1857 की स्वतंत्रता आंदोलन से पहले की एक बड़ी क्रांति हुयी जिसे हूल क्रांति का नाम दिया गया था, झारखंड की आजादी में सिदो कान्हू , चांद भैरव तथा फूलो झानो की याद में आज भी हूल दिवस आज भी मनाया जाता है, वर्तमान में आये दिन स्कूलों, सरकारी नौकरी की परीक्षाओं में यहां से कुछ न कुछ जरूर पूंछा जाता है इसलिए इस लेख में निबंध तथा चर्चा करेंगे कि आखिर यह दिवस क्यों मनाया जाता है तथा इसका इतिहास क्या था?
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हूल दिवस 30 जून क्या है:-
विद्रोह 30 जून के दिन शुरू हुआ था और इसे हूल दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि संथाली भाषा में हूल का अर्थ विद्रोह होता है |
स्वतंत्रा से पूर्व आज का संथाल परगनाबंगाल प्रेसिडेंसी के अंतर्गत आता था तथा उस दौर में यहां पर आदिवासी समुदाय के लोग आराम से अपना जीवन व्यतीत करते थे | ये आदिवासी लोग काफी सरल, साहसी तथा निडर थे और ये जंगलों में रहने के साथ- साथ उनकी रक्षा करते तथा उन्हें अपना स्वामित्व समझते थे |
यहां के आदिवासी लोग अपने जमीन का राजस्व किसी को नहीं देते थे | कुछ वर्षों के बाद अंग्रेजों ने अपने राजस्व को बढ़ाने के लिए जमींदारों की नियुक्ति कर दिया और यह जमींदार लोग जबरन लगान वसूलने लगे, आदिवासी लोगों को कर्ज चुकाने के लिए साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता था |
किताबों में ऐसा भी लिखा है कि साहूकार लोग भी अत्यंत अत्याचार करते थे, अत्याचार इस तरह किया जाता था कि लगान या कर्ज चुकाने के लिए कई पीढ़ियां गुजर जाती थी पर लगान समाप्त नहीं होता था |
हूल क्रांति की शुरुआत :-
वतर्मान में झारखंड के साहिबगंज जिला में बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गाँव के भूमिहीन चन्नू मांझी के चार पुत्रों ने इस अत्याचार के खिलाफ आंदोलन/विद्रोह करने का निश्चय किया| चन्नू मांझी के चार पुत्रों सिदो, कान्हू, चांद, और भैरव तथा इनकी दो बहिनों फूलो और झानो ने भी इस विद्रोह का नेतृत्व किया था|
बाद में, विद्रोह के समय आदिवासी विद्रोह के द्वारा सिदो को राजा, कान्हू को मंत्री, चांद को प्रशासन और भैरव को सेनापति चुना गया था |
विद्रोह/आंदोलन के लिए प्रचार- प्रसार :-
संथाल आदिवासियों ने लोगों को एकजुट होने और लोगों को एकजुट करने के लिए ‘साल वृक्ष के टहनियों’ को लेकर एक गाँव से दूसरे गाँव की यात्रा की ताकि अधिक से अधिक लोग अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में शामिल हो सकें |
अंत में इन विद्रोहियों के द्वारा घोषणा हुआ और 30 जून 1855 को लगभग 400 से अधिक गांवो के 50000 से ज्यादा लोग भोगनाडीह पहुंचे |
विद्रोह का नारा :-
- सिदो ने एलान किया और नारा दिया ‘करो या मरो, अंग्रेजो हमारे माटी छोड़ो, अब हम और मालगुजारी नहीं देंगे’|
- हूल विद्रोह भारत के सबसे पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 से पहले का है इसका महत्त्व भारत के सभी स्वतंत्रता संग्राम में बहुत ज्यादा है |
- विद्रोह आरम्भ हुआ, घमासान और भयंकर युद्ध हुआ|
- वीर संथालों ने जमींदारों, साहूकारों और अंग्रेज और अंग्रेजी सेनाओं को मौत के घाट उतर दिया |
- अग्रेजों के लिए स्थिति संभालना मुश्किल हो गया ता तब उन्होंने ; मार्शल लॉ लगा दिया|
- लगभग 20000 आदिवासी लोग/ सैनिक भी शहीद हो गये थे |
अंततःअंग्रेजों ने चांद औ भैरव को पकड़कर मौत के घाट उतर दिया फिर बाद में सिदो, कान्हू को भी पकड़कर भोगनाडीह में पेड़ पर लटका कर 26 जुलाई 1855 को फंसी दे दी गई|
इन्ही वीर शहीदों के याद में झारखंड और पूरे भारतवर्ष में 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है |
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FAQ
इनके चार बेटे थे तथा दो बेटियां थी जिन्होंने झारखंड के इतिहास में हमेसा याद किया जाता है इन्होने अंग्रेजों, साहूकारों और लगान बसूले जाने के विर्दोह शुरू किया था इनके बेटे तथा बेटियों के नाम इस प्रकार है – सिदो, कान्हू, चांद, और भैरव तथा इनकी दो बहिनों फूलो और झानो |