इतिहास और वर्तमान की तुलना जो भी व्यक्ति करना चाहता है उसके लिए सबसे पहले हिंदुस्तान के इतिहास को जानना अति आवश्यक है, यह इसलिए जरूरी है जिससे उन दिनों के बारे में पता लगाया जा सकता है जब भारत देश अंग्रेजों का गुलाम था तथा भारत की स्थित क्या थी ? आज के इस लेख में महान क्रान्तिकारी डा. बरकतुल्लाह भोपाली के बारे में जानेंगे |
क्या तुम्हें याद है? उस महान व्यक्ति का नाम जिससे भोपाल की मिट्टी से क्रान्ति का ऐसा नारा दिया था, जिससे इलिस्तान की मस्ति विक्टोरिया की शाही कुर्सी के मजबूत पाये वर्ग ,क्या तुम भूल गए? उस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी देशप्रेमी और देश से दिल की गहराइयों से मुहब्बत करने वाले को जो अपने देश को आजादी दिलाने के लिए जीवन भर कई-कई देशों में भटक रहा पर यातनाएं सहता रहा और अपने जीवन के एक-एक लम्हे को देश सेवा के लिए समर्पित करता रहा |
1920 ई.का रतौना (सागर) आन्दोलन | मध्यप्रदेश का इतिहास
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- सी-सेक्सन/ Caesarean Delivery डिलिवरी के आंकड़े दिन-प्रतिदिन बढ़ते दिख रहे है, पूरी जानकरी क्या है?
- लोक सभा में अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का चुनाव तथा नियम 8 की जानकारी बहुत महत्वपूर्ण है
- लोकसभा उपसभापति/उपाध्यक्ष की भूमिका और इतिहास का वर्णन कीजिये
- भारतीय इतिहास में किलों की प्रथम खोज कब हुयी थी पूरी जानकरी देखिये |
डा.बरकतुल्लाह भोपाली का जन्म और भोपाल:-
महल की वे दीवारें, मोहल्ले की वह गलियां, मस्जिद के वे मौतार, हकीन साहिब के मकान की वह खपरैल वाली छता उस वीर सिपाही, भोपाल के उस लाडले व जोशीले सपूत, आजादी के मतवाले, उस महान स्वामी को अवश्य ही आज भी डा. बरकतुल्लाह भोपाली के नाम से ही याद रखे होंगे|
यह वही बरकतुल्लाह हैं जिनके पिता का नाम मौलवी मुहम्मद सुवाअतुल्लाह है। वह परेशानियों का शिकार होकर अपनी पत्नी के साथ बदायूँ से भोपाल का गर थे। वह मोचियों के मोहल्ला (वर्तमान मोहल्ला यूनानी शिकखाना) में किल्ये के मकान में रहे। वहां 1862 में एक ऐसे बच्चे ने जन्म लिया वो कि न केवल एक महान विद्वान, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी हुआ, बल्कि हिन्द की अस्थायी सरकार का प्रधानमंत्री भी बनाया गया। डा. बरकतुल्लाह की प्राथमिक शिक्षा भोपाल में हुई।
डा.बरकतुल्लाह भोपाली का बचपन और तालीम ( शिक्षा ):-
इन्होने भोपाल में फ़ारसी, उर्द और अंग्रेज़ी आदि भाषाओं के ख्याति प्राप्त बड़े ज्ञानियों की संगत में रहे तथा उनसे शिक्षा भी प्राप्त की। उन्होंने अरबी, फ़ारसी और उर्दू भाषाओं में महारत हासिल कर ली थी। वैसे वह सात भाषाओं के माहिर थे। हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों के नाजायज कब्जे और 1857 की पहली जंगे आज़ादी के बाद हिन्दुस्तानियों पर अत्याचारों की ख़ौफ़नाक कहानियां सुनकर बचपन से ही उनके दिल में अंग्रेज़ों से नफरत पैदा हो गई थी।
