जब हिंदुस्तान को आजादी मिली , उस समय कुछ संगठन अपने आप को आजादी की भूमिका में सबसे उपर बता रहे थे तो कुछ संगठन उनका विरोध कर रहे थे, इसी तरह , एक समाज कहता है कि उसके दादा- परदादा ने आजादी में अहम भूमिका निभाई तो दूसरा समाज यह कहता है, कि हमारे दादा- परदादों ने आजादी में अहम भूमिका निभाई है, आज मौलवी लियाक़त अली क़ादरी के बारे में जानेंगे
जब हम रिसर्च करेंगे तो सच का पता अलग से लगेगा, कितने हिन्दुओं- मुस्लिमों- सिखों और ईसाईयों ने हिंदुस्तान की आजादी के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया उसको गिनना बहुत मुस्किल है|
मौलवी लियाक़त अली क़ादरी का जन्म और बचपन:-
इनका जन्म ज़िला इलाहाबाद ( जो अब उत्तर प्रदेश का एक जिला है ) के परगना चाइल के ग्राम मेहगांव में 15 अक्टूबर 1817 को सय्यिद मीर अली और आमना बीबी के घर पैदा हुए थे यह एक बड़े मज़हबी बुज़ुर्ग की हैसियत रखते थे। उस वक्त अग्रेजों का कहर भारत के हर नागरिक के उपर था जो आज़ादी और मज़हबी आज़ादी के लिए लड़ रहे थे यही कारण है कि बहुत बड़ी संख्या में उलमा-ए-दीन ने जंगे आज़ादी में हिस्सा लेकर शहादत का मज़ा लिया।
इन्होने अपने बचपन से ही अपने क्षेत्र की आम जनता की तकलीफ़ों से जुड़े हुए एक सामान्य व्यक्ति थे और वह अच्छी तरह समझते थे कि अंग्रेज़ों की गुलामी के कारण अवाम को कितनी तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
कहते है कि उनके पास जहां मज़हबी इल्म की रोशनी थी, उनके दिल में गुलामी से छुटकारा पाने का जज़्बा भी ज़ोर मारता रहता था और ख़ुद भी दीनदारी की ज़िन्दगी गुज़ारते थे और दूसरे लोगों को भी ईमान, सच्चाई, एक दूसरे के दुख-दर्द में काम आने और मदद करने की सलाह देते रहते थे।
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मौलवी लियाक़त अली क़ादरी की जवानी और आन्दोलन:-
सन् 1857 के स्वतन्त्रता संघर्ष और क्रान्ति की कोशिश में अपने क्षेत्र के क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। उनकी वीरता और संघर्ष के कारण इलाहाबाद ज़िले से अंग्रेज़ बेदखल कर दिये गए थे तथा उससे लगे हुए दूर-दूर के इलाकों में उनका इतना असर था कि उनके नाम से अंग्रेज़ घबराते थे।
मौलवी लियाकत अली का सेना से सम्बन्ध:-
यह खुद भी कुछ समय सेना में रहे थे इस कारण वह सैनिक गतिविधियों को अच्छी तरह जानते व समझते थे रिसर्च बताते है जब मौलवी साहब सेना में थे तो वहां भी अपने देश भारत से वफ़ादारी और देश की आज़ादी के संबंध में सैनिकों में चर्चा किया करते थे।
ब्रिटिश शासन को उनकी देश प्रेम की बातें नहीं भाती थीं इसीलिए सरकार द्रोही बातें मानते थे इसी कारण उनकी सेना की नौकरी खत्म हो गई।
मौलवी लियाकत अली और इलाहाबाद का खास रिश्ता:-
इलाहाबाद में भी शहंशाह अकबर ने एक संगीन किला निर्माण करवाया था, जो कि वक्त और हालात में तबदीली की वजह से अंग्रेज़ों के कब्जे में चला गया था। उन्होंने वहां अपनी फ़ौजी छावनी कायम कर ली थी।
उसमें गोला-बारूद व जंग के दूसरे हथियारों का जखीरा इकट्ठा कर रखा था तथा इलाहाबाद में अंग्रेज सेना की छटी रेजीमेंट को तैनात किया गया था। उस रेजीमेंट के देशी सिपाही अंग्रेज शासन से असंतुष्ट थे। उनकी भी चाहत यही थी कि अंग्रेज़ भारत देश से अपना कब्जा हटाएं।
