इस लेख में ताम्र पाषाणकाल तथा आहार संस्कृति पर चर्चा करेंगे, तथा यह भी समझेंगे कि इस संस्कृति में भारत को राजस्थान के जिलों से क्या-क्या प्राप्त हुआ इसके साथ-साथ गिलुंद में पक्की ईंटों के प्रयोग का साक्ष्य के बारे में भी समझेंगे |
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आहार संस्कृति क्या है ?
राजस्थान के उदयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, अजमेर, जयपुर और टोंक जिलों में तथा मध्यप्रदेश के मंदसोर में अनेक ताम्रपाषाणयुगीन स्थल मिले हैं। केवल दो स्थलों का उत्खनन किया गया है आहार और गिलुंद। इस ताम्रपाषाण संस्कृति को आहार संस्कृति कहा जाता है। निर्माण कार्य अधिकांश साक्ष्य आहार से मिलता है। साधारण घर गारे और पत्थर के बने थे। नींवों में पत्थर का प्रयोग होता था। दीवारों को बांस के पद या पत्थर की पिंडिकाओं से सुदृढ़ बनाया जाता था और संभवतः ढलवां छते बनाई जाती थीं। फर्श काली मिट्टी और पीली गाद मिलाकर बनाई जाती थी, और कभी-कभी उस पर नदी के पाट की बजरी बिछा दी जाती थी। परंतु आहार में एक मकान 33 फुट 10 इंच लंबा था और एक कच्ची दीवार से उसके दो हिस्से बना दिए गए थे।
आहार संस्कृति में पक्की ईंटों के प्रयोग:-
गिलुंद में भंडार गर्न मिले हैं। गिलुंद में पक्की ईंटों के प्रयोग का साक्ष्य भी मिले हैं । मुख्य मृद्भांड काले और लाल रंगों में मिले हैं जिनमें तरह-तरह के रैखिक और बिंदीदार सफेद डिजाइने बने हैं। तांबे का प्रयोग व्यापक रूप से प्रचलित था। इस संस्कृति के लोग खानों से कच्चा तांबा एकत्र करके उसे घर पर पिघलाते और साफ करते थे। तांबे की वस्तुओं में अंगूठियां चुडीयां, सुरमे की सलाइयां, चाकू के फल और कुल्हाडियां मिली हैं। तांबे को घर पर पिघलाने की पुष्टि तांबे के पत्तर और धातु-मल से होती है। पशुओं की मृण्मूर्तियों, मनके, मुहरे इत्यादि भी मिले है। हल्के रत्नों के मनके भी मिले हैं। आहार में चावल की खेती की जाती थी। संभवतः बाजरा भी मौजूद था।
आहार संस्कृति में पशुओं की अस्थियों का मिलना :-
पशु-अस्थियां में मछली, मुर्गे, गाय, भैंस, बकरी, भेड़, हिरण और सुअर की अस्थियां शामिल है। जिनसे अर्थव्यवस्था में पालतु पशुओं के महत्व का संकेत मिलता है। यहतर्क दिया गया है कि इस संस्कृति के सबसे आरंभिक चरण के लिए लोग किसान कम, चरवाहे अधिक थे। वे अपने मवेशियों को संभवतः प्रत्येक वर्ष की किसी कालावधि में अपने घरों के बाहर बांध देते थे। जिस इलाके में मवेशी रखे जाते थे, उसमें लकड़ी के डंडों की बाड़ लगा दी जाती थी। बाइ के भीतर जो गोबर इकटठा होता था उसे प्रतिवर्ष बाड़ के डंडी के साथ ही जला दिया जाता था ।
महत्वपूर्ण तथ्य :-
इस संस्कृति के लोग पत्थर के छोटे-छोटे औज़ारों और हथियारों का इस्तेमाल करते थे, जिनमें पत्थर के फलकों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। दक्षिण भारत में प्रस्तर- फलक उद्योग बढ़ा और पत्थर की कुल्हाड़ी भी चलती रही। कई बस्तियों में तांबे की वस्तुएँ बहुतायत से मिली हैं। अहार में सूक्ष्मपाषाण औजारों का इस्तेमाल नहीं होता था। यहाँ पत्थर की कुल्हाड़ियों और फलकों को अभाव था ।
आहार के लोग शुरू से ही धातुकर्म जानते थे। आहार का प्राचीन नाम तांबवती अर्थात् तांबावाली जगह है। आहार संस्कृति का काल 2100 और 1599 ई० पू० के बीच माना जाता है और गिलुंद उस संस्कृति का स्थानीय केंद्र माना जाता है। गिलुंद में तांबे के टुकड़े ही मिलते हैं। यहाँ एक प्रस्तर- फलक उद्योग भी पाया गया है। बहुमुखी चूल्हों का प्रयोग यहां देखा जा सकता है। पैर से चलाए जाने वाली चक्की सहित कई अर्ध कीमती पत्थरों के मनके और सूत कातने के लिए चरखे भी पाए गए हैं। बालाथल, उदयपुर जिले में ही आहार संस्कृति का दूसरा महत्त्वपूर्ण केंद्र है।
“यहां भीत के बने छोटे-छोटे घरों का अस्तित्व दिखता है, जिनके फर्श को मिट्टी से लीपा गया था। यहां एक विशाल मिट्टी की दीवार द्वारा की गई घेरेबन्दी का प्रमाण मिला है, जो बिल्कुल मध्य में अवस्थित था। इस सुरक्षा दीवार को जगह-जगह पर पत्थरों के द्वारा मजबूती दी गई थी, जो बुर्ज बनाए जाने का स्पष्ट प्रमाण है। 4.80 मीटर से 5 मीटर के बीच मोटाई वाली इस दीवार से लगभग 500 वर्गमीटर के क्षेत्र को घेरा गया था। उत्तर-पश्चिम तथा दक्षिण-पूरब दिशा में जाने वाली एक सड़क का भी प्रमाण मिला है। यहां पर बहु-कक्षों वाले तीन विशाल भवनों को रेखांकित किया जा सकता है जिनमें रसोई घर और भण्डार कक्ष के अतिरिक्त दो कुम्हार की भट्ठी को भी चिन्हित किया गया है” |
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