अंग्रेज हिन्दुस्तान पर कब्जा करके केवल यहां के धन-दौलत ही नहीं लूट रहे अरबी थे, बल्कि वह अपना धर्म भी जबरदस्ती गृहण करा रहे थे। हिन्दुस्तान की दूसरी रियासतों के साथ ही भोपाल रियासत में भी ईसाई मिशनरियां सक्रिय थीं, जो कि पूरे जोश के साथ बढ़-चढ़ कर अपना काम कर रही थीं। मुसलमान उलमा-ए-दीन भी इस समस्या को गंभीरता से ले रहे थे।
उस समय उलमा-ए-दीन पर दोहरी जिम्मेदारी आ पड़ी थी। एक तो आज़ादी के संघर्ष में पूरी हिस्सेदारी, दूसरे मुसलमानों को मजहबी तालीम देने के लिए मदरसों की स्थापना। मौलाना मुहम्मद कासिम नानोतवी द्वारा दारुल उलूम देवबंद को क़ायम करने के साथ ही अन्य स्थानों पर भी मदरसे क़ायम किए गए।
भारत के हालत और क्रान्तिकारियों की सोच :-
ऐसे संगीन हालात में फ़िरंगियों से मुक़ाबला करने के लिए मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली ने दूरदृष्टि और बदली हुई सूझबूझ से काम लिया। उन्होंने चालबाज़ अंग्रेजों से मुक़ाबले के लिए अंग्रेज़ी भाषा भी सीखना वक़्त की ज़रूरत समझा। उनके दिल में अंग्रेज़ों से नफ़रत और मुल्क की आज़ादी की तमन्ना ने उन्हें अंग्रेज़ी भाषा सीखने पर मजबूर कर दिया। उन्होंने इस लालच में भोपाल से मुम्बई पहुंच कर एक ईसाई मिशन के विलसन हाई स्कूल में दाखिला लिया।
उन्होंने समझदारी का सुबूत देते हुए वहां के पादरी से अपने संबंध बनाए। पादरी भी उनकी बुद्धिमत्ता से बहुत प्रभावित हुआ। बरकतुल्लाह ने उसे उर्दू पढ़ाई। ख़ुद मैट्रिक का इम्तिहान दिया, मगर अंग्रेज़ी में फेल हो गए। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। मुम्बई में ईसाइयों के साथ मेलजोल बढ़ा कर उनकी गतिविधियों का अन्दाज़ा लगाया।
डा. बरकतुल्लाह और विद्वान वकील विलियम हेनरी क्विल्लिअम:-
इसी बीच यह ख़बर फैल गई कि ब्रिटेन के एक समृद्ध परिवार से संबंधित विद्वान वकील विलियम हेनरी क्विल्लिअम (William Henry Quilliam ) ने इस्लाम धर्म कुबूल कर लिया और नाम अब्दुल्लाह रख लिया इस चर्चा ने बहुत ज़ोर पकड़ा।
डा. बरकतुल्लाह क्विल्लिअम के साथ मिलकर काम करने की बहुत इच्छा थी। बरकतुल्लाह के मन में मुम्बई में अपनी देश प्रेमी गतिविधियों के कारण मशहूर हो गए थे। उस समय अब्दुल्लाह मुम्बई के मशहूर आलिमे दीन मौलाना रियाज़ुद्दीन देहलवी लन्दन जा रहे थे।
उनकी मंशा का पता चला तो वह उन्हें भी अपने साथ लन्दन ले गए वहां पहुंच कर उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में महारत हासिल कर ली। साथ ही अपने बरकतुल्लाह उद्देश्य अपने मुल्क की अज़ादी के संघर्ष में लग गए।
डा. बरकतुल्लाह भोपाली ने इंगलिस्तान की चकाचौंध कर देने वाली धरती पर मूल पैर रखा तो वहां की दुनिया ही उन्हें अलग-थलग तथा होश उड़ा देने वाली नजर आई वह सच्चा भारतवासी वहां की भव्य इमारतों, खुशहाल फिरंगियों और जगमगाती सड़को से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुआ नीति को क होने दिया।
1880 में भारत देश के हालात:-
भारत को सोने की चिड़िया कहलाए जाने वाले इस देश की गरीबी, पिछड़ेपन होबा इंग्लैंड देश की उन्नति, खुशहाली तथा आर्थिक सम्पन्नता को देख कर उन्हें आश्चर्य होता था। वह सोचते थे कि हिन्दुस्तान से इंगलिस्तान तक एक मलिका विक्टोरिया का ही राज है, फिर हिन्दुस्तान के हालात इतने और इंगलिस्तान के हालात इतने अच्छे क्यों?
