला देखने के लिए उसकी चौखट से हटना ही नहीं चाहते थे, क्योंकि अज़ीज़न की बचपन से ही अपनी मां के नाच गाने के माहौल में परवरिश हुयी थी

इसलिए उस पेशे को अपनाने में अजीजन को कोई संकोच भी नहीं हुआ, उसके नाच, गानों या मुजरों में विशेषता यह थी कि अपनी इस कला से लोगों के दिलों को तो बहलाया, लेकिन धन या किसी भी सुख-सुविधा के लिए उसने कभी अपनी आबरू को दागदार नहीं होने दिया।

बचपन में अच्छी तालीम पाने का उसे वह फायदा हुआ कि वह खुद ही अच्छे बुरे को समझने लगी थी। वह नाच-गाने को ज्यादा पसंद नहीं करती थी। अजीजन का मानना था कि एक महिला को कुछ धनवानों के दिल बहलाने का खिलौना बनना बेइज्जती की बात है। वह एक कम उम्र लड़की थी।

अज़ीज़न बाई के अन्दर क्रन्तिकारी भावना:-

जैसे-जैसे बड़ी होती गई, उसके मन की भावनाओं में बदलाव आता गया, अपने देश एवं समाज के लिए कुछ ऐसा करना चाहती थी जिससे कि उसे भी इज्जत की नजरों से देखा जाये। उसकी उम्र बढ़ने के साथ ही उसके सोच-विचार का स्तर भी ऊंचा होता गया। उसे भी एक पति की वफ़ादार पत्नी और ऐसे बच्चों की मां बनने की चाहत थी, जो कि देश सेवा करके अपना नाम रोशन कर सकें।

अजीजन बाई देश की गुलामी और क्रांति के आन्दोलनों से भी प्रभावित होने लगी थी। यहां तक कि फ़िरंगियों के खुले तौर से अत्याचार और भेद-भाव पूर्ण बर्ताव उसे बहुत ही बरे लगने लगे थे। उसने देखा कि ब्रिटिश शासन ने उसके मुल्क पर धन-दौलत के लालच में नाजायज़ कब्जा कर रखा है। देशवासी जब अपनी जायज मांगों का नारा लगाते हैं अथवा हिन्दुस्तान की आजादी की आवाज़ उठाते हैं, तो उन्हें बलपूर्वक डरा कर रोक दिया जाता है, अथवा उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है।

अज़ीज़न इन तमाम हालात से बहुत ज़्यादा दुखी थी। जैसे-जैसे उसके मन में देश प्रेम का जज़्बा बढ़ रहा था, वैसे ही उसे नाच-गाने से नफ़रत बढ़ती जा रही थी , फ़िरंगियों के विरुद्ध बग़ावत करके देश की आज़ादी में खुलेआम हिस्सा लेने की मन में ठान ली।

उसके पास दौलत की कमी नहीं थी। बस उसे आज़ादी के आन्दोलन में भाग लेने के लिए किसी सहारे की ज़रूरत थी। वह चाहती थी कि अपना जीवन साथी किसी ऐसे व्यक्ति को बनाया जाए जो कि देश से प्रेम करता हो।

अज़ीज़न बाई की बफादारी और कोठा :-

देश के लिए मर मिटने को तैयार हो, ताकि वह खुद भी उसके साथ देश सेवा  करते हुए अमर हो जाये। अज़ीज़न के मुजरे का मज़ा लेने के लिए अन्य के अतिरिक्त एक खूबसूरत नौजवान शम्सुद्दीन खान जो कंपनी में एक फैजी सिपाही था वह  भी कभी-कभी कोठे पर आया करता था ,अज़ीज़न की आंखों को वह कटीला नौजवान भा गया।

वह मुजरों के दौरान शम्सुद्दीन पर ज्यादा तवज्जोह देने लगी थी महफ़िल-मुजरा के बाद भी उसको रोक कर उसके संबंध में जानकारी लेती। उस सुन्दर लड़की अज़ीज़न ने देश सेवा के मद्देनज़र शम्सुद्दीन खां के सामने उससे अपनी शादी का प्रस्ताव रखा

लेकिन शम्सुद्दीन ने उसे अपनी कुछ मजबूरियां बताई, उस ने यह भी कहा कि वह कम्पनी की फ़ौज का एक सिपाही है, परन्तु अन्दरूनी तौर से उसे अपने देश से लगाव है।