देश के दूसरे क्रांतिकारी अपने स्तर से विभिन्न स्थानों पर आन्दोलन चलाते रहते थेो प्रत्येक आन्दोलन को कुचलने के लिए अंग्रेज अपनी दमनकारी नीति के तहत सख्त कार्यवाही करते थे।
अधिकांशतः शासन का पलड़ा भारी रहता था, लेकिन आन्दोलनकारी भी अपनी एकजुटता के कारण फ़िरंगी शासन को भारी नुकसान पहुंचाते रहते वो इलाहाबाद में मेरठ और दिल्ली के विद्रोह की ख़बरें पहुँचीं तो इलाहाबाद के सरफ़रोश भी अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ बगावत की योजना तैयार करने लगे
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मौलवी लियाकत अली और छठी रेजीमेंट:-
छठी रेजीमेंट के सिपाहियों ने इन्किलाबियों का सफाया करने के बहाने अंग्रेजों से दिल्ली जाने की मांग रख दी। अब तो फिरंगियों को उनकी वफ़ादारी पर और भी भरोसा जम गया। जब कि वह देसी सिपाही बगावत के लिए अपने नेताओं के इशारे का इन्तिज़ार कर रहे थे।
यहां तक कि 6 जून की रात को बग़ावत का एलान सुनते ही छटी रेजीमेंट के सैनिकों ने चालबाज़ अंग्रेज़ों पर धावा बोल कर उनकी चालाकी को मिट्टी में मिला दिया। उनके बंगलों को आग लगा दी गयी। सरकारी सम्पत्ति की खूब तोड़ फोड़ की गई। अंग्रेज़ चारों ओर के हालात देख कर दहशत में आ गये। वह अपनी जानें बचाने के लिए इधर-उधर छिपते फिर रहे थे।
मार-काट लूटपाट और आगजनी के बाद इलाहाबाद, देसी सेना अर्थात् विद्राहियों के क में आ गया। उधर स्वतंत्रता सेनानी मौलवी लियाकत अली अपने मुरीदों (अनुवादियों) की बड़ी संख्या के साथ स्वतन्त्रता के संघर्ष में अंग्रेजों के खिलाफ कूद पड़ी उन्होंने इस पर अंग्रेजों के खिलाफ़ जिहाद का एलान कर दिया।
फिर क्या था, हजारों की संख्या में लोग मैदान में कूद पड़े और सभी ने मौलवी लियाकत अली को अपना लीडर मानकर उनके नेतृत्व में इलाहाबाद को अंग्रेजों से खाली करा दिया। मौलवी अली ने इलाहाबाद की कमान संभाल कर हिन्दुओं और मुसलमानों को एकता का संदेश दिया।
उन्होंने उनसे अपने अपने धर्मों की रक्षा करने के लिए। आजाद हुकूमत का एलान कर दिया गया। वहाँ बहादुरशाह ज़फ़र का हरा झण्डा दिया गया।
फिरंगी भारत देश पर क़ब्ज़ा करके केवल इस देश के धन-दौलत की ही लूट नहीं कर रहे थे, वह भारतवासियों पर जुल्म व सितम ढाने में भी कोई कम्मर नहीं छोड़ते थे। बात इस पर ही नहीं धमी हुई थी, बल्कि ईसाई मिशनरियां यहां की आस्थाओं और धर्मों पर भी लगातार प्रहार करती रहती थीं।
मौलवी लियाकत अली आन्दोलन में सक्रियता:-
7 जून 1857 को खुसरू बाग़ में एक विशाल आम सभा का आयोजन किया जिसमें बड़ी संख्या में देश प्रेमी मुसलमान हिन्दू इकट्ठा हुए तथा उस सभा में मौलवी साहिब ने बहुत ही जोशीला भाषण दिया तथा अपनी तकरीर में उन्होंने कहा कि जो लोग इस प्रकार के अत्याचार, लूट-पाट, आगजनी और यहां तक कि पवित्र क़ुरआन की बेइज्जती कर रहे हैं, उन्हें बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जायगा।
मौलवी साहब आगे कहते है अब मुसलमानों के लिए यह जरूरी है कि वे ऐसे पापियों के खिलाफ़ जिहाद शुरू कर उनकी जोशीली तकरीर सुन कर सभी के दिल गर्मा गए तथा 9 जून 1857 से एक सप्ताह तक अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन चलाया गया उसमें अंग्रेज़ों के बंगलों को जलाया गया तथा उन्हें जानी नुकसान भी पहुंचाने के प्रयास किए गए। सरकारी सम्पत्ति का भी नुकसान किया गया। इन्किलाबियों की इस लूट मार से अंग्रेज़ों में बहुत दहशत फैल गई।