डा.बरकतुल्लाह ने यह अनुमान लगाया कि इंगलिस्तान की खुशहाली अंग्रेजी सरकार द्वारा हिन्दुस्तान की आर्थिक लूट-मार पर निर्भर करती है। जब हिन्दस्तान पर अंग्रेज शासन स्थापित हो गया तो अंग्रेजी कारखानों के मालिकों ने इस देश की सम्पन्नता का हड़पने के उद्देश्य से मशीनों द्वारा कपड़ा, हथियार बर्तन आदि बना कर हिन्दुस्तान के सम्पूर्ण उद्योग एवं व्यपार को मिट्टी में मिला दिया।
इंगलिस्तान की पार्लियामेंट ने यह कानून पास किया कि हिन्दस्तान की बनी हुई वस्तुएं जब इंगलिस्तान निर्यात होंगी तो उन पर कस्टम डियूटी 70 से 80 प्रतिशत लगाई जाएगी। इंगलिस्तान की बनी हुई वस्तुओं पर कोई कस्टम डियूटी नहीं होगी।
यदि हिन्दुस्तान सरकार खर्चा चलाने के लिए कोई कस्टम डियूटी लगाती है तो वह नाम मात्र की होगी। यही कारण है कि हिन्दुस्तान की हस्त कला तथा यहां की बनी हुई वस्तुएं विदेश में खरीदार पैदा नहीं कर सकीं। हिन्दुस्तान में ही स्वदेशी वस्तुएं महंगी और इंगलिस्तान का माल सस्ता बिकने लगा।
हिन्दुस्तान द्वारा तैयार किया गया माल और देशी वस्तुएं अंग्रेज़ सस्ते दामों में खरीद कर, विदेश में मन माने दामों में बेचते और अपने दोनों हाथों से दौलत समेट लेते थे।
नात्सीवाद और हिटलर का उदय Question Answer MCQ|QUIZ
क्रांतिकारी भावना :-
इसके अतिरिक्त हिन्दुस्तानी, अंग्रेजी सरकार तीस करोड़ रूपये प्रति वर्ष हिन्दुस्तान की विदेश पालिसी के नाम पर और बैंक आफ इंग्लैंड का कर्ज़ा सहित ब्याज़ के चुकाने के बहाने इंगलिस्तान भेज देती थी, जो कि हिन्दुस्तान की लूट का सब से बड़ा भाग अंग्रेज सरकार द्वारा इतना बड़ा आर्थिक बोझ इस देश एवं देशवाट दिया गया था जो कि देश की बर्बादी और आर्थिक स्थिति को कारण बना।
इस प्रकार हिन्दुस्तान की निर्धनता दिन प्रति दिन बढ़ती गई शासन सम्पन्न होता गया। सोने की चिडिया नामी भारत देश का मुकाबला चालाक शिकारी से हुआ था जिसने चिड़िया के बाल और पर सभी नोच डाले और उसके शरीर पर कुछ भी न छोड़ा।
इतिहास के पन्ने:-
डा. बरकतुल्लाह अपने देश हिन्दुस्तान पर ढाए गए जुल्म एवं विष् परस्थितियों के कारण बहुत चिन्तित रहते थे। उनके मन में बस एक ही बात गई थी कि सम्पूर्ण समस्याओं एवं कठिनाइयों का समाधान देश को गुलामी के आजादी दिलाना है। वह एक ऐसे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे जिन्होंने विदेशों की खाक छान कर देश को आजाद कराने की लड़ाई लड़ी। उनकी वीरता औ निर्भीकता का इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने लन्दन में रह आजादी की लड़ाई के लिए कलम उठाया।
वह अंग्रेज शासन के विरुद्ध बहन एवं बेबाकी से लिखते रहे। देशवासियों को आजादी की लड़ाई में भाग लेने के लिए प्रेरित करते रहे। उन्होंने अपनी लेखनी से पूरे ब्रिटेन में शोहरत हासिल की उनके दिल में वतन की आजादी का ज्वालामुखी सदैव दहकता रहता था।