वह नौजवान आगे कहता है कि उसने देश को आजाद कराने के लिए नाना साहिब” और “तात्या टोपे का साथ देना चाहता है  उसका आगे कहना था कि एक फ़ौजी के जीवन का कोई भरोसा नहीं होता।

शम्सुद्दीन की सीधी और सच्ची बातें सुन कर अज़ीज़न को तो अपनी दिली मुराद पूरी होती नज़र आने लगी। अज़ीज़न ने उस से कहा कि मेरी भी दिली इच्छा यही है कि देश की आज़ादी की लड़ाई में, मैं भी तुम्हारे साथ रहूं और फिरंगियों को मार भगाने में तुम्हारे साथ में अपना भी जीवन निछावर करने के लिए तैयार हूं।

उसने मन ही मन शम्सुद्दीन को अपना जीवन साथी मान लिया। अपने मन की बात से उसने शम्सुद्दीन को भी आगाह कर दिया। अब तो अज़ीज़न का मिशन ही शुरू गया था। उसके मजरों का कोठा धीरे-धीरे आज़ादी के मतवालों का ठिकाना बनता जा रहा था।

अज़ीज़न बाई के अन्दर देश के लिए प्यार:-

अंग्रेज़ों से तमाम बातें छुपाए रखने के लिए हमेशा की तरह वहां महफ़िले-मुजरा सजाई जाती थीं जब मुजरा खत्म हो जाता था उसके बाद वहां इन्किलाबियों की मीटिंगें हुआ करती थीं, उन मीटिंगों में अंग्रेज़ों के विरुद्ध गोपनीय तौर से रणनीतियां तैयार की जातीं थी  

क्योंकि अंग्रेज़ों के बड़े ओहदेदार भी अज़ज़ीन के गाने और नाच के दीवाने थे। इस कारण वह उनसे मिल कर अगली कार्यवाहियों के संबंध में जानकारी प्राप्त कर इन्किलाबियों को सूचित किया करती थी ,उधर अंग्रेज़ फ़ौज में हिन्दुस्तानी सिपाहियों के ऊपर सूबेदार शम्सुद्दीन और सूबेदार टीका राम थे।

रिसर्च बताते है ये दोनों देश प्रेमी अंग्रेज़ी फ़ौज में रहते हुए भी “नाना साहिब” से मिले हुए थे, नाना साहिब, अज़ीमुल्लाह खां, शम्सुद्दीन और अजीज़न बाई सभी ख़ुफ़िया तौर से एक दूसरे से मिलते रहते। इन्किलाबियों की मीटिंगें समय-समय पर अज़ीज़न के  घर ही हुआ करती थीं।

अज़ीज़न की देश के प्रति सच्ची भावनाओं से नाना साहिब भी बहत प्रभावित थे। वह अज़ीज़न को बहन कहा करते थे। देशवासियों के मन में अंग्रेज़ों से आज़ादी पाने का लावा अन्दर ही अन्दर पक रहा था।

4 जून 1857 मेरठ की बगावत:-

ब्रिटिश शासन के विरुद्ध मेरठ के इन्किलाबियों की सूचना जैसे ही कान पहुंची तो पूरा शहर सुलग उठा। क्रांतिकारियों का जुनून बेकाबू होने लगा। जब वहां मौजूद अंग्रेज़ बचाव की मुद्रा में आ गए थे। 4 जून 1857 को कम्पनी के सूबेदार शम्सुद्दीन खां, सूबेदार टीकाराम और सैकड़ों सिपाही अंग्रेज सेना से बगावत कर बाहर निकल आए। नाना साहिब के नेतृत्व में आजादी की स् आरंभ कर दी गई।

अंग्रेज़ों का खुले आम कत्ल, लूट-मार शुरू हो गया। कम्पनी के झंडे सरकारी इमारतों से उतार कर फेंक दिये गए। उन इमारतों पर ब शाह ज़फ़र के हरे झंडे लगा दिये गए। किले के अन्दर सुरक्षित अंग्रेज़ों पर तो जान जाने लगीं।