हालांकि बाद में अंग्रेज़ शासन द्वारा भी बहुत गोलाबारी की गई। बदले की भावना में आगजनी भी की गई। इतना जुल्म ढाया गया कि पूरी पूरी बस्तियों को ही उजाड़ डाला गया। फिरगियों द्वारा बाए गए जुल्म के कारण वहां के निवासियों को छोड़कर भागना पड़ा।
इतिहास के पन्ने:-
मौलवी साहिब भी इलाहाबाद से पलायन पुर पहुंच गए वहाँ मौलवी साहिब साम्प्रदायिक नहीं थे ईसाई मिशनरियों खामोशी से अंग्रेजों ताकत के घमंड में यहां के धर्मों और धार्मिक ग्रंथों का अपमान करने के कारण वह ईसाइयों से दुश्मनी रखते थे। वह हिन्दू मुसलमान एकता और आपसी समझते थे मौलवी लियाकत अली जहां भी रहे उन्होंने अपनी क्रांतिक गतिविधियों को बन्द नहीं किया।
वह हालात देखते हुए विरुद्ध अपना मिशन चलाते रहे। उन्हें जहां भी जैसा मौक़ा मिलता, अंग्रेजों को नुकसान पहुंचाए बगैर नहीं रहते थे। न तो वह अंग्रेज़ों की हत्या करवाने से चूकते है। और न ही दीगर नुकसान करने में देर लगाते थे। उनकी इन ख़ुफ़िया गतिविधियों है। कारण अंग्रेज, उनकी महिलाएं और बच्चे सभी उनके नाम से डरने लगे थे।
मौलवी लियाकत अली धार्मिक व्यक्ति की प्रवृत्ति के होते हुए भी अपने दे एवं धर्म की खातिर हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार रहते। उन्होंने न तो कभी अपनी जान की परवाह की और न वह किसी भी नुक़सान से डरे। उनकी इन्किलाबी कार्यवाहियों के पीछे बस एक ही मक़सद रहता था कि देश आज़ाद हो फिरंगियों का नापाक साया इस देश की पवित्र धरती पर से हटे।
इलाहाबाद उन्होंने एक समय तीन हज़ार विद्रोहियों एवं लेफ्टिनेंट हावर्ड से छीनी हुई दो तो से अंग्रेजों पर हमला बोल कर लड़ाई की। उसमें भी दोनों पक्षों को नुकसान उठान पड़ा। भारतवासियों के आन्दोलनों और फ़िरंगियों से जगह-जगह मुठभेड़ होती रह से फिरंगियों को भारत में जमे रहना इतना आसान नहीं लगता था।
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मौलवी लियाक़त अली के आखिरी पल और जेल की जिन्दगी:-
इन्होने जीवन भर देश के लिए संघर्ष करते रहने की ठान रखी थी। इलाहाबाद से वह, महान मुजाहिदे-आज़ादी नाना साहिब के पास चले गए और उनकी सेना में शामिल हो गए।
नाना साहिब की सेना पर भी मौलवी साहिब के ही आदेश चलते थे। उनकी अनुमति के बग़ैर कोई भी अंग्रेज छोड़ा नहीं जा सकता था।कुछ समय बाद वह नाना साहिब के पास से एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी अजीमुल्लाह के साथ गुजरात की ओर पैदल यात्रा पर रवाना हो गए। रास्ते में उन्हें कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वह सभी परेशानियों का मुक़ाबला करते हुए गुजरात पहुंच गए। वहां उन्होंने अंग्रेज़ो के विरुद्ध गोरिल्ला लड़ाई छेड़ दी। उन्होंने कई वर्षों तक इस तरह से लड़ाई लड़ कर अंग्रेज़ों को बड़ी परेशानी में डाले रखा।
अंग्रेज़ शासन ने तंग आकर मौलवी साहिब की गिरफ्तारी पर इनाम का एलान करा दिया। स्वतंत्रता सेनानियों की नज़रों में मौलवी लियाकत साहिब की हैसियत बहुत ऊंची हो चुकी थी।
इसी बीच उन्हें क्रांतिकारियों की एक खुफिया मीटिंग में मुम्बई जाना था। जब वह रेल यात्रा द्वारा मुम्बई के लिए रवाना हुए तो उनके एक करीबी दोस्त ने इनाम के लालच में मौलवी साहिब की मुखबिरी कर दी। इस कारण वह मुम्बई पहुंचते ही 16 जुलाई 1872 को फ़िरंगी पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए।