इस कारण उन्होंने अपने देश में आज़ादी का आन्दोलन चलाने की जिम्मेदारी अन्य स्वतन्त्रता सेनानियों के हवाले कर स्वयं विदेशों में आजादी का माहौल बनाया। ब्रिटिश शासन के खिलाफ बोलने और लिखने में वह कभी पीछे नहीं रहीं 1997 में एक बलसे में उन्होंने हिन्दुस्तान पर कब्जा जमाए रखने के विरूद्ध ब्रिटिश शासन के खिलाफ ऐसी तक़रीर की कि शासन बौखला गया।
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के बाद अंग्रेज शासन द्वारा क्रांतिकारियों पर ढाए गए जुल्म व सितम्, चलाए गए दमन चक्र, कत्ले आम, अंग्रेज़ों द्वारा लूट-मार और अन्याय के विरुद्ध जोशीली तक़रीर कर ब्रिटिश शासन और उस के खुफिया तन्त्र को हिला कर रख दिया। यहाँ तक कि ब्रिटिश शासन ने उनकी तकरीर पर कड़ा नोटिस लिया और उन्हें ब्रिटेन छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
विद्वान मुहम्मद अलेगज़ेंडर रसल वेब (1846-1916) (धर्मान्तिरित मुस्लिम सन् 1888):-
बचपन से बुढ़ापे तक सब कुछ ही देश की आज़ादी पर निछावर करने के जज्बे से वह विदेशों की कठिन राहों पर निकल पड़े थे। डाक्टर साहिब आज़ादी की और के ऐसे माहिर सेनापति थे जिनकी जंग का मैदान हिन्दुस्तान से लेकर ब्रिटेन अमरीका, जापान, चीन, रूस, जर्मनी, अफ़्ग़ानिस्तान और तुकी आदि देशों तक फैला हुआ था। उन्होंने ब्रिटेन में तहलका मचाने के बाद अमेरिका का रुख किया।
स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी की हैसियत से उनकी शोहरत लगभग पूरी दनिया में ही हो चुकी थी। अधिकांश मुल्कों में उनके जज्बे की क़दर करने वाले एवं उनकी योग्यता से प्रभावित होने वाले मौजूद थे। जब वह अमेरिका पहुंचे तो वहां के जाने माने विद्वान मुहम्मद अलेगज़ेंडर रसल वेब (1846-1916) (धर्मान्तिरित मुस्लिम सन् 1888) ने ख़ुशी से उन्हें अपने साथ ले लिया। डाक्टर साहिब ने उनके साथ मिल कर देश की आज़ादी की मुहिम अमरीका में भी आरम्भ कर दी। हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने यहां एक अमेरिकन मैगजीन “दि फ्रेंड का सहारा लिया।
वह भारतवासियों पर ब्रिटेन के अत्याचार के खिलाफ बहुत जोशीले लेख लिखते थे। ताकि अमरीका में भी ब्रिटेन के ख़िलाफ़ माहौल बन सके और ब्रिटेन पर बाहरी दबाव बढ़े। उन्होंने अपनी लेखनी और भाषणों से पश्चिमी देशों में हिन्दस्तान के पक्ष में और ब्रिटेन के खिलाफ माहौल निर्मित कर दिया। इसी कारण ब्रिटिश शासन डाक्टर साहिब की गतिविधियों से घबराया रहता था। उन्होंने हिन्दुस्तान के मुसलमानों और हिन्दुओं को एक जुटता के साथ अंग्रेज शासन का तख़्ता पलट कर देश को आज़ाद कराने का संदेश दिया।
मौलाना महमूद हसन:-
वह अमरीका में रह कर पूरी व्यस्तता के साथ आज़ादी के संघर्ष को जारी रखे हुए थे। इसी बीच मौलाना महमूद हसन (शैखुल-हिन्द) ने क्रांतिकारी तहरीक का पैग़ाम जापान ले जाने की जिम्मेदारी डा. बरकतुल्लाह को सौंप दी। वह आज़ादी के ऐसे मतवाले थे कि आज़ादी की मशाल लिए हुए किसी भी देश जाने में संकोच नहीं करते थे।