किले के अन्दर हा-हाकार और भगदड़ मचने लगी। अंग्रेज पुरुष एवं महिलाएं बड़ी संख्या में मारे जाने लगे। दूसरे दिन तक अंग्रेजों का हथियारों औ गोला बारूद का पूरा भंडार इन्किलाबियों के कब्जे में आ गया। अब क्रांतिकारिय की हिम्मतें और बढ़ने लगीं। वे ख़ुशी और जोश में नारे लगाने लगे।

बादशाह का हुक्म नाना साहिब का।” इन्किलाबियों की स्थिति यहां तक काबू में आ गई कि कानपुर से अंग्रेज़ों का कब्जा ख़त्म हो चुका था। वहां के दौलतमंद जमींदार यहां तक कि आम निवासी भी नाना साहिब को नकद पैसा, जरूरत सामान ख़ुशी खुशी दे रहे थे, ताकि आन्दोलनकारियों की मदद में कोई नमी के आज़ादी के इस आन्दोलन में अज़ीज़न बाई को भी देश सेवा का खूब मौका मिला। उसने भी मर्दाना कपड़े पहन कर एक हिन्दुस्तानी सैनिक की तरह काम किया। अंग्रेजों को मौत के घाट उतारने में आन्दोलनकारियों की खूब मदद की


अज़ीज़न बाई पर एक अंग्रेज़ का कथन इस प्रकार है:-

अंग्रेज़ों के विरुद्ध घमासान आन्दोलन के समय अज़ीज़न बाई भी एक अनुभवी सिपाही की तरह अपने बदन पर लड़ाई के हथियार बांधे हुए थी। वह घोड़े पर सवार कानपुर की सड़कों, गलियों और छावनी के बीच बिजली के समान कूदती और भागती ह प्रबंध कर रही थी। वह कभी जख्मी सिपाहियों की देख-रेख करती तो कभी म पट्टी।

कभी क्रांतिकारियों में जा कर दूध बांटती तो कभी मिठाइयां तकसीम करती वह थके हुए सिपाहियों का हौसला बढ़ाती और कभी उन्हें आज़ादी की खुशखबरी सुनाती। वह कभी भाग कर अंग्रेजों के किले की दीवार के नीचे लड़ने वाले इन्किलाबियों के पास जाती, उनकी हिम्मत बढ़ाती, उन्हें फ़िरंगियों का डट का मुकाबला करने के लिए उत्तेजित करती।

वह अज़ीज़न जो कि कभी अपने पैरों की पायलों की झनकार से, कभी खूबसूरत हाथों की चूड़ियों की खनक से और कभी तालियों की थपकार से लोगों के दिलों को मोह लेती थी, उस देश प्रेमी हसीना का दिल, देश प्रेम ने इस तरह जीत लिया या कि उसने अपनी आभूषण और सुन्दरता के सभी त्याग कर एक मर्दाना बहादुर सिपाही का रूप धारण कर लिया। वह आन्दोलन के समय तोप और ‘बन्दूकों की गरज, आग के शोलों और लपटों की तपिश, जख्मियों की चीखव पुकार के बीच अपनी जान हथेली पर लिए आज़ादी की प्रथम लड़ाई में इन्किलाबियों की मदद के लिए दौड़ लगाती रही।

मौलाना फ़ज़ले-हक़ ख़ैराबादी का इतिहास क्या है ?(1797-1861)

महत्त्वपूर्ण खबर :-

कानपुर के फिरंगियों ने दहशत और खौफ की वजह से हथियार डाल दिए तथा नाना साहिब से सुलह कर ली। सुलह की शर्त के अनुसार कानपुर के अंग्रेजों को कश्तियों द्वारा इलाहाबाद पहुंचाना था, जिस की कार्यवाही शुरू कर दी गई थी.