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महत्वपूर्ण समय :-
मौलवी लियाकत अली ने तीन मौकों पर अंग्रेज़ों के साथ युद्ध किया। समाचार हिन्दू पेट्रिया दिनांक 22 जुलाई 1858 में उल्लेख है कि जुलाई 1858 में जबकि मौलवी शक्ति सम्पन्न थे, इलाहाबाद में नदी के दूसरे किनारे अपने कुछ हजार साथियों सहित रुके हुए थे। उनका प्रधान कार्यालय सोराब में था, जिस पर उस समय तक आक्रमण नहीं किया गया था। इस प्रकार मौलवी साहिब देश को आजाद कराने के प्रयासों में लगे रहते थे।
उनके वफ़ादार सैनिक साथी सभी तरह के कष्ट उठाते हुए भी उनका साथ नहीं छोड़ते थे। उन सभी का लक्ष्य देश की स्वाधीनता और फ़िरंगियों को देश के बाहर करना था। मुल्क के अलग-अलग सूबों में आज़ादी के मतवाले अपनी जानें हथेलियों पर लिए हुए संघर्ष कर रहे थे।
मौलवी लियाकत अली जहां भी रहते अपनी इन्किलाबी कार्यवाहियों को जारी रखते थे। उसके बग़ैर तो उनका जीवन ही। अधूरा था। इन्ही गतिविधियों के आरोप में उन्हें मुखबिरी के अधार पर मुम्बई से गिरफ्तार किया गया। उनके विरुद्ध फ़िरंगी अदालत में बगावत का मुक़द्दमा चलाया गया।
तमाम परेशानियों को झेलने के आदी थे उन्होंने तो अपने जीने का मक़सद ही देश सेवा बना रखा था। देश की आज़ादी का वह वीर सिपहसालार न तो अपनी गिरफ्तारी से भयभीत हुआ और न अदालत में हाजिर होने से डरा।
अदालत में भी उन पर एक आज़माइश का वक़्त आया। मुक़द्दमे के दौरान उनसे कहा गया कि अगर वह अपने किए हुए की माफ़ी मांग लें और ब्रिटिश शासन से वफ़ादारी करने का इकरार कर लें तो उन्हें मुकदमें से रिहाई मिल सकती है। उस देश प्रेमी ने फ़िरंगी सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी के बारे में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे
मौलवी लियाक़त अली का भारत के युवाओं को सन्देश:-
मैंने प्रण किया है कि आखिरी सांस तक फ़िरंगी काफ़िरों से जिहाद जारी रखूंगा। झूठ बोल कर माफ़ी तो मिल सकती है, लेकिन इस तरह मैं अपने ज़मीर (अन्तरातमा) से बग़ावत नहीं कर सकता।” फिरंगी अदालत उस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का जवाब सुन कर हैरान रह गई। मौलवी साहिब के उस वीरता के बयान से भारत देश के सभी बहादुर सपूतों के सर ऊंचे हो गए। आख़िरकार मौलवी लियाक़त अली को इलाहाबाद अदालत काले पानी की सज़ा सुना दी।
देश का वह बहादुर सपूत जेल की कठिनाइयों को सहता हुआ 17 मई 1892 को अपने प्यारे वतन और दनिया को अलविदा कह गया। मौलवी लियाक़त क़ादरी की देश की आज़ादी के लिए दी गई कुर्बानियों को वर्तमान में याद रख जाना चाहिए
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बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर केंद्र सरकार ने चुप्पी साध ली है इसके पीछे का कारण वहां की राजनीति को बताया गया है यदि…
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यह केस अक्सर उन लोगों/घरों में देखा जाता है जिस घर में कोई महिला प्रेग्नेंट/प्रसव होती है तथा यह एक सामाजिक मुद्दा (Social issue ) भी है हाल ही में…
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15 अक्टूबर 1817
सय्यिद मीर अली
17 मई 1892
आमना बीबी