इसके बाद वह जापान पहुच गए, वहां भी उन्होंने हिन्दस्तान को आज़ादी दिलाने की योजनाएं बना कर संघर्ष शुरू कर दिया। वहां उन्हें टोक्यो विश्वविद्यालय में उर्द का प्रोफ़ेसर बना दिया गया। उनका तो विदेशों में रह कर असल मिशन अपने मुल्क की आज़ादी के लिए संघर्ष करना था, जिसे उन्होंने जीवन में हर लम्हा याद रखा। उन्होंने अपने मन की चिन्ता और भावना से आगाह करने के लिए “इस्लामिक फ्रेटरनिटी” के नाम से जापानी और अंग्रेज़ी भाषा में अख़बार निकाला।
उस अख़बार के माध्यम से वह फ़िरंगियों द्वारा किए जा रहे अत्याचार, लूट-खसोट के संबंध में कड़े एवं स्पष्ट शब्दों में लिखते रहे। साथ ही अपने देशवासियों को भी आज़ादी के संघर्ष में तेज़ी लाने के लिए आह्वान किया। उनका अख़बार पढ़ कर बड़ी संख्या में जापानी उनसे प्रभावित होने लगे थे, एवं उनके संघर्ष का भी समर्थन करने लगे थे।
मौलाना बरकतुल्लाह के अखबारों, मैगज़ीनों और लेखों के कारण जापान, चीन, इंडोनेशिया, मलाया (वर्तमान मलेशिया) आदि कई देशों में हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए सहमति बनी एवं माहौल निर्मित हुआ। जापान में भी इसी उद्देश्य के लिए मौलाना बरकतुल्लाह के साथ मुसलमान, हिन्दू, सिख, बंगाली सभी शामिल हो गए थे।
डाक्टर साहिब की क्रांतिकारी गतिविधियों को देख ब्रिटेन ने जापान पर दबाव डाला। जापान के शाह ने मजबूर हो कर उनकी गतिविधियों पर पाबन्दी लगा दी। मगर वह तो अपने मिशन के बगैर रह ही नहीं सकते थे।
इतिहास की महत्वपूर्ण कहानियां जो इतिहास में सम्मलित नहीं की गयी :-
डा. बरकतुल्लाह की बेचैनी उन्हें जापान ले पहुंची। वहां पहुंच कर उन्होंने “अल इस्लाम” नामक समाचार पत्र प्रकाशित किया। जिस में स्वतन्त्रता प्राप्ति के संपर्क में जोशीले लेख लिखे जाते। उस समाचार पत्र की प्रतियां भारत एवं विदेशों में भी बांटी जाती।
समाचार पत्र द्वारा बरकतुल्लाह मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में और भी अधिक बढ़-चढ़ कर भाग लेने की प्रेरणा देते थे। डा. साहिब ने न्यूयार्क, टोकियो, जियोरस, काबुल और मास्को में रह कर देश की आज़ादी के लिए बहुत ही सफल संघर्ष किये। अल इस्लाम में प्रकाशित किये जाने वाले जोशीले और बात भड़काने वाले लेखों के कारण बरकतुल्लाह, की आंखों में खटकने लगे। अंग्रेज शासन ने जापान सरकार पर उन्हें बन्दी बनाने वा देश से निष्कासित कर देने के लिए दबाव डाला।
अंग्रेज़ सरकार उनके द्वारा निकाले जाने वाले अखबार मैगज़ीन या लेखों पर शासन की ओर से नजर रखी जाती थी। विशेष रूप से ब्रिटिश शासन उनकी लेखनी और तकरीरों पर पैनी निगाह रखता था। उनका इस्लामिक फ्रेटरनिटी बेबाक अखबार था जो कि ब्रिटिश शासन की निगाहों में बहुत खटकता था। उस अखबार को ढके अन्दाज में उन्होंने हिन्दुस्तान भी भेजा। डाक्टर साहिब ने अपने अखबार को हिन्दुस्तान भेजने के लिए नया तरीका अपनाया।