क्योंकि बगावत लगभग पूरे हिन्दुस्तान में ही फैल चुकी थी। देशवासियों पर अंग्रेजों द्वारा मार-काट और अत्याचार की फिर से अचानक ख़बर आ गई। यह सूचना मिलते ही कानपुर के विद्रोहियों ने बदले की भावना से अंग्रेज़ों को फिर से कत्ल मिला और लूट-मार शुरू कर दी।

नाना साहिब, तात्या टोपे और अजीमुल्लाह ख़ा ने इन्किलाबियों को बहुत समझाया, रोक-थाम की कोशिशें की परन्तु विद्रोहियों के गुस्से के आगे किसी की भी नहीं चल सकी। बड़ी मुश्किल से नाना साहिब ने 140 अंग्रेज महिलाओं और बच्चों की जानें बचाई। उन सभी को “बेबी घर में सुरक्षित ठहरा दिया गया। मानवता के नाते उनके खाने-पीने की सभी सुविधाओं का भी प्रबंध किया गया। अज़ीज़न बाई को “बेबी घर की महिलाओं और बच्चों का इंचार्ज बनाया गया।

हालाकिं अब कानपुर को अंग्रेजों के कब्जे से आज़ाद करा लिया गया था। 28 जून 1857 को नाना साहिब ने दरबार में मीटिंग का एलान करवा दिया उसके बाद उस दरबार में बड़ी संख्या में क्रांतिकारी, दौलतमंद, जागीरदार और सभी तरह के लोग शामिल हुए। उस मौक़े पर बहादुर शाह ज़फ़र के नाम पर एक सौ इक्कावन तोपों की सलामी दी गई। तोपों की गरज से सम्पूर्ण वातावरण थर्रा उठा। फ़ौज ने आज़ादी के हरे झंडे को सलामी दी। साथ ही देश के महान स्वतंत्रता सेनानी नाना साहिब की भी की गई।

मौलवी लियाक़त अली क़ादरी कौन थे ?(1817-1892)

क्रांतिकारियों का साथ मिला :-

आन्दोलनकारियों की सफ़लता देखते हुए अज़ीज़न बाई, स्वतंत्रता संग्राम नी बहुत खुश थी। वह सोच रही थी कि देश की आजादी का काम तो यी की ओर बढ़ चला है। अमन होने और लड़ाई खत्म होने पर वह भी भारत की एक इज्जतदार नारी की तरह शम्सुद्दीन स्वतंत्रता सेनानी की हमेशा के लिए पत्नी बन जायेगी। उस ने भी एक सम्मानित महिला की तरह अपनी जिन्दगी जाने के लिए अपने मन में सैकड़ों सपने संजो रखे थे। वह चाहती थी कि समुदीन के नाम के साथ उसका भी नाम जुड़े और दोनों ही देश प्रेमी कहलाए|

मुलाकात की शम्सुद्दीन की बहादुरी और जंगी महारत को नज़र में रखते हुए नाना साहित्य ने उस के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों के एक दस्ते को फ़तेहपुर रवाना किया। हर आज़ादी का मतवाला अंग्रेज़ों से मुकाबले के लिए शीघ्र ही तैयार हो गया। उसने फतेहपुर रवाना होने से पहले अपनी होने वाली पत्नी अज़ीज़न से अपने सच्चे प्यार, भविष्य के जीवन साथी शम्सुद्दीन को आज़ादी की मुहिम में जाने, सफलता तथा सलामती से वापस लौटने की तमन्नाओं के साथ विदा कर दिया।

अज़ीज़न बाई और शम्सुद्दीन की सच्ची मोहब्बत:-

देश के उस बहादुर स्वतंत्रता सेनानी का वहां पहुंच कर जनरल हैवलाक ( एक अंग्रेज अधिकारी था ) की फ़िरंगी सेना से सामना हुआ। शम्सुद्दीन ने अपने दस्ते के साथ मुक़ाबला करके अंग्रेज सेना में खलबली मचा दी। उसके इस तरह बहादुरी से लड़ने पर फ़िरंगी परेशान हो गए। ऐसा लगता था कि उस आज़ादी के मतवाले ने आर-पार की लड़ाई लड़ने की ठान रखी है।

मगर शम्सुद्दीन को यह मालूम न था कि ज़ालिम फिरंगियों की गोलियां भी आज ही उसकी ज़िन्दगी का क़िस्सा खत्म करने के लिए पीछा कर रही है। हुआ भी यही कि अंग्रेज़ सेना ने मौक़ा मिलते ही भारत के लाडले, अज़ीज़न के एक मात्र प्यार, उसके कोमल मन के सहारे को क़त्ल करके हमेशा के लिए मौत की गहरी नींद सुला दिया।