जापानी जतों के पार्सल के अन्दर अख़बार की कापियां रख दी जातीं। वह पार्सल किसी हिन्दुस्तानी दोस्त के पते पर भेज दिया जाता था अखबार की कापियां प्राप्त होने पर वह ख़ामोशी से बांट दी। जाती थीं, जिन्हें पढ़ कर लोगों के अन्दर आज़ादी के जोश में नई ताक़त और हिम्मत पैदा होती थी। कुछ समय तक तो यह सिलसिला चलता रहा, लेकिन ब्रिटिश शासन की खुफिया पुलिस को इस मुहिम का भी पता चल गया।
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इन्किलाबी पार्टी का गठन :-
शासन ने इसके खिलाफ कार्यवाही कर ऐसी गतिविधियों पर पाबन्दी लगा दी | डा. बरकतुल्लाह की गतिविधियों के कारण जापान में भी एक इन्किलाबी पार्टी बन गई थी। जिस में उनके क़रीबी साथी मथुरा सिंह और भगवान सिंह थे।
जापान हुकूमत के मजबूर करने पर बरकतुल्लाह को जापान छोड़ना ही था। मौलाना महमूद हसन भी देश को आजाद कराने के संघर्ष में जी जान से लगे मुजाहिदीन का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने आज़ादी के कुछ मतवालों को पहले से ही टॉस भेज रखा था। जिन में स्वतन्त्रता सेनानी चौधरी रहमत अली ने इस संघर्ष में खुल कर हिस्सा लिया। उन्होंने पेरिस में हिन्दुस्तान की आज़ादी का माहौल बनाने के लिए फ्रेंच भाषा में ‘अल इन्किलाब” नाम से अखबार प्रकाशित किया।
क्योंकि उसकी लेखनी ऐसी नहीं थी जो पाठकों की भावनाओं को उभार सके हिन्द ने डा. बरकतुल्लाह को जापान से फ्रांस पहुंच कर ‘अलकिलाब सक्रिय करने का मशवरा दिया। क्योंकि वह फ्रेंच भाषा में भी महारत रखते थे, उन्होंने अखबार का सम्पादकीय तथा अन्य जोशीले लेख लिख कर अखबार को चमका दिया। डाक्टर साहिब को अपने देश से दिल्ली लगाव था। उस पर मंडराती हुई परेशानियों से वह परेशान रहा करते थे। उनकी लेखनी और तकरीरे उनके जज्बात का आईना हुआ करती थीं।
जिन्हें पढ़ कर या सुन कर लोग प्रभावित हुए बगैर नहीं रहते थे। उनकी निडर और बेबाक लेखनी ने पेरिस को भी आज़ादी की तहरीक का एक ठिकाना बना दिया था। इस प्रकार फ्रांस में भी अंग्रेज़ों के खिलाफ प्रचार शुरू हो गया। देश प्रेमी आज़ादी के मतवाले किसी भी देश में रहे हो, परन्तु उन्होंने अपने मिशन को सामने रख कर ही काम किया।
बरकतुल्लाह, लाला हरदयाल और कृष्णजी वर्मा का कैलिफ़ोर्निया में ‘इंडियन एसोसिएशन आफ पैसेफिक कोस्ट” की स्थापना:-
डा. बरकतुल्लाह, लाला हरदयाल और कृष्णजी वर्मा आज़ादी के मतवालों द्वारा विश्वयुद्ध से पहले कैलिफ़ोर्निया के एक जलसे में ‘इंडियन एसोसिएशन आफ पैसेफिक कोस्ट” की स्थापना की गई। बाद में यह ग़दर पार्टी नाम से मशहूर हुई।
गदर पार्टी का असल मक़सद ब्रिटिश शासन का तख्ता पलटना और उसके स्थान पर एक धर्मनिरपेक्ष शासन कायम करना था। इस पार्टी का जाल बिछाने के लिए बरकतुल्लाह, लाला हरदयाल ने परमानन्द के साथ अमरीका और कनाडा के दौर किए। वहां हज़ारों की संख्या में रह रहे भारतवासियों को अपने मुल्क की आज़ादी के लिए जागरूक किया। इसी सिलसिले में अखबार सदर में एक लेख प्रकाशित किया गया, जिसमें विदेश में रह रहे हिन्दुस्तानियों के बीच यह प्रचार किया गया कि वापस हिन्दुस्तान जाओ,
फिरंगियों के खिलाफ़ ग़दर मचा कर डर फैलाओ तथा अंग्रेज़ों को इतना डराओ और धमकाओ कि वे डर के कारण हिन्दुस्तान छोड़ कर भाग निकलें। इस समय बहादुर हिन्दुस्तानियों की जरूरत है। उठौ बहादुरो जल्दी करो। टैक्स देना बन्द कर दो।”
गदर पार्टी का इन्किलाबी आह्वान:-
गदर पार्टी के इस इन्किलाबी आह्वान के कारण ब्रिटिश शासन बौखला उठा। उसने ग़दर पार्टी पर पाबन्दी लगाने के लिए अमरीका पर दबाव डाला। अमरीका ने पार्टी के महत्वपूर्ण सदस्य लाला हरदयाल को गिरफ्तार कर लिया तथा पार्टी पर पाबन्दी लगा दी।
हालांकि स्वतन्त्रता सेनानियों का गिरफ़्तार होना, उनकी गतिविधियों पर पाबन्दी लगना अथवा उनका जिला-वतन कर दिया जाना कोई नई बात नहीं थी। डा. बरकतुल्लाह भोपाली एक ऐसे लौह पुरुष, आज़ादी के मतवाले सेनानी थे कि उन्होंने इस पर भी हार नहीं मानी। वह अपना मिशन लिए हुए तुर्की पहुंच गए। वहां से अपने साथियों के साथ जर्मनी रवाना हो गए। जर्मनी में निम्नलिखित स्वतन्त्रता सेनानी आपसी सोच-विचार तथा अगली रणनीति बनाने के लिए जमा हो गए-
डा. बरकतुल्लाह भोपाली, राजा महेन्द्र प्रताप, चम्पक रमन पिल्लै, वीरेन्द्रनाथचट चट्टोपाध्याय, डा. प्रभाकर, डा. हफ़ीज़, त्रिमूल आचार्य, डा. ए. मसूरी, खरी नाम्स पासी, डा. तारकनाथ दास, चन्द्रा कुमार चक्रवर्ती एवं हरेन्द्र नाथ गुप्ता आदि। यहां बरकतुल्लाह की मुलाक़ात राजा महेन्द्र प्रताप से हुई। दोनों में आपस में इतना मेल-जोल बढ़ गया कि फिर जीवन भर वह साथ नहीं छूटा।
डा. बरकतुल्लाह भोपाली, की जिन्दगी का आखिरी सफ़र :-
बरकतुल्लाह और उनके इन्किलाबी साथियों की मेहनत और परिश्रम से हिन्दस्तान को ब्रिटिश शासन से मुक्ति दिलाने का विदेशों में भी माहौल बन चुका था। हिमायती देश इस आन्दोलन में सहयोग भी करने लगे थे। लम्बे समय के कड़े संघर्ष के बाद बरकतुल्लाह और उनकी ग़दर पार्टी ने फ़िरंगियों से आर-पार की लड़ाई के लिए 29 अक्टूबर 1915 को एक बैठक बुलाई। उस बैठक में हिन्दुस्तान का पहला आज़ाद समानान्तर शासन स्थापित करने का निर्णय लिया गया।
इस में राजा महेन्द्र प्रताप को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। पहली दिसम्बर 1915 को प्रावधिक शासन की घोषण कर दी गई। उस के निर्णय पर राजा महेन्द्र प्रताप के अध्यक्ष की हैसियत से हस्ताक्षर किए गए। इस में डा. बरकतुल्लाह को प्रधान मंत्री, मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी को गृह मंत्री, मुहम्मद बशीर को वज़ीरे जंग बनाया गया। इस शासन ने 1920 तक स्थापित रह कर अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखा।