कानपुर में जैसे ही यह दुख भरी ख़बर मिली तो पूरा कानपुर ग़म में डूब गया। उसी दिन यह भी मालूम कि “बेबी घर” में सुरक्षित की गई अंग्रेज महिलाएं ख़ुफ़िया तौर से अंग्रेज़ों से सम्पर्क बनाए हुए मुखबिरी कर रही हैं।

अज़ीज़न के सपनों का संसार वीरान हो चुका था। वह ग़म के गहरे समुद्र में डुब चुकी थी। उसका प्यार भरा दिल, सपनों का ताज महल बन कर रह गया था। कुछ समय बाद उसका सभी कुछ चकनाचूर हो गया। अज़ीज़न के पास अब सिवाए मातम के कुछ भी नहीं बचा था।

वह तो शम्सुद्दीन को अपने मन की पवित्र भावना के साथ अपना सुहाग मान चुकी थी। अब उसके चारों ओर दूर-दूर तक अंधेरे ही अंधेरे का पड़ाव था। अज़ीज़न साहसी थी। उसने कुछ समय बाद अपनी हिम्मत बांधी। उसके अन्दर से फ़िरंगियों के विरुद्ध बदले की आग की लपटें निकल रही थीं।

अज़ीज़न बाई के जिन्दगी का आखिरी सफ़र:-

अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अज़ीजन बाई को गिरफ्तार कर लिया गया। जनरल हैवलाक ने जब अज़ीज़न को देखा तो वह उसकी सुन्दरता का दीवाना हो गया। उसने अज़ीज़न से कहा कि वह अपने किए की माफ़ी मांग ले तो वह सिफ़ारिश कर उस की जान बचा सकता है। हैवलाक ने लालच भरी आवाज में उस से कहा कि ऐसा करने पर वह उसे अपनी बेगम भी बना सकता है।

उसे लन्दन ले जा कर सारी खुशियां और धन-दौलत उस के क़दमों में बिखेर देगा। यह सुन कर अज़ीज़न बाई के दिल में जनरल हैवलाक के खिलाफ़ नफ़रत भड़क उठी। उसने बहुत गुस्से और नफ़रत के साथ हैवलाक के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

 टीपू सुल्तान के बारे में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे

अज़ीज़न ने कहा कि यह कभी नहीं हो सकता कि मैं, ज़ालिम फ़िरंगियों से माफी माँगी फिर क्या था भारत की महिला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अज़ीज़न बाई को भी अंग्रेज़ों के ज़ालिम पंजों ने बेरहमी से कत्ल कर ज़मीन पर पटक दिया।

अज़ीज़न बाई देश प्रेम में अपने व्यवसाय की शोहरत, ऐशो-इशरत, सुख सुविधाओं वाला जीवन छोड़ कर एक वफ़ादार वीर सिपाही की तरह जंगे आज़ादी के मैदान में कूदी। उसने क्रांतिकारियों के बीच में रह कर आज़ादी के संघर्ष में उन्हें मदद दी, हौसला बढ़ाया, तथा हिम्मत दी ।

इन्किलाबियों की शहादत का बदला लेने के लिए उसने एक वीरांगना का रूप धारण किया। अंत में उसने जनरल हैवलाक के ऐश भरे जीवन का प्रस्ताव ठुकरा कर लन्दन में सुख-चैन की ज़िन्दगी गज़ारने के बजाय अपनी मादरे वतन की गोद में तड़प-तड़प कर दम तोड़ना अपनी जिन्दगी और मौत का गौरव समझा।

हिन्दुस्तान की एक महान मुसलमान महिला शहीद स्वतंत्रता सेनानी अज़ीज़न बाई के त्याग, बँलिदान और कुर्बानी की इस अमर गाथा ने भारतवर्ष और उसमें बसने वाली सभी महिलाओं का सर, सदैव के लिए गर्व और सम्मान से ऊंचा कर दिया।

FAQ

अज़ीज़न बाई का जन्म कब और कहाँ हुआ था ?

वर्ष 1833 में कानपुर की एक नर्तकी हस्न बानो गौहर के घर जन्म लिया था  

अज़ीज़न बाई की मृत्यु कब हुयी थी ?

1857

You may also like

About Us

Lorem ipsum dolor sit amet, consect etur adipiscing elit. Ut elit tellus, luctus nec ullamcorper mattis..

Feature Posts

Newsletter

Subscribe my Newsletter for new blog posts, tips & new photos. Let's stay updated!