अफ़ग़ानिस्तान के अमीर हबीबुल्लाह ख़ां के असहयोग के कारण, प्रावधिक शासन को उस समय सफलता नहीं मिल सकी। हबीबुल्लाह के क़त्ल के बाद अफ़ग़ानिस्तान के अमीर अमानुल्लाह ख़ां हुए। उन्होंने मौलाना सिन्धी और बरकतुल्लाह दोनों से चर्चा की। इसी के साथ हिन्दुस्तानी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कार्यवाही के लिए डा. बरकतुल्लाह रूस गए। उन्होंने मास्को पहुंच कर कामरेड लेनिन से मुलाक़ात कर अपने मिशन की सफलता के लिए लेनिन से रूसी भाषा में बात की।
इतिहास हमेसा याद रखेगा :-
कामरेड लेनिन उनसे मिल कर बहुत प्रभावित हुआ। उनको और उनके साथियों को सरकारी मेहमान रखा। डाक्टर साहिब को उम्मीद थी कि कामरेड उनके मिशन की कामयाबी के लिए उनकी मदद करेंगे। इधर अमीर अमानुल्लाह ख़ां ने कुछ जल्दबाज़ी से काम लिया। उन्होंने बरकतुल्लाह के प्रतिनिधि मंडल के रूस से लौटने से पहले ही हिन्दुस्तान की ब्रिटिश सरकार पर हमला कर दिया और असफल हो गए। अमीर अमानुल्लाह की जल्द बाज़ी के कारण डा. बरकतुल्लाह की उम्मीदों पर पानी फिर गया।
वह दुखी होकर बजाए अफ़ग़ानिस्तान के बर्लिन चले गए। अपने जीवन का अधिकांश समय आजादी की राह में निछावर करने के बाद भी वह सच्चे स्वतन्त्रता सेनानी थक कर नहीं बैठा वह वतन की आजादी के लिए एक माहिर तलवार बाज़ की तरह अपना कलम और अपनी जबान चलाते रहे।
वह जगह-जगह देश की आजादी की आवाजे रुमाते रहो हिन्द और मुसलमानों को ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने के लिए उकसा रहे बरकतुल्लाह चाहते थे कि उनके जीवन का अंतिम समय भी देश की आजादी के संघर्ष में गुजरे। वह अपने मिशन के तहत एक कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिए स्वीजरलैंड गए। वहां उनकी मुलाकात हकीम अजमल खां, डा, मुख्तार अहमद अंसारी और पंडित जवाहरलाल नेहरू से हुई। वहीं सभी हिन्दुस्तानी नेताओं ने आज़ादी के आन्दोलन के लिए उनके साथ सोच-विचार किया।
27 सितम्बर 1927 की ख़ौफ़नाक अंधेरी रात:-
उनके अथक प्रयासों के बाद भी उन्हें अपने जीवन में यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका। भारत का लाडला भारत की धरती पर अपने जीवन की अंतिम सांसें भी नहीं ले सका। अंततः 27 सितम्बर 1927 की ख़ौफ़नाक अंधेरी रात में एकदम ऐसी तेज़ आंधी चली जिसने भारत मां की गोद से उसके होनहार, लाडले सपूत को सदैव के लिए छीन लिया। उस बीर स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी ने अमरीका की धरती से ही अपने देशवासियों को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
उनकी आखिरी रस्मों में हिन्दू, मुसलमान और सिख बराबर के भागीदार थे। सब ने ही अपने गमगीन दिलों की सिसकियों और पुरनम आंखों के साथ अपने- अपने धार्मिक तरीक़ों से उनकी आत्मा की शांति के लिए दुआएं कीं। मौलवी समत अली, डा. सय्यिद हुसैन, डा. औरंग शाह तथा राजा महेन्द्र प्रताप ने उन्हें एक मुस्लिम कब्रिस्तान में यह कहते हुए दफन किया कि “हिन्दुस्तान आज़ाद हो